Book Title: Anusandhan 2003 04 SrNo 23
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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April-2003
विणओ जिणओ बि(वि?)णओ, गुणओ विणओ य सव्वसुहजणओ । विणओ जणओ धणओ, विणओ जीवाण मूलणओ ॥४६॥ सिरिवीरवयणपालो, जह जाओ सयलजीवगोवालो । विणएण पुष्फसालो तह जीवो होइ गुणसालो ॥४७॥ (द्वारं ८(९) ॥ विरायए सव्वपए विवेगो, चित्ते ठिओ जस्स स एगछेगो । जहिं णरे सो ण य होइ एगो, गणिज्जए सो विबुहेहि भेगो ॥४८॥ कलाकोडिनाणं गुहागब्भझाणं, सुपत्ताइदाणं सुतित्थाइजाणं ।। सुधम्माण लोगाण कम्माण ठाणं, विवेगं विणा सव्वमेवापहाणं ॥४९॥ सभाठाण-वक्खाण-विन्नाणगाणं, समट्ठाणऽणुट्ठाणयाणं विहाणं । जणाणं निवाणं च सेवाणुजाणं, विवेगं विणा सव्वमेवापहाणं ॥५०॥ धम्मकम्माइकज्जेसु विवेगी जो विसेसओ । सो जीवो जयरायव्व लहे सग्गसुहाणि य ॥५१॥ (द्वारं ९(१०) ॥ जस्सायरो सव्वसुहेत्थि निच्चं अहो अहो ! निज्जरणाइ किच्चं । सो पुप्फचूलेव तिलोयभिच्चं क(कु)ज्जा हु वेयावडियं ससच्चं ॥५२॥ धम्मोवग्गहदाणं सुपत्तदाणं पवड्डसमनाणं । संचियतवोवहाणं सुरनरसुहसिद्धिसुनियाणं ॥५३॥ जो सालिभद्द-धणसत्थवहोवमाणो, जो चंदणा-सबररायकयाणुजाणो । एगंतनिज्जरपयं व पसेवमाणो, आया सुही जिणमुणिंदसुपत्तदाणो ॥५४॥
(द्वारं १०(११)) ॥ आया सुही पवयणस्स पभावणाओ, णायं जहा वयरसामिपभावणाओ । आया न बुज्झइ विणा परपेरणाओ, गंधव्वदत्तकुमरो य मए स नाओ ॥५५॥
(द्वारं ११(१२)) ॥ अटुंगजोगनिवईणमभंगदुग्गं, वेरग्गमेव भय जीव मणे समग्गं । उग्गोवसग्गगयविग्गहतिक्खखग्गं, जं नाभिवंसनिवकुत्थभचित्तलग्गं ॥५६॥
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