________________
४] अपरिग्रह दर्शन
स्वीकार करता है, शौच के लिए कमण्डल रखता है, जीव-रक्षा के लिए मोरपिच्छी रखता है, पढ़ने एवं स्वाध्याय के लिए ग्रन्थ ग्रहण करता है, आहार -पानी ग्रहण करता है, शिष्य - शिष्याओं को स्वीकार करता है । इसके अतिरिक्त शरीर तो उसने धारण कर ही रखा है और वह प्रति समय कर्मों को ग्रहण भी करता है । अतः यदि वस्तु ग्रहण करना परिग्रह का अर्थ माना जाए, तो दुनिया में कोई भी व्यक्ति अपरिग्रह व्रत की साधना नहीं कर सकेगा ।
मनुष्य जब तक संसार में रहता है, तब तक वह आवश्यकताओं से घिरा रहता है । आध्यात्मिक साधना में संलग्न व्यक्ति को भी अपने शरीर को स्वस्थ एवं गतिशील रखने तथा आत्मा का विकास करने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता रहती ही है। ऐसा कभी भी सम्भव नहीं हो सकता कि शरीर के रहते हुए उसे किसी भी वस्तु की आवश्यकता न हो । यह बात अलग है कि व्यक्ति आवश्यकता को कामना का, इच्छा का रूप दे दे । आवश्यकता की पूर्ति तो हो सकती है, परन्तु कामना, इच्छा एवं आकांक्षा की पूर्ति होना कठिन है । इच्छाओं का जाल इतना उलझा हुआ है कि एक उलझन से सुलझते ही दूसरी उलझन सामने आ जाती है । उसका कभी भी अन्त नहीं होता । अतः हमें यह समझ लेना चाहिए कि आवश्यकता और चीज है और इच्छा, आसवित एवं आकांक्षा कुछ और चीज | आज लोगों में परिग्रह को लेकर जो संघर्ष या विवाद चल रहा है, वह इच्छा और आवश्यकता के बीच के अन्तर को नहीं समझने के कारण ही उत्पन्न हुआ है ।
यह नितान्त सत्य है कि जैन-धर्मं आदर्शवादी है, निवृत्ति प्रधान है । वह साधक को निवृत्ति की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है । परन्तु वह कोरा आदर्शवादी नहीं है, यथार्थवादी भी है। कोरा आदर्श केवल कल्पना के आकाश में उड़ानें भरता रहता है। केवल कल्पना के आकाश में विचरने
काम नहीं चलता । कल्पना के आकाश में राकेट से भी तीव्र गति से उड़ने वाले की अपेक्षा, धरती पर मन्थर गति से चलने वाला अच्छा है । कम से कम वह रास्ता तो तय करता है ।
जैन-धर्म का आदर्श केवल कल्पना का आदर्शवाद नहीं है। वह आदर्श के साथ यथार्थं का भी समन्वय करता है । वह निवृत्ति के साथ यथार्थ को भी स्वीकार करता है । वह साधक के लिए आवश्यकताओं को पूरा करना परिग्रह नहीं मानता। वह आवश्यकता से नहीं, इच्छा से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org