Book Title: Anusandhan 2003 04 SrNo 23
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Catalog link: https://jainqq.org/explore/520523/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ४२९ ) अनुसंधान श्री हेमचन्द्राचार्य प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि २३ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद 2003 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९ ) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका २३ संपादक विजयशीलचन्द्रसूरि श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद एप्रिल - २००३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान २३ आद्य संपादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि संपर्क: C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ अमदावाद-३८०००७ प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामंदिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ मूल्य : Rs. 50-00 मुद्रक : क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोन : ०७९-७४९४३९३) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन एक अगत्यनुं करवायोग्य काम दायकाओ अगाउ आपणे त्यां संशोधनने केन्द्रमा राखीने थोडांक सरस सामयिको प्रकाशित थतां, जेमां 'जैन साहियसंशोधक', 'पुरातत्त्व', 'जैन सत्यप्रकाश' इत्यादिनो समावेश थाय छे. आ नामो गणावती वेळाए मारा मनमां एक स्पष्ट समानता छ : गुजरातमांथी नीकळतां शोध-सामयिको. बाकी तो असंख्य जर्नल्स अने सामयिकोनां नामो लखवानां थाय. उपरोक्त सामयिको केटलोक वखत चाल्यां पछी, स्वाभाविक पणे ज, बंध पडेलां. परंतु, तेना समग्र अंकोनो संचय, आजे जवल्लेज कोई विद्यासंस्थामां सचवाएलो जोवा मळे. ज्यां छे, त्यां पण, घसारो, जर्जरता इत्यादि कारणे ते संचय, कालान्तरे, त्रुटित-खण्डित थवानी संभावना पूरती गणाय ज. आ सामयिक-सामग्री, काळदेवतार्नु भक्ष्य बनी बेसे ते पूर्वे, तेनो पुनरुद्धार थाय ते खूब जरूरी गणाय. आ माटे ते सामयिकोमा प्रकाशित विविध सामग्रीओना सरस चयनग्रन्थ-संपुटो प्रकाशित करवा जोईए. अलबत्त, आ काम खूब समय अने धनव्यय मागी लेतुं कार्य गणाय तेम छे, परन्तु ते बन्ने वानां संपडावी शके तेटली क्षमता तो आपणे त्यां छे ज. सवाल मात्र रुचिनो तथा दृष्टिनो छे. आशा सेवीए के आवी रुचि कोईकने जागे अने काळग्रस्त बनती जती अतिमूल्यवान, दुर्लभ सामग्रीने पुनर्जीवन बक्षे.. - शी. धवानी मान भक्ष्य बनामा प्रक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम १. उपाध्याय श्रीसकलचन्द्रगणिविरचितः सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 1 श्रुतास्वादः २. चार जिनस्तुतिओ सं. मुनि धुरन्धरविजय 18 ३. नाना-छन्दोमय-श्रीनेमिनाथस्तवन