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१०८ / अश्रुवीणा
अनुवाद- शब्दो! तुम जीव, अजीव एवं जीवाजीव (मिश्र) से उत्पन्न होकर आकाश में अपनी आकृति और भूमि पर विविध रेखाओं का निर्माण करते हो। आश्चर्य है कि आज भी लोग तुम्हें कानों का ही विषय मानते हैं । स्थूल दृष्टि वाले लोगों के मध्य में विद्वानों को निश्चय ही सूक्ष्म नहीं बनना चाहिए (सूक्ष्म ज्ञान नहीं देना चाहिए)।
व्याख्या- शब्द बिम्ब का सुन्दर उदाहरण है। अर्थान्तरन्यास अलंकार है।
(३५) सद्यो वातावरणमखिलं क्षोभयन्त्यो लहर्यो, युष्माकं तं निरुपममहो ध्यानलीनं समेत्य। क्षोभात्मानं निजकमुचितं विस्मरे युन भावं, कश्चिच्चित्रो भवति भुवने यन्महात्म-प्रभावः॥
अन्वय- अहो सद्यो वातावरणमखिलम् क्षोभयन्त्यो युष्माकम् लहों तम् निरूपमम् ध्यानलीनम् समेत्य निजकं क्षोभात्मानम् उचितम् भावम् न विस्मरेयुः यत् भुवने महात्म प्रभावः कश्चित् चित्रो भवति। ___ अनुवाद- आँसुओ! सम्पूर्ण वातावरण को सद्य क्षोभित करने वाली तुम्हारी लहरें उस निरूप ध्यानलीन भगवान् के पास जाकर कहीं झकझोरने वाले अपने स्वभाव को ही न भूल जाए। क्योंकि संसार में महात्माओं का कोई अद्भुत प्रभाव होता है।
व्याख्या- चन्दनबाला अपने दूत को सदा कर्तव्य के प्रति अप्रमत्तता का उपदेश देती है। मार्ग में आने वाली कार्यबाधाओं की ओर संकेत करती है। अर्थान्तरन्यास अलंकार है। भगवान् को पाकर कहीं भूल न जाए' इस विशेष का (यत् भुवने.) सामान्य के द्वारा समर्थित किया गया है। अच्छी सूक्ति है। निरूपमम् ध्यानलीनम् ये साभिप्राय विशेषण है। इसलिए परिकर अलंकार है। माधुर्य एवं प्रसाद गुण विद्यमान है।
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