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११२ / अश्रुवीणा
(३९) चक्षुः कामं सुपटु करणं दूरतोऽपि प्रकाशि, नार्हाः सौक्षम्यात् परमिह कुतोऽपि प्रतिच्छन्दमाप्तुम्। तस्माच्छ्रोत्रं शरणमिह वो व्यञ्जनं तेन नेयं, प्रारब्धव्यो लघुरथ गुरुर्वा विधिः संविमृश्य ॥
अन्वय- कामम् दूरतोऽपि प्रकाशि चक्षुः सुपटुकरणम् परमिह सौक्ष्म्यात् प्रतिछन्दम् आप्तुम् कुतोऽपि नार्हाः तस्माद् वः क्षोत्रम् शरणम् नेयन् तेन व्यञ्जनम् । लघुरथ गुरुर्वा संविमृश्य विधिः प्रारब्धव्यः।
अनुवाद- शब्दो! निश्चय ही दूर से ही प्रकाश करने वाला (वस्तु जगत् को देखने वाला) आँख बहुत निपुण इन्द्रिय है। परन्तु उस आंख में सूक्ष्म होने के कारण तुम अपना प्रतिबिम्ब डालने में समर्थ नहीं होवोगे । इसलिए तुम कान का ही शरण लेना जिससे तुम्हारी अभिव्यक्ति हो जाएगी। कार्य छोटा हो या बड़ा सम्यक् रूप से विचार कर ही उसका प्रारंभ करना चाहिए।
व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक में कवि ने सफलता का सूत्र दिया है। जीवन में वही व्यक्ति सफल होता है जो कार्य को सोच-विचार कर प्रारंभ करता है। ____कामम् अव्यय पद है। निस्संदेह, बेशक, सचमुच आदि अर्थों का वाचक है।
प्रतिछन्दम्-चित्रम्, मूर्तिः, प्रतिमा।
व्यञ्जनम् स्पष्टीकरणम्, चिह्नम्, संकेतम् । वि उपसर्ग+अञ्ज धातु+ल्युट् प्रत्यय।
विधिः कृत्य, कर्म, अनुष्ठान, कार्य। काव्यलिंग एवं अर्थान्तरन्यास अलंकार है। तस्माद्-व्यञ्जनम्-काव्यलिंग अलंकार। लघुरथ-के द्वारा समर्थन। सुन्दर सूक्ति। अर्थान्तरन्यास अलंकार। माधुर्य गुण।
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