Book Title: Aptavani 14 Part 1 Hindi
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 9
________________ माया-लोभ, ये व्यतिरेक गुण उत्पन्न हो जाते हैं। मैं चंदू हूँ', वही मान्यता दुःखदायी हो जाती है। वह मान्यता छूट जाए तो फिर कोई दुःख रहेगा ही नहीं। यदि विशेष भाव में इतना ही समझ में आ जाए तो उसके बारे में तमाम खुलासे हो जाएंगे। प्रस्तुत ग्रंथ में आने वाले शब्द जैसे कि विभाव, विशेष भाव, विभाविक भाव, विशेष परिणाम, विपरिणाम, विभाविक परिणाम वगैरहवगैरह शब्द निमित्ताधीन निकले हैं। साधकों को उनका अर्थ एक समान ही समझना है। प्रस्तुत ग्रंथ के खंड-२ में आत्मा के द्रव्य-गण-पर्याय से संबंधित सूक्ष्म सैद्धांतिक स्पष्टता की गई है। परम पूज्य दादाश्री ने जीवन में अनुभव करके परिभाषा और उदाहरण दिए हैं, ताकि द्रव्य, गुण और पर्याय यथार्थ रूप से समझ में आ जाएँ। जो अत्यंत ही गहन है, ऐसा यह विषय, देशी शैली में बहुत ही सरलता से समझाकर, ज्ञानदशा की पराकाष्ठा पर पहुँचकर कैसा लगता है, केवलज्ञान के लेवल पर कैसा बरतता है, उनकी खुद की अनुभव सहित वाणी में पूर्ण रूप से स्पष्टता कर दी है। तब 'अहो! अहो!' हो जाता है कि जो 'जे पद श्री सर्वज्ञे दीठं ज्ञानमां, कही शक्या नहीं ते पद श्री भगवान जो ऐसी गहन बातें जितनी शब्दों में बताई जा सकती हैं, उतनी वाणी द्वारा बता सके हैं और तत्त्वों के भीतर के रहस्य सामान्य मनुष्य तक पहुँचा सके हैं। इसमें पर्याय और अवस्था के तात्त्विक भेद प्राप्त होते हैं और यह भी कि अवस्था में 'मैं' पन होने से संसार खड़ा हो गया है और उसके कारण अस्वस्थ रहते हैं। तत्त्व में 'मैं' पन होने से संसार से छूट जाते हैं और निरंतर स्वस्थ रह सकते हैं। खुद निरंतर अवस्थाओं से मुक्त रहे और दूसरों को भी अवस्थाओं से मुक्त रहने का अद्भुत विज्ञान दिया। जो खुद तत्त्व स्वरूप से रहे और दूसरों को वह तत्त्व दृष्टि प्राप्त करवा सके, उस अक्रम विज्ञान को धन्य है और अक्रम विज्ञानी को भी धन्य है। प्रस्तुत ग्रंथ पढ़ने से पहले साधक को उपोद्घात अवश्य ही पढ़ना

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