Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 11
________________ " अपभ्रंश के जैन कवियों तथा संत कबीर ने सुख प्राप्ति के लिए उक्त दोनों प्रकार के संयम को अनिवार्य बताया है।' 11 44 " इन्द्रिय संयम के लिए मन- संयम आवश्यक है। मन को वश में करके ही इन्द्रियों को वश में किया जा सकता है । " " अपभ्रंश के जैन कवियों ने तथा कबीर ने ऐहिक सुख तथा पारमार्थिक सुख के साथसाथ सामाजिक अभ्युत्थान के लिए संयम को सर्वाधिक महत्त्व दिया है । यदि आज मानव मनीषियों द्वारा प्रतिपादित संयम के महत्त्व को स्वीकार कर अपनी उद्दाम और उच्छृंखल वासनाओं को नियंत्रित करने का प्रयत्न करे तथा प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और सौहार्द्र से अभिभूत हो, उनकी रक्षा में तत्पर हो जाये तो निश्चय ही वह स्वयं असीम आत्मिक सुख का रसास्वादन करने के साथ-साथ समाज को भी भयमुक्त स्वच्छ वातावरण प्रदान कर उसके सुख-शान्ति में सहायक बन सकता है।' “ भाषिक दृष्टि से हिन्दी में अपभ्रंश और प्राकृत की परम्पराएँ संस्कृत की तुलना में कहीं अधिक सुरक्षित है। इसका कारण यह है कि भाषिक विकास की दृष्टि से हिन्दी अपभ्रंश की ठीक पीठ पर आती है । फलस्वरूप हिन्दी अपभ्रंश की सीधी/सहज वारिस ठहरती है । " “हिन्दी में कुछ ऐसे देशज शब्द प्रचलित हैं जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत के आधार पर सिद्ध नहीं की जा सकती। ऐसे शब्दों का सीधा सम्बन्ध मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा विशेषतः प्राकृत से प्रमाणित होता है । ये शब्द हैं- उथल-पुथल, उलटा, उड़ीस, उड़द, ऊबना, ओढ़ना/ नी, ओजदार/ओझराहा, कहार, कोयला, कोल्हू, खिड़की, चावल, झमेला, झाड़, झूठ, ठल्ला (निठल्ला), डाली, डौआ, ढेकी, ढकनी, तागा इत्यादि । " “ अपभ्रंश के गर्भ से जन्म लेनेवाली भाषा हिन्दी पर अपभ्रंश के साथ-साथ प्राकृत का भी अत्यधिक प्रभाव है । प्राकृत के काव्यरूप कवि- परम्पराएँ, नख-शिख वर्णन, ऋतु वर्णन, श्रृंगार के दोनों पक्षों के सांगोपांग वर्णन चित्रण इत्यादि से प्रभावित हिन्दी काव्य ने उनके भाव को ही नहीं अपनाया बल्कि कई बार भावों के वर्णन चित्रण में प्राकृत के औपम्य-विधान को भी हू-ब-हू उसी रूप में ग्रहण किया । " " प्राकृत साहित्य का विद्यापति पर प्रभाव न केवल शृंगार-वर्णन प्रसंग में देखा जाता है बल्कि विद्यापति की अवहट्ठ भाषा में रचित वीररसपरक रचनाओं 'कीर्तिलता' और 'कीर्तिपताका' पर भी प्राकृत का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है।" - इस अंक के प्रकाशन के लिए जिन विद्वान् लेखकों ने अपनी रचनाएँ भेजकर हमें सहयोग प्रदान किया हम उनके आभारी हैं । संस्थान समिति, सम्पादक मण्डल एवं सहयोगी कार्यकर्ताओं के भी आभारी हैं। मुद्रण हेतु जयपुर प्रिन्टर्स प्रा. लि. जयपुर धन्यवादाह है । डॉ. कमलचन्द सोगाणी

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