सं. मुनि विमलकीर्तिविजय 24 ४. श्रीरविसागरगणिकृता कुमारसम्भवादि महाकाव्यचतुष्करीत्या स्तोत्रचतुष्टयी सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 30 ५. च्यार ध्यान विचार लेश सं. डो. मालती के. शाह 47 ६. बलदेवमुनिनी सज्झाय सं. डो. रसीला कडिया 57 ७. कोठारीपोळना चिन्तामणि पार्श्वनाथनुं स्तवन सं. डो. रसीला कडिया 60 ८. रतनगुरुरास सं. डो. रसीला कडिया ९. स्त्रीतीर्थंकर मल्लिनाथनी प्रतिमाओ विजयशीलचन्द्रसूरि १०. अनुसन्धान-२१ विहंगावलोकन मुनि भुवनचन्द्र ११. अनुसन्धान-२२नुं विहंगावलोकन मुनि भुवनचन्द्र १२. स्वाध्यायः श्रीराजशेखरसूरिकृत प्रबन्धकोश गत केटलीक नोंधपात्र वातो विजयशीलचन्द्रसूरि १३. माहिती : नवां प्रकाशनो Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय श्रीसकलचन्द्रगणिविरचितः श्रुतास्वादः सं. विजयशीलचन्द्रसूरि पंदरमा-सोळमा शतकना एक समर्थ ज्ञानी, ग्रन्थकार, चारित्रगुणसंपन्न साधुपुरुष एटले श्रीसकलचन्द्र वाचक, प्रतिष्ठाकल्प, संगीतशास्त्रानुसारी सत्तरभेदी पूजा, तथा अन्य विविध प्रगट-अप्रगट रचनाओना प्रणेता तरीके जाणीता आ जैन मुनिवरनी एक सरस प्राकृतबद्ध पद्यरचना अत्रे आपी छे. तेओना विषे पावली इत्यादिमां वर्णन मळे छे ते प्रमाणे तेओ अत्यन्त शान्तमूर्ति, समतारस परायण, आत्मानुभवरसिक, अन्तर्मुख साधुजन हता. गच्छनायको पण तेमनुं बहुमान करता अने तेमना मत-अभिप्रायने महत्त्व आपता. तेमनी एक आत्मबोधकारक रचना छे 'श्रुतास्वाद', जेने तेओए ज प्रथम गाथामां 'सुयस्साय' तरीके ओळखावी छे. १६४ प्राकृत पद्यो धरावती आ रचनामा ४० द्वार छे. २-११ गाथाओमां आ द्वारोनां नामो आपीने पछी क्रमशः ते दरेक द्वार विशे कर्ताए ज विशदीकरण आप्युं छे. कर्तानो आ रचवा पाछळनो आशय एक ज छे : नियअप्पसिक्खं - पोताना आत्माने शिक्षा आपवानो. तेमणे आ ४० द्वारोने, ११मी गाथामां, शिवगृहनां सोपानो तरीके वर्णवीने ते पर कमे कमे आरोहण करनार आत्मा मोक्षपद प्राप्त करे छे तेम जणाव्युं छे. 'श्रुतास्वाद'मां कर्ताए वसन्ततिलका, भुजङ्गप्रयात, उपजाति सहित विविध छन्दोनो प्रयोग खूब सहजताथी को छे. भाषा अत्यन्त सरल-प्रांजल, अने निरूपण एटलुं तो हृदयस्पर्शी-चोटदार छे के एक बाजु तो कोई महान शास्त्रग्रन्थना वाचननो अनुभव थाय तो बीजी बाजु एक रसाळ अने सशक्त कलम सतत अनुभवाया करे. आवी समर्थ कलम जवल्ले ज जोवा मळे. समग्र रचनामां मात्र एक गाथा (क्र. १०९) पूर्वतन शास्त्रग्रन्थमाथी अवतारेला उद्धरणरूप छे, तो पद्य क्र. ४३, ९२-९४, १०१, आ पांच पद्यो अपभ्रंशमां जणाय छे. क्र. ४८ मांनो 'भेगो' शब्दनो प्रयोग, आजे आपणी बोलीमांना 'भेगा' ए शब्दनुं स्मरण करावे छे. अहीं पण ए ते ज अर्थमां प्रयोजायो छे, ते जोतां आ शब्द 'देश्य प्राकृत' मूळनो होवो जोईए. पद्योमां Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रा