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१०४ / अश्रुवीणा
इस श्लोक में अनुप्रास, समुच्चय और अर्थान्तरन्यास आदि अलंकार हैं। अनुप्रास-मृद्मरूच्चातपः
आसुओं को कार्य करने में बाधा इसलिए है कि वह सरलप्रकृति का है। कार्य बाधक के रूप में आँखे मृद् मरुत आदि भी हैं इसलिए समुचय अलंकार
तत्सिद्धिहेतावेकस्मिन् यत्रान्यत्तत्करं भवेत्। समुच्चयोऽसौ। काव्यप्रकाश यहां खलेकपो: न्याय से समुच्चय अलंकार है।
त्राणं यस्माद् भवति न-अर्थान्तरन्यास पूर्व का समर्थन किया गया है। माधुर्य, प्रसाद और ओज-तीनों गुणों का समन्वय है।
(३१) ध्येयं सम्यक् क्वचिदपि न वा न्यून-सज्जा भवेत, घोषाः पुष्टा बहुलतुमुलास्ते पुरश्चारिणः स्युः। आकर्षे युगमन-नियतं ये प्रभोानमत्र,
यन् मूकानां न खलु भुवने क्वापि लभ्या प्रतिष्ठा॥ अन्वय- सम्यक् ध्येयम् नवा क्वचिदपि न्यूनसज्जा भवेतु। बहुलतुमुला पुष्टा घोषा ते पुरश्चारिणः स्युः। ये गमन-नियतं प्रभोर्ध्यानम् अत्र आकर्षेयुः। यत् मूकानां न खलु क्वापि प्रतिष्ठालभ्या। ___ अनुवाद- आँसूओ ! तुम सम्यक् रूप से ध्यान रखना कि कहीं किसी प्रकार से सामग्री-तैयारी में न्यूनता न रह जाए। अत्यधिक कोलाहलमय (तुमुलनाद करने वाले) ये घोष (मेरी सिसकियाँ) तुम्हारे आगे-आगे चलें और जानेवाले भगवान् के ध्यान को इधर आकृष्ट करें । क्योंकि मूक व्यक्तियों को निश्चय ही कोई प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती है।
व्याख्या- इस श्लोक में करुणा का स्वाभाविक चित्रण है। इष्ट की अप्राप्ति निश्चित हो जाने पर या प्राप्त इष्ट के अप्राप्त हो जाने पर मानवीय मन में तूफान
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