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६० / अश्रुवीणा
सत्सम्पर्का दधति न पदं कर्कशा यत्र तर्काः, सर्व द्वैधं व्रजति विलयं नाम विश्वासभूमौ। सर्वे स्वादाः प्रकृतिसुलभा दुर्लभाश्चानुभूताः,
श्रद्धा-स्वादो न खलु रसितो हारितं तेन जन्म॥ अन्वय - यत्र कर्कशा तर्काः (तत्र) सत्सम्पर्का पदं न दधति। सर्वं द्वैधं विश्वासभूमौ नाम विलयं यान्ति । प्रकृति सुलभा दुर्लभाश्च सर्वेस्वादा अनुभूताः (परं) श्रद्धास्वादो (येन) न खलु रसितो तेन जन्म हारितम्।
अनुवाद - जहाँ पर कर्कश (कठोर) तर्क होते हैं वहां अच्छे सम्बन्ध स्थिर नहीं होते हैं। सारे द्वैध (संघर्ष) विश्वास (श्रद्धा) की भूमि पर निश्चय ही विलय (विनाश) को प्राप्त हो जाते हैं। स्वाभाविक, सुलभ एवं दुर्लभ सभी स्वादों को अनुभूत कर लेने पर भी जिसने श्रद्धा का स्वाद नहीं चखा उसका जन्म ही वृथा है। __व्याख्या - इस श्लोक में श्रद्धा की महनीयता का निरूपण किया गया है। जहाँ श्रद्धा का साम्राज्य होता है, श्रद्धा होती है, वहाँ संघर्ष स्वतः समाप्त हो जाते हैं। कर्कश तर्क या वैचारिक भ्रान्ति ही संघर्ष को जन्म देते हैं । समाज-व्यवस्था या समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी यह श्लोक महनीय है। श्रद्धा, विश्वास के अभाव से ही पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय अथवा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर कलह, संघर्ष का जन्म होता है और जहाँ श्रद्धा होती है इन सबका विनाश हो जाता है।
यत्र ..... पदं न दधति -- जहाँ पर कठोर तर्क होते हैं वहाँ पर सत्संपर्क ठहर नहीं पाते हैं।
यत्र = जहाँ पर। अव्यय पद है।
कर्कशा: - यह पद तर्काः का विशेषण है। यह शब्द दो धातुओं के मेल से बना है।
कृञ - हिंसायाम् (क्रयादि गणीय) एवं कश शब्दे (अदादि गणीय धातु)
कृञ् हिंसायाम् धातु से अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते 3.2.75 पाणिनि सूत्र से विच् प्रत्यय से कर, कश धातु से पचाद्यच् (3.1.134) सूत्र से अच् (अ) प्रत्यय करने
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