Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 104
________________ अश्रुवीणा / ८५ दीप्त्यात्म विस्तृतेर्हे तुरोजो वीररसस्थितिः। वीभत्स रौद्ररसयोस्तस्याधिक्यं क्रमेण च ।। काव्यप्रकाश 9.70 (१६) अत्राणानां त्वमसि शरणं त्राहि मां त्राहि तायिन्, गृहीस्वैतान् सकरुणदृशा नीरसान् सूर्पमाषान्। अन्तःसाराः सहजसरसा यच्च पश्यन्ति गूढ़ानन्तर्भावान् सरसमरसं जातु नो वस्तुजातम् ।। अन्वय- तायिन् ! त्वम् अत्राणानां शरणमसि। त्राहि मां त्राहि । सकरुण दृशा एतान् नीरसान् सूर्पमाषान् गृह्णीस्व। यत् सहजसरसा अन्त:सारा अन्तर्भावान् पश्यन्ति नो जातु सरसमरसम् वस्तु जातम्। अनुवाद- हे त्रिभुवन रक्षक! तुम अशरणों (अत्राणों) के शरण हो। मेरी रक्षा करो। मेरे ऊपर कृपा दृष्टि के साथ छाज में रखे हुए निरस उड़द को स्वीकार करो। क्योंकि जो लोग सहज रूप से सरस होते हैं और अन्तःकरण (आत्मा) में ही सारत्व का अनुभव करते हैं, वे हृदय के भाव को देखते है, सरस या निरस वस्तु (बाह्य पदार्थ) को सर्वथा नहीं देखते हैं। व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक में भगवान् के भक्तरमणीय, भक्त वत्सल-स्वरूप का चित्रण किया गया है। काव्यलिंग,अनुप्रास तथा अर्थान्तरन्यास एवं परिकर अलंकार हैं। तुम सबके रक्षक हो इसलिए मेरी रक्षा करो-काव्य० । सकरुणदृशा एतान् सूर्पमाषान्-अनुप्रास। यत्-वस्तुजातम्-अर्थान्तरन्यास।अन्तःसारा:सहजसरसा-परिकर अलंकार। जातु-अव्यय । कभी, सर्वथा, कदाचित् आदि अर्थों में प्रस्तुत होता है। यहाँ सर्वथा अर्थ अभिव्यंजित है। नो जातु = सर्वथा नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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