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८० / अश्रुवीणा ___ अकिंचनैः निर्विशेषा - दरिद्र के समान। विशेष अलगाव, विभेद का वाचक है। जो अलग नहीं है वह निर्विशेष है। चन्दनबाला अकिंचन हो चुकी है। अकिंचन= जिसके पास कुछ भी नहीं हो। नास्ति किंचन यस्य । अकिंचनः सन् प्रभवः स सम्पदाम्-कुमारसंभव 5.77।
स्वामिन् = स्वामी शब्द का सम्बोधन । भगवान् के लिए प्रयुक्त । स्वामी शब्द मालिक, अधिकारी, प्रभु राजा, पति, गुरु, विद्वान् आदि का वाचक है। स्वमस्यास्ति जिसके पास 'स्वम्' विद्यमान हो वह स्वामी है। 'स्वम्' शब्द दौलत, सम्पत्ति आदि का वाचक है।
विनयविनता - विनय से विनत। जहाँ पर श्रद्धा का साम्राज्य हो वही विनय की प्रसवभूमि है। विनय से झुकी हुई। चन्दना का विशेषण।
विनय शालीनता, सदाचार, शिष्टाचार, अच्छा चाल-चलन।
प्रणामावशेषा-प्रणाम मात्र ही जिसके पास अवशिष्ट है। चन्दना का विशेषण। जन्म-जन्मान्तर से प्रतीक्षित भगवान द्वार पर आए हैं, भक्त के पास भगवान् को देने के लिए मात्र प्रणाम ही शेष है।
चंदना की यह स्थिति भागवतपुराण के गजेन्द्र से मिलती-जुलती है। प्राणसंकट में वह प्रभु को पुकारता है। प्रभु स्वयं आते हैं, लेकिन गजेन्द्र के पास कुछ नहीं है, केवल प्रणाम, नमस्कार मात्र ही अवशिष्ट है। इस श्लोक में विभावना, विशेषोक्ति, अर्थापत्ति और अर्थान्तरन्यास अलंकार हैं।
विभावना-कारण के अभाव में कार्योत्पत्ति । परीक्षा उसकी होती है जो श्रद्धारहित है। श्रद्धारहितता परीक्षा का कारण है, जो उपलब्ध नहीं है।
विशेषोक्ति-कारण होने पर भी कार्य का नहीं होना । चंदना श्रद्धापूर्णा है उसकी परीक्षा नहीं होनी चाहिए। श्रद्धापूर्णता कारण है लेकिन परीक्षा का नहीं होना रूप कार्य अविद्यमान है।
अर्थापत्ति-अद्यापि नूनं परीक्ष्या। यहाँ कैमुतिक न्याय से अर्थापत्ति अलंकार
__अर्थान्तरन्यास-सामान्य का विशेष से समर्थन ।श्लोक के अन्तिम दो चरणों से पूर्व के दो चरणों का समर्थन किया गया है। संकर और संसृष्टि अलंकार
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