अनुसंधान-२३ प्रास मेळववानी पद्धतिमां कर्ताना चित्तनी प्रसन्न स्थिति प्रतिबिम्बित थती लागे छे. कर्ताए १६३मा पद्यमां पोतानो, अने १६२मा पद्यमां पोताना गुरुदेव 'विजयदाण' (विजयदानसूरि)नो उल्लेख कर्यो छे. १६४मा पद्यमां आवतुं 'सहजकुसलसिक्खं' पद द्विअर्थी होवानुं अनुमान थाय छे, अने ते जो यथार्थ होय तो, 'सहजकुशल' नामना मुनिनुं नाम (ते नामना मुनिने शिक्षारूप) तेमां गुंथायुं होवानुं लागे छे. रचना आत्मबोध-अर्थे थई होई 'आया सुही' अने 'आया दुही' एवा शब्दगुच्छ वारंवार आवता जोवा मळे छे. श्रीसकलचन्द्रजीनी अन्य आवी रचनाओ हजी हस्तप्रतिरूपे उपलब्ध छे ज. तेमनी 'श्रुतशिक्षा' के 'धर्मशिक्षा' नाम धरावती एक महाकाय रचनानी पोथी पर, वर्षो पहेलां कोई मुनि काम करी रह्या होवानुं जाण्युं हतुं. अद्यावधि तेवं कोई सम्पादन प्रगट थयुं होवानुं जाणवामां नथी आव्युं. 'श्रुतास्वाद'नी एक हस्तप्रति, उज्जैनना श्रीचन्द्रसागरसूरिज्ञानभण्डारमां छे. तेनी जेरोक्स नकल मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी द्वारा मने मळी छे. ६ पानांनी आ प्रतिमां 'श्रुतास्वाद' अने ते पछी श्रीविनयविजयगणिकृत 'सप्तनयगर्भित श्रीमन्महावीरपारगतस्तोत्र' (नयर्णिका), एम बे कृतिओ शुद्ध प्राय अने सुन्दर अक्षरे उल्लेखी छे. प्रान्त भागे "श्रीराजनगरमध्ये सं. १७६३ वर्षे लिखितं" एम नोंध छे. हांसियामां दरेक पाने "श्रुतास्वादः" एम लखेलु छे, तेना आधारे अत्रे पण ते ज नामे संपादन आपवामां आवेल छे. १ थी ४० द्वारोना अंको में उमेर्या छे. अने तेना आधारे दरेक द्वारना अन्ते, ज्यां द्वारक्रमांकनी गरबड जणाई छे, त्यां ते ( ) मां सुधारेल छे. ★★★ नमः श्रीगौतमगणभृते ॥ सिद्धत्थसुयं सिद्धं बुद्धं नमिऊण वीरमरहंतं । देमि नियअप्पसिक्खं विविहसुयस्सायसुहजणयं ॥१॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 अप्पसरूवपरिण्णा 'सुयधरगुरुसेवणा य सुयसवणं । सम्मत्तसुद्धिकरणं मिच्छत्तावत्तपरिहरणं ॥२॥ "पुव्वकयपुण्णसरणं “गुणधरणं सव्वजंतुसुहकरणं । 'परमप्पझाणजणणं जगजंतुविचित्तयासरणं ॥३॥ "दुल्लहपयाणुसरणं “सुयपढणं सत्तुमित्तसमगणणं । विणर्यविवेगायरणं वेोवच्चस्स करणं च ॥४॥ धम्मोवग्गहदाणं १२पभावणं धम्मपेरणं चेव । संवेयणनिव्वेयण - बंभव्वयधरणमणुदियहं ॥५॥ १६मग्गणठाणविचिंतण तित्थयरत्तस्स ठाणचिंतणयं । १ कोहकुडंबविडंबण १८परिग्गहारंभवज्जणयं ॥६॥ पढमं १९अणिच्चचिंतण - २०मसरणयं २१एगया य २२संसरणं । २३अन्नत्तं २४असुइत्तं २५आसवदाराण संवरणं ॥७॥ २ निज्जरण “जगसरूवं २९दुलहा बोही य धम्म सामग्गी । सुहभावणा उ अन्ना न भाविया जेहि तेऽधन्ना ॥८॥ ३१जिणनमणं ३२जिणभत्ती जिणगुणथुणणं च तित्थवंदणयं । ३२जिणहरचेइयठवणं सुसत्तखित्तेसु धणववणं ॥९॥ ३५चरणं ३५तवोवहाणं ३६परोवगरणं च ३७विसयविसवमणं । २८अरिहासायणवज्जण ३९झाणसरूवं च ४°सुहभावो ॥