________________
अश्रुवीणा / ५३
जैन टीकाकारों ने निर्दिष्ट किया है -
नास्तिक्य परिहारस्तु शिष्टाचार प्रपालनम् ।। पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नं शास्त्रादौ तेन संस्तुतिः॥
पंचास्तिकाय जयसेनाचार्य कृत तात्पर्यवृत्ति
द्रव्यसंग्रह पर ब्रह्मदत्त की टीका अब विचारणीय प्रश्न है कि अश्रुवीणा के प्रारंभ में कवि ने किस प्रकार का मंगलाचरण किया है?
यह तो सिद्ध है कि कवि ने काव्यारंभ में किसी प्रकार के इष्ट देवता का अभिवन्दन नहीं किया है। श्रद्धे!' शब्द का प्रथमोच्चारण ही मंगल है। गण की दृष्टि से आदि मगण या ग्रन्थारंभ में मगण का प्रयोग ऐश्वर्य, विभूति, श्री, सम्पदा आदि का सम्बर्द्धक माना जाता है -
शुभदो मो भूमिमयः - रघुवंश 1.1 पर मल्लिनाथ टीका
यही कारण है कि प्राय: प्रमुख महाकाव्यों, खण्डकाव्यों का प्रारंभ मगण से ही देखा जाता है -
वागर्थाविव. -- रघुवंश कश्चित्कान्ता. -
मेघदूत दिक्कालाद्य.
नीतिशतक (भर्तृहरि) चूडोत्तंसित
वैराग्यशतक - (भर्तृहरि) पाणि ग्रहे.
आर्या सप्तशती – गोवर्धनाचार्य श्रद्धे मुग्धान् - अश्रुवीणा
श्रद्धे मुग्धान् में मगण का प्रयोग है इसलिए मंगलकारक है। 'श' शब्द का उच्चारण शिव की अभिव्यक्ति करता है। यह शिव या परम मंगल का वाचक है। 'श' शब्द से ऐसे अस्त्र का भी बोध होता है जो काममलों का विनाशक हो। र शक्ति का वाचक है। इस प्रकार 'श्र' शब्द काममल विनाशक एवं महाशक्ति का उद्घाटक सिद्ध होता है। श्रीं' शक्ति का बीज मन्त्र माना जा... है। 'श्री' परमसौंदर्य एवं महदैश्वर्य का बोधक है। इस प्रकार श्रद्धे! शब्द का उच्चारण ही मंगल कारक है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org