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अश्रुवीणा / ६५
अनुराग रखती हो - यह महान् आश्चर्य है। संसार में श्रद्धाभाज (श्रद्धा का अधिकारी) गिने हुए है- (अत्यल्प परन्तु सन्देहशील असंख्य । इसलिए कोई विरल तपस्वी ही श्रद्धा पात्र होता है।
व्याख्या - विवेच्य श्लोक में अनुप्रास, विरोध, विशेषोक्ति, विभावना, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिंग, संसृष्टि, संकर आदि अलंकारों के माध्यम से श्रद्धा के अधिकारी के स्वरूप की ओर निर्देश किया गया है। श्रद्धा के रमणीय रूप का भी अभिव्यंजन हो रहा है।
तवप्राणकोशाः सुमृदवः = तुम्हारे प्राणकोश अत्यन्त मृदु हैं।
तव - श्रद्धायाः प्राणकोशाः - अभ्यन्तरस्थनानि आत्मप्रदेशाः वा सुमृदवः - सुकुमाराः सन्ति। प्राणकोशाः - प्राणकोशा-भीतर भाग, प्राणाः
कुश्यन्ति संश्लेषयन्ति यत्र तत् प्राणकोशः प्रथमैकबहुवचने प्राणकोशाः अभ्यन्तर प्रदेशा इत्यर्थः।
सुमृदवः - सुकुभाराः । सुमृदु शब्द का प्रथमा बहुवचन । सु एक निपात है जो कर्मधारय एवं बहुब्रीहि समास बनाने के लिए संज्ञा शब्दों से पूर्व जोड़ा जाता है। विशेषण और क्रियाविशेषण में भी इसका प्रयोग होता है। अच्छा, सुन्दर, मनोहर, सर्वथा, पूरी तरह, आसानी से, अधिक आदि अर्थों का वाचक है। पूजने स्वती - अमर. 3.4.5, सु पूजायां भृशार्थेऽनुमति कृच्छ्रसमृद्धिषु' - मेदिनी 185.79, षु गतौ (प्रसवैश्वर्ययोः) से डुः (उ) प्रत्यय हुआ है।
मृदु विशेषण पद है। सु उपपद के साथ सुमृदु बना है। मृदु शब्द चिकना, कोमल, लचीला, सुकुमार, नम्र आदि अर्थों का वाचक है।
सुकुमारं तु कोमलं मृदु, अमरकोश3.1.78, कोमलं मृदुले जले - विश्वकोश 156.95, मृदुतीक्ष्णे च कोमले - हैमकोश: 2.236, मृदु - क्षोदे (क्रयादिगण) से प्रथिमृदिभ्रस्जाम् ( उणदिसूत्र 1.28) से उ प्रत्यय होकर मृदु बना। जहाँ पर कठोरता, कर्कशता पीस जाए, समाप्त हो जाए उसको मृदु कहते हैं। मृदु में कठोरता का सर्वथा अभाव हो जाता है, केवल कोमलता, मसृणता ही अवशिष्ट होती है। तभी 'सुमृदवः' शब्द को 'प्राणकोशाः' का विशेषण बनाया है।
कष्टोन्मेषे दृढ़तममतौ मानवे अनुराग: च-तुम्हारे प्राणकोशं अत्यन्त कोमल हैं और दु:ख के भँवर में जो कठोर एवं स्थिर मति वाला होता है उसमें तुम्हारा
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