१०॥ सिवगिहमिह सोवाणं भव्वमुणीणं च जंतुगोवाणं । जो आरुहइ कमेणं लहइ पयं सो तिसो(विमो)हाणं ॥११॥ इति द्वाराणि ॥ अप्पाणमप्पसुकयं मुणिउं विसन्नो, जो इत्थमप्पपडिबोहणसंनिसन्नो । आया स होइ सुहगोप्पसरूवसन्नो, नायं च धम्मरुइतारयचंदसन्नो ॥१२॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आया न विप्पो न यमेत्थ सुद्दो, मायंगकीडो न सुरो न वेसो । एगो सया दव्वगुणेण सुद्धो, कओ कुमित्तेण विचित्तवेो ॥ १३ ॥ तुमं सया चिंतसु सुद्धतत्तं सव्वेसु भूएस तहा समत्तं । नाणोवओगेसु धरेसु चित्तं, संजोगरूवेसु अ निम्ममत्तं ||१४|| मुत्तुं समट्टं नियपूयणट्टं, दंसेसि मायाकिरियाण कट्टं । लग्गो तुमं जं जणरंजणत्थं, नायं तओ ते मुणि ! पंडियत्तं ॥१५॥ कोहं को सयणट्टो, जेणाहं नो समट्ठमुपविट्ठो । वच्चसि किं गुणभट्ठो पुणो पुणो जीव ! भवघट्टो ||१६|| अनुसंधान - २३ किं तुज्झ मई नट्ठा जेण तुमं कुणसि अबुहजणचिट्ठा । किंच तए न हु दिट्ठा जे जे जगा पत्तहरिकंठा (?) ॥१७॥ दूसमसमया दुट्ठा मम सुहजोगा य तत्थ न पविट्ठा । जर तुह सुगई इट्ठा नियचिंता तत्थ सुबलिट्ठा ॥ १८ ॥ अप्पसरूवपविट्ठा जे सिट्टा ते मुणीण सुगरिट्ठा । तेसि गई मइलट्ठा जेणेया सव्वदुहरुट्ठा ॥ १९॥ पुणे ते तु पुट्ठा ताणुवरिं सिववहू अ संतुट्ठा । नट्ठा ताण किलिट्ठा जे नियसुहकम्ममइजुट्ठा ॥२०॥ ( द्वारं १) ॥ न भाविओ जेहिं सुसाहुसंगो कहं भवे ताण कुणाणभंगो । अण्णाणभंगो मुणियातुरंगो तओ भवे सिद्धवहूहिं संगो ॥ २१ ॥ कज्जलं चक्खुसंगेण, मालासंगेण सुत्तयं । तहा सज्जणसंगेण, सव्ववत्थूण गोरवं ॥२२॥ गीयत्थसाहुजणपायमुवासमाणो, सिद्धंततत्तवरसत्थसुहंबुपाणो । आया सुही भवई ताणि य सद्दहाणो, नायं पएसि - णिवई सुरलोयठाणो ||२३|| (द्वारं २ ) ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 5 सम्मत्तसुद्धिसुरवल्लिसुलद्धिधन्नो, आया सुही जह य विक्कम-वज्जकण्णो । मिच्छत्तमोहपिसुघायपवड्डमाणो, आया दुही जह तिविक्कमगाभिहाणो ॥२४॥ दाणं तवोवहाणं धम्माणुट्ठाण नाण झाणं च । पोसह-पडिमाठाणं विणु सम्मत्तं तमण्णाणं ॥२५॥ मूलं सव्वसुहाणं सव्वगुणाणं निहाण सिवजाणं । पावियसग्गविमाणं, सम्मत्तं धरसु अनियाणं ॥२६॥ (द्वारं ३) || कारणरहियं कज्जं न होइ इय जाणिऊण रे जीव । धम्मो सव्वसुहाणं बीयमबीए कहं रमसि ? ॥२७|| जो पुव्वजम्मकयरम्मसुधम्मकम्मो, आया भवे धणसमिद्धकुमारसम्मो । संगामसूरनिवबोहणवुत्तधम्मो, सो होइ सुत्तसुरलोयसुहाण मम्मो ॥२८॥ (द्वारं ४)॥ गुणओ समसुहभुत्ती सव्वपयत्थाण होइ पडिवत्ती । गुण[ओ] लोए कित्ती, कायव्वा तेण गुणसित्ती ॥२९॥ जह उवसमरस खंती गुणसेणणिवस्स सव्वगुणमित्ती । मणवयणकायगुत्ती, कायव्वा तेण गुणवित्ती ॥३०॥ आया सुही अयलजंतुसुहप्पयाणो, सीहो जहा अमरगुत्तचरित्तनाणो । आया सुही भवइ वा परमप्पझाणो, दिटुंतओ अमरगुत्तमुर्णिदझाणो ॥३१॥ (द्वारं ५) ॥ जोगी जए सकहमित्थ न जो सजोगं, संजोइऊण जगजंतुविचित्तरूवं । चित्ते वियारयइ सुत्तवियारपुण्णो, सोऊण जो सिहिकुमारसमं न भिन्नो ॥३२॥ दव्वेण खित्तेण य कालएणं, भावेण एगिदियपंचयाणं । तहा सरूवं विगलिंदियाणं कारुण्णओ पस्स विडंबणं च ॥३३॥ तिरिक्खपंचिंदियमाणुसाणं, तहा सरूवं च विचित्तयाओ । देवाण वा पस्स विचित्तरूवं, सज्झायकारुण्णगओ सुजीव ! ॥३४॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२३ केवि कामत्थमुव्विग्गा केवि धम्मत्थमुज्जया । आगंतूण गुरुं केवि वंदंति य थुणंति य ॥३५॥ सणंकुमारिंदसमा य केवि, सुरा य संघस्स सुहाइकम्मा । अभव्वया केवि य संगमुव्व, बहुं जिणिंदस्स व दिति पीडं ॥३६॥ पडिणीओ नायपुत्तस्स गोसालोसुत्तभासओ । तस्सावि भत्तया देवा कुंडकोलियवारगा ॥३७|| सोहम्म-चमरिंदा वि केवि लोगाण दुक्खया । अहो ! देवाण किं नूण-महो ! देवविचित्तया ॥३८॥ आसाढायरियगुरू पुचि जीवाइधम्मफलसंको । पडिबोहिओ सुरेणं पच्छा नियसीसरूवेणं ॥३९॥ सुणिय सत्तविचित्तसरूवयं, विजयसिंहमुर्णिदसुभासिअं । सिहिकुमारमुणिव्व सुमाणसं वहइ जो स मुणी मुणिपुंगवो ॥४०॥ (द्वारं ६) ॥ जं जं जीवाण दुल्लं , नायपुत्तेण भासियं । भाविऊण मणे तं तं कुणसुप्पं पुण्णवासियं ॥४१॥ जहा मत्तो न याणाइ बहुसिटुं अणुसासियं । तहा मूढो न याणाइ अप्पाणं हिरिपासियं ॥४२।। मणुयत्त-सुखित्त-पवित्तगुत्त, गुरुतत्तजिणुत्त सुसुत्त गत्त । अपमत्त सुघत्त सुचित्त वित्त, वर सत्त जोग दुलहो सुसत्त ॥४३|| जह अमरगुत्तसाहू गुरुप्पओसेण दुल्लहं बोहिं ।। पत्तो करेइ तं तह धरणकुमारस्स तं मुणह ॥४४।। (द्वारं ७) ॥ सज्झायझाणसुयनाणमहिज्झमाणो, आया सुही अ जवरायरिसिव्व माणो । आया सुही य समयारससुद्धपाणो, मेयज्जओ धणमुणी य जहा समाणो ॥४५॥ (द्वारं ७(८) ॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 विणओ जिणओ बि(वि?)णओ, गुणओ विणओ य सव्वसुहजणओ । विणओ जणओ धणओ, विणओ जीवाण मूलणओ ॥४६॥ सिरिवीरवयणपालो, जह जाओ सयलजीवगोवालो । विणएण पुष्फसालो तह जीवो होइ गुणसालो ॥४७॥ (द्वारं ८(९) ॥ विरायए सव्वपए विवेगो, चित्ते ठिओ जस्स स एगछेगो । जहिं णरे सो ण य होइ एगो, गणिज्जए सो विबुहेहि भेगो ॥४८॥ कलाकोडिनाणं गुहागब्भझाणं, सुपत्ताइदाणं सुतित्थाइजाणं ।। सुधम्माण लोगाण कम्माण ठाणं, विवेगं विणा सव्वमेवापहाणं ॥४९॥ सभाठाण-वक्खाण-विन्नाणगाणं, समट्ठाणऽणुट्ठाणयाणं विहाणं । जणाणं निवाणं च सेवाणुजाणं, विवेगं विणा सव्वमेवापहाणं ॥५०॥ धम्मकम्माइकज्जेसु विवेगी जो विसेसओ । सो जीवो जयरायव्व लहे सग्गसुहाणि य ॥५१॥ (द्वारं ९(१०) ॥ जस्सायरो सव्वसुहेत्थि निच्चं अहो अहो ! निज्जरणाइ किच्चं । सो पुप्फचूलेव तिलोयभिच्चं क(कु)ज्जा हु वेयावडियं ससच्चं ॥५२॥ धम्मोवग्गहदाणं सुपत्तदाणं पवड्डसमनाणं । संचियतवोवहाणं सुरनरसुहसिद्धिसुनियाणं ॥५३॥ जो सालिभद्द-धणसत्थवहोवमाणो, जो चंदणा-सबररायकयाणुजाणो । एगंतनिज्जरपयं व पसेवमाणो, आया सुही जिणमुणिंदसुपत्तदाणो ॥५४॥ (द्वारं १०(११)) ॥ आया सुही पवयणस्स पभावणाओ, णायं जहा वयरसामिपभावणाओ । आया न बुज्झइ विणा परपेरणाओ, गंधव्वदत्तकुमरो य मए स नाओ ॥५५॥ (द्वारं ११(१२)) ॥ अटुंगजोगनिवईणमभंगदुग्गं, वेरग्गमेव भय जीव मणे समग्गं । उग्गोवसग्गगयविग्गहतिक्खखग्गं, जं नाभिवंसनिवकुत्थभचित्तलग्गं ॥५६॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२३ वेरग्गं मुणिवग्गं कुणइ महग्धं च धम्मरुइजुग्गं । वेरग्गं जिणमग्गं वेरग्गं चेवमिह सग्गं ॥५७॥ वेरग्गे दोहग्गं सोहग्गं वा करेइ किमुविग्गं । अहवा वि अणारुग्गे सणंकुमारस्स किं भग्गं ? ||५८।। वेरग्गेणुस्सग्गं गयसुकुमालो चिलाइपुत्तो य । तह य सुकोसलसुमुणी कुणइ सुसाणे वि उस्सग्गं ॥५९|| सुरवइसुहसंसग्गं वेरग्गा सालिभद्दसोहग्गं । वेरग्गमदोहग्गं तम्हा भय जीव ! वेरग्गं ॥६॥ संवेयभावजणणीहिं कहाहिं भिन्नो, जो होइ वा मरणजम्मदुहेहिं खिन्नो । मोहो सुजातपमुहुव्व य तेण छिन्नो, किं सोग्गसेणकुमरव्व भवं न तिन्नो ? ॥६१।। (द्वारं १२(१३) ॥ निव्वेयसायरतरंगसएहिं पुनो माणावमाणरिउमित्तसमाणसन्नो । जो वा भवे सुदमयंतमुणिव्व धन्नो, अप्पा हु किं सिवपए न य तेण दिन्नो ॥६२॥ (द्वारं १३(१४) ॥ अहो ! णायपुत्तेणिमं बंभचेरं सया वण्णियं वा वयाणं च थेरं । जओ नोवसग्गा न रोगा न वेरं, बहूणं सुरेहि कयं पाडिहेरं ॥६३।। बंभव्वयकयसोहो पावइ कित्तिं जसं च जियलोए । देवाण वि नमणिज्जो सुहगइभागी च परलोए ॥६४|| गिहत्था वि सुसीला जे हुंति ते सव्वसिद्धिगा । . सणंकुमारभूवुव्व पालगोवालया जहा ॥६५।। धन्नो सुसीलगुणदंसणदीहदंसी, सिट्ठी सुदंसण सुदंसरयावयंसी । बंभव्वयामयसरोवररायहंसी, जा नम्मया व रमणी कमलावयंसी ॥६६॥ (द्वारं १४(१५)) ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 पण थावर सुहुमियरा विगलिंदिय नारया य जलथलया । उरपरि भुयपरिसप्पा खयरा य समुच्छिमा एए ॥६७॥ गब्भय जल थल खयरा मणुआ संमुच्छिमा य गब्भभवा । देवा इय पणवीसं चिंतसु दारेसु देहाइ ॥६८॥ सरीरोगाहणसंघयण-संठाण कसाय तहय सन्नाओ । लेसिदिय समुघाया सन्नी वेए य पज्जत्ती ॥६९॥ दिट्ठी दंसणनाणे जोगुवओगे तहा किमाहारे । उववाय ठिई समुघाय-चयणं गइ आगई चेव ॥७०॥ आया सुही य इय मग्गणठाणनाणो, आया सुही य जिणदव्वमभुंजमाणो । आया सुही भवइ फासियवीसठाणो, अक्खाणयं जह य सागरगाभिहाणो ॥७१॥ (द्वारं १५(१६))॥ आया दुही भवइ कोहणमाणमाओ, आया दुही य बहुलोहसमुद्दपाओ । सच्छंदया गुरुकुलाइमसेवमाणो दिटुंतओ जह कसायकुडंबठाणो ॥७२।। परिग्गहो किं न य धम्ममग्गहो, निग्गंथधम्मस्स परिग्गह दुप्पहो । परिग्गहो अत्थि जणाण निग्गहो, अणाइओ विग्गहलग्गकुग्गहो ॥७३॥ पाणाण भूयाइ य पाणसंगहो, परिग्गहो कोणिय-चेड-विग्गहो । अहो ! दुहोहो य सया परिग्गहो, असंगहो तेण समग्गविग्गहो ॥७४|| मुत्तारंभपरिग्गहसंगो जीवो विसुद्धवेरग्गं । अंगोवंगसुरंगो लहइ मुणी सव्वसुहजुग्गं ॥५॥ निस्संगयासुरनईसुतरंगरंगो, जोगी विहंगपवरुव्व सुही सुलिंगो । इंदत्थुओ व्व नमिरायरिसिव्वंऽसंगो, आमंतिओ वि हरिणा विविहं अभंगो ॥७६।। (द्वारं १८) सुभाविया बारस भावणत्था, जेहिं सया ते उ नरा कयत्था । जोगा सगा तेहिं कया पसत्था, नट्ठा गया तेसि अ अप्पसत्था ॥७७॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२३ अणिच्चं नरत्तं अणिच्चं सुरत्तं, अणिच्चं पहुत्तं अणिच्वं सुहित्तं । . अणिच्चं धणं जुव्वणं वा कुडंबं, अणिच्चं च कामाण सेवाविडंबं ॥७८|| असासया किं न सुया हु भोगा ? किं नो खया कस्स धणाइजोगा ? | दिट्ठा न किं कस्स तणुम्मि रोगा? जं निब्भया चिट्ठह मुद्धलोगा ! ॥७९।। असासया कम्मजुया पयत्था, किं ते कया ताण कए अणत्था । दाऊण सोयं तुह ते पणट्ठा, तणुम्मि कम्माण भरा पविठ्ठा ॥८०॥ भुत्ता न किं कत्थवि कामभोगा धणाइजोगा न हु किं ससोगा । दिट्ठा न किं कस्स गिहे विओगा जं निब्भया चिट्ठह मुद्धलोया ॥८१॥ (द्वारं १६(१७))॥ रूवं बलं जुव्वणरिद्धिरज्जं, आरुग्ग सोहग्ग पहुत्तणं च । जं जं मणुन्नं तमणिच्चयं च, णच्चा बली सुद्धवयं च कुज्जा ॥८२॥ (द्वारं १७(१९) ॥ हयगयरहलक्खेहि वि रयणनिहाणेहिं भवउ सह धरणं । बल-केसव-चक्कीणं तहवि न जमहरणओ सरणं ॥८३।। जो तिहुयणसंहरणं कुणइ हरी तस्सऽहो पुणो मरणं । इय नाऊण असरणं वसुदत्तो गिण्हए चरणं ॥८४॥ लोहाइधम्मधरणं भवउ तहा विविहदेवतासरणं । बहुविहमोसहकरणं तहवि हु मरणे न को सरणं ॥८५।। गिण्हइ जमो नियरणं कुणइ कुडंबं गिहाउ नीहरणं । सुरअसुरहरिनराणं जया तया नत्थि को सरणं ॥८६।। (दारं १८(२०)।। आया सया वच्चइ जीव एगो जाओ मओ जत्थवि तत्थ एगो । सयंकडं भुंजइ एस एगो चिच्चा य सव्वं दुहमेइ एगो ॥८७॥ जीव ! तुम जइ एगो कुणसि ममत्तं तु तुज्झ अविवेगो । जो होइ इह च्छेगो एगत्ते तस्स सुविवेगो ॥८८॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 नो रज्जं नो राया नो माता नो पिया य तुज्झ धणं । नो मित्ता नो पुत्ता न कलत्तं नेव भवणं च ॥८९॥ नकुलं न बलं न दलं न य लोगो परियणो य पुढवितलं । जह महुराया एगो सव्वं मुत्तुं गओ नरयं ॥ ९०|| ( दारं १९ (२१))৷ चउगइचवलावत्ते दुहवडवानलपवंचसंतत्ते । निच्चवराया जीवा भमंति भवसायरे भीमे ॥ ९१ ॥ 11 खिणु दिज्जइ भवतंडवविओगु, जहिं दीसइ बहु नच्चणपओगु । इगगेहे विलवइ रुयइ लोग, किह दीसइ वरवीवाहजोगु ॥ ९२ ॥ अणचिंतिय कत्थवि पडइ सोगु इग हसिय हसिय भुंजइ सुभोगु । कस्सइ तणु गिues विविहरोगु, इग विलवइ मम हा पिउविओगु ||१३|| अणुहवइ दुहं तिरिनिरयलोगु, मणुओ एग पहु इग आभिओ । देवाण वि हरिणो तह निओगु, इग छुल्लइ नत्थि हु अवरलोगु ॥ ९४ ॥ ( दारं २० (२२)) | सचेयणाचेयणया पसंत्था समागया जे तणुभोगभावं । सव्वेवि ते अप्पसरूवओ वा, विलक्खणा तेहिं तुमं पि अन्नो ॥ ९५ ॥ अन्नं सभज्जरज्जं राया माया पिया व अन्नो य । कुलबल भूतलमन्त्रं धम्मं मुत्तूण सममन्नं ॥ ९७॥ जीवो पयत्थनाणी सुद्धो निच्चो जडाइधणवत्थू । सव्वं हिच्चा वच्चइ इय अन्नतं धणो मुणइ ||१८|| ( दारं २१ (२२))। निसग्गेण [ गायं ? ]सया पूइगंधं सिराचम्महडुंतजालेण बद्धं । अगासुइच्चायदुव्वायपुण्णं सरीरं किमीकीडकोडिप्पणिं ॥ ९९ ॥ जेहिं पमुत्तूण य इंदियत्थे दिन्नं सरीरं सिवसाहत्थे । इमस्त देहस्स बुहेहिं तेहिं कयंबविप्पुव्व फलं गहीयं ॥१००॥ ( दारं २२ (२४)) || Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२३ मिच्छत्त-पमाय-कसाय-जोगु अविरइपण-आसवगहिय लोगु । . सबिलं जह सचइय जाणवत्तु असुहासवओ तह कम्मपत्तु ॥१०१॥ पण विसयवग्घगत्थं रागद्दोसग्गिणा उ संतत्तं । चित्तं कसायखग्गं कम्मं असुहासवं जणइ ॥१०२॥ समसंवेयनिव्वेय - तत्तचिंतावलंबियं । सव्वजीवसुहारूढं मणं देइ सुहासवं ॥१०३।। भूओवघायजणयं वयणं सच्चं पि सत्तदुहजणयं । उम्मग्गपावसुयगं पावासवहेउयं भणियं ॥१०४॥ सयारंभाइजोगेहिं पाववावारओ वि य । अंगाणि पावकम्माणि जोययंति य देहिणं ॥१०५॥ धम्माणुट्ठाणजुत्तेणं गुत्तकाएण संजओ । संचिणेइ सुहं कम्मं खवेइ असुहं तहा ॥१०६॥(दारं २३(२५)॥ आसवाण निरोहो जो संवरो सो पकित्तिओ । दव्वभावविभेएणं संवरो दुविहो भवे ॥१०७|| कम्माण पुग्गलाण य छेयणं सुतवस्सिणं । सो सत्तवन्नभेएणं जिणेहिं परिकित्तिओ ॥१०८।। जहा भणियं च "समिई गुत्ति परीसह जइधम्मो भावणा चरित्ताणि । पण ति दुवीस दस बार पंचभेएण सगवन्ना ॥" (दारं २४(२६)। जीए जीवाण कम्माणं बीयं डज्झइ सव्वहा । निज्जरा सा सकामा य अकामा य भवे दुहा ॥११०॥ सकामा सा हु संघस्स अकामा सेसपाणिणं । बज्झब्भंतरभेएणं तवसा बारसा य सा ॥१११॥(दारं २५(२७)) ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 उड्डुं चउदस रज्जू दीहो पुण वित्थरेणिमो लोगो । रज्जू कत्थ य दुन्निय कत्थ य जा सत्तरज्जूओ ॥ ११२ ॥ नरयासुरवासेहि असंखदीवोदहीहि संजुत्तो । छदव्वसमाहारो भाविज्जइ एस जियलोओ ॥११३॥ अह अन्नहा सरूवं इमस्स लोयस्स पिच्छइ (ए) विबुहो । भगिणी भवेइ भज्जा जणणी वि य होइ तह भज्जा ||११४ || मरिऊण पिया पुत्तो पउत्तपुत्तो य होइ तह जणओ । पुत्ती तह य दुहित्ती होइ य भज्जा सवक्की य ॥११५॥ चुलणी पुत्तं मार खायइ वग्घी सुकोसलं पुत्तं । अणवत्था संसारे अहो अहो ! कम्मजीवाणं ॥ ११६॥ ( दारं २६ (२८)) ॥ दुलहो माणुसजम्मो दसदितेहिं भाविओ लद्धो । तत्थ वि य धम्मजुग्गं दुलहं खित्तं च जिणधम्मो ॥११७॥ दुलहं सावयगुत्तं दुलहं आरुग्गमाउयं बुद्धी । दुलहं सुधम्मसवणं गुरुसद्धा धम्मसामग्गी ॥ ११८ ॥ ( दारं २७ (२९) ॥ सम्मं सम्मद्दंसण-नाणचरितं च भावणाओ य । वेरग्गभावणा वि य परमा तित्थयरभत्ती य ॥ ११९ ॥ एसो जिणेहि भणिओ अनंतनाणीहिं भावणामइओ । धम्मो उ भीमभववण - सुजलियदावानलब्भूओ ॥१२०॥ ( दारं २८(३०)) || निच्चं मणे समगुणेