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अश्रुवीणा / ६७ अनुराग - अनु उपसर्गपूर्वक रञ्ज धातु से घञ् प्रत्यय करने पर अनुराग बनता है। जो भक्ति, आसक्ति, प्रेम, स्नेह, निष्ठा आदि का वाचक है।
साधना की भूमि में जाने के लिए यह प्रथम योग्यता है - समवृत्ति धारण करना। लाभ-अलाभ में सम रहना, स्थिर रहना।गीता की भाषा में उसे वीतराग कहते हैं।
इति चित्रम् चित्रम् - यह आश्चर्य का विषय है । चित्रम् शब्द अहा! कैसा विस्मय है। आश्चर्य है, आदि का वाचक है, इसकी पुनरावृत्ति आश्चर्याधिक्य द्योतनार्थ है। इस अर्थ में यह अव्यय है। आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रम् -
अमरकोश. 13.3.178 जगति श्रद्धाभाजो गणिताः-संसारेऽस्मिन् श्रद्धाशीला:गणनीयाः अत्यल्पा इत्यर्थः । इस संसार में श्रद्धाशील पुरुष अत्यल्प हैं। क्षद्धा के अधिकारी अत्यल्प
हैं।
सन्दिहानाः - संदेहशीला असंख्या - संख्यारहिता इत्यर्थः।
श्रद्धाभाज् के प्रथमा बहुवचन में श्रद्धाभाज:होता है। भाज् शब्द प्रायः समास के अन्त में आता है। इसका अर्थ होता है - हिस्सेदार, साथी, भागी, रिक्थ, अधिकारी, भावुक, सचेतन, अनुरक्त आदि। यहाँ अधिकारी अर्थ उचित है।
तेन कश्चित् विरल: तपस्वी श्रद्धापात्रम् भवति-यही कारण है कि कोई विरल तपस्वी (साधक) ही श्रद्धा का पात्र होता है।
विरलः - यह विशेषण पद है। तपस्वी का विशेषण है । निराला, दुर्लभ, थोड़ा, अल्प आदि अर्थों का वाचक है। पेलवं विरलं तनु - अमरकोश 3.1.66 विरलेऽल्पे कृशे - हैमकोश2.270 विउपसर्गपूर्वक रा-दाने धातु से वाहुलकात् कलन् (अल्) प्रत्यय होकर विरल बना है। विशेषेण राति गुण ज्ञानादिभिः ददाति प्रकाशति विशिष्टो भवति सो विरल अत्यल्प इत्यर्थः। ___ यह सूक्ति है। सामान्य के द्वारा विशेष के समर्थन से, यहाँ अर्थान्तर न्यास अलंकार है। माधुर्य गुण और उपचार वक्रता की छटा विद्यमान है।
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