Book Title: Apaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Author(s): Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
Publisher: Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 14
________________ 4 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय करुणा निलय भगवान् महावीर से सपृक्त है। चिन्तन की चॉदनी मे लोटती लहरो की बॉसुरीवत् भगवान् महावीर के सस्मरण चित्रपट की तरह मानस पटल पर प्रतिबिम्बित हो रहे हैं। उसी मे आकण्ठ डूबा श्रद्धाभिनत" होकर सोच रहा है। ओह | कैसा अद्वितीय जीवन भगवान् महावीर ने जीया है। स्वय प्रज्वलित होकर दूसरो को जिलाया है। स्वय कष्टसहिष्णु बनकर दूसरो को बचाया है। समता का उपदेश देने से पहिले स्वय परम समत्व की भूमिका पर आरोहण कर वीतरागता का मार्ग प्रशस्त किया है और अपने भीषणतम कर्म-जजाल को मात्र 12/2 वर्ष मे मात्र 12/2 वर्ष के अत्यल्पकाल मे तोड डाला। वे किसी भी स्थिति-परिस्थिति मे, किसी भी क्षेत्र मे, किसी भी अवस्था मे असफल, अपराजित नहीं हुए, क्योकि उन्होंने सदैव स्वय को जीतने का अप्रतिम पुरुषार्थ किया। दूसरो के किसी भी कृत्य से स्वय को जोड़ने का प्रयास नहीं किया, न स्वय की प्रशसा से कही प्रसन्नता की झलक दिखलाई, न निन्दा से विद्वेष की, प्रतिशोध की भावना। वैभाविक परिणामो से सर्वथा दूर, वे स्वय मे जीकर स्वय को जीतने का पुरुषार्थ करते रहे। सहस्रो की भीड मे भी एकाकी रहकर आत्मशक्तियो को उजागर करने का प्रयास करते रहे। प्रव्रज्या के प्रथम दिन जब उन पर घोर उपसर्ग आया और एक सामान्य ग्वाला भी अपने बैल बाँधने की रस्सी से उन्हे मारने को उद्यत हुआ तभी मै स्वय वहाँ पहुँचा और ग्वाले को समझाकर उसे मारने से रोका और भगवान् से निवेदन भी किया, भते । साधना के मार्ग मे अभी भीषणतम उपसर्ग आने वाले हे ओर उनसे रक्षा करने हेतु मैं स्वय आपकी सेवा मे उपस्थित रहना चाहता हूँ, लेकिन वे ठहरे महावीर । उन्होने कहा-कष्टो मे समाधि ही वीतरागता प्राप्ति का मार्ग है। मै उस मार्ग मे स्वय अपने-आप को गतिमान करना चाहता हूँ इसलिए इस कार्य के लिए तुम्हारी उपस्थिति नही, मेरा स्वय का पुरुषार्थ उत्तम है। कहाँ सामान्य मनुष्य, जो स्वल्प-सा भी कष्ट आने पर निरन्तर देव-स्मरण कर देव-सहायता के लिए अविरल तत्पर रहता है ओर कष्टो से निजात पाने (क) निलय-सदन (ग) श्रद्धाभिनत-आस्था में युक्त (E) अप्रतिम-अद्वितीय (छ) प्रव्रज्या-दीक्षा (अ) अविरल- लगातार (स) संपृक्त-लगा हुआ (व) अत्यल्प काल-बहुत थोड़ा समय (च) वैभाविक-ममार में भटकाने वाले (ज) स्वल्प- थोड़ा (ज) निजात-मुक्ति

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