Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 130
________________ अश्रुवीणा । १११ (३८) भावा वाच्या वचनचतुरै वैखरी प्राप्य वृत्तिंसारोढव्या क्वचिदिह दशा मध्यमा वा यथार्हम्। पश्यन्ती न स्मृतिसिचयतो नूनमुत्सारणीया, युष्माभिर्वा भगवति गतैः स्प्रक्ष्यते सा परापि॥ अन्वय- वचनचतुरैः क्वचिदिह वैश्वरीह वृतिम् प्राप्य भावा वाच्या। क्वचिदिह यथार्हम् मध्यमा दशा वा आरोढव्या। पश्यन्ती स्मृतिसिचयतो न नूनम उस्सारणीया। भगवति गतैः युष्माभिः सा परापि स्प्रक्ष्यते। अनुवाद- निपुण (वचनकुशल) जनों को (आवश्यकतानुसार) कहीं पर वैखरी ध्वनि को प्राप्त कर अपने भावों को कहना चाहिए। कहीं पर आवश्यकता होने पर मध्यमा ध्वनि का भी आधार लेना चाहिए। ऐसे समय में पश्यन्ती ध्वनि को भी स्मृति से हटाना नहीं। भगवान को प्राप्त करने पर परा ध्वनि का भी संस्पर्श करना पड़ेगा। व्याख्या- वाणी के चार भेद बताए गये हैं-महाभाष्यकार पतञ्जलि ने महाभाष्य में 'चत्वारि वाक्परिमिता पदानि.'-प्रथमाह्निक में चार भेदों का निर्देश किया है। वे चार भेद हैं-परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी । अज्ञान रूपी अंधकार में प्रथम तीन निहित हैं इसलिए प्रकाशित नहीं होते हैं। चौथी वैखरी वाणी का मनुष्य प्रयोग करते हैं। ___ वैखरी-स्पष्ट मानवीय ध्वनि है । महाभाष्य के अनुसार इसका मनुष्य प्रयोग करते हैं। तुरीयो वाचो मनुष्या वदन्ति। कण्ठादि उच्चारण स्थानों से उत्पन्न, अर्थबोधक वाणी को वैखरी वाक् कहते हैं जो प्राणवृति निबन्धिनी तथा बुद्धि साध्य होती है। लोक में इसी का प्रयोग होता है। मध्यमा-हृदय से उत्पन्न शब्द भेद को मध्यमा कहते हैं। प्राणवृत्तिमनुक्रम्य मध्यमा वाक्प्रवर्तते। पश्यन्ती-अविभाजित वाणी। अन्तःकरण की ध्वनि। परा-अनपायिनी वाणी। सर्वतन्त्र स्वतंत्र वाणी, बीजरूपा। मूलाधार में स्थित शब्द भेद, जिसके जागरण से परमसत्ता की प्राप्ति सद्यः हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178