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अश्रुवीणा / ४७ जो सत्य को धारण करे या जो सत्य पर आधारित हो उसको श्रद्धा कहते हैं । निरुक्तकार यास्क ने लिखा - श्रद्धा श्रद्धानात् । तस्या एषा भवति' (निरुक्त 9.30) अर्थात् सत्य (श्रत) पर आधारित होने के कारण श्रद्धा श्रद्धा कहलाती है) निरुक्त के टीकाकार दर्ग का अभिमत है कि श्रद्धा वह आन्तरिक भाव है, जिसको कोई धार्मिक या धर्मनिरपेक्ष (अर्थ, काम) तथा आध्यात्मिक विषयों (मोक्ष) के प्रति ग्रहण करता है तथा जिसमें कोई परिवर्तन नहीं आता है। अमरकोशकार ने संप्रत्यय (विश्वास, आदर) और स्पृहा के अर्थ में श्रद्धा को स्वीकार किया है -
श्रद्धा संप्रत्ययः स्पृहा (अमर. 3.3.102) । मेदिनी में आदर और कांक्षा अर्थ माना गया है . ' श्रद्धाऽदरे च कांक्षायाम् (मे. 80.19) । आधुनिक कोशकारों ने श्रद्धा को आस्था, निष्ठा, विश्वास, भरोसा, दैवी सन्देशों में विश्वास, धार्मिक निष्ठा', मन की स्वस्थता, शान्ति, घनिष्ठता, परिचय, आदर, सम्मान, प्रबल या उत्कट इच्छा आदि अर्थों का वाचक माना है। गुरु और वेदान्त (आप्तवाणी) वाक्यों में विश्वास श्रद्धा है (वेदान्तसार) । धर्म कार्य में विश्वास श्रद्धा है - प्रत्ययो धर्म कार्येषु तथा श्रद्धेत्युदाहृता।
श्रद्धा के महत्व को सबने स्वीकार किया है। उपनिषदों में इसे हृदय, माता यजमानपत्नी आदि श्रेष्ठ विशेषणों से अभिहित किया गया है। श्रद्धा हृदय इति होवाच - बृहदारण्यक। श्रद्धा पत्नी - महानारायणीयोपनिषद् 18.1
इसमें देवों का अधिवास होता है तथा यह देवों की रानी है। इसलिए यह सारा संसार श्रद्धामय ही है - श्रद्धा देवानधिवस्ते श्रद्धा विश्वमिदं जगत् । तैत्तरीय ब्राह्मण 2.8.8
श्रद्धा से ही ब्रह्मतेज प्रज्वलित होता है -
श्रद्धायाग्निः समिध्यते । ऋग्वेद 10.151.1 श्रद्धा से सत्य मिलता है- श्रद्धया सत्यमाप्यते। यजुर्वेद 19.30 श्रद्धावान् ही ज्ञान का पात्र होता है
श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्, गीता 4.39। इसी महनीयता को दृष्टि में रखकर आचार्य महाप्रज्ञ ने घोषित किया है - श्रद्धास्वादो न खलु रसितो हारितं तेन जन्म
अश्रुवीणा - 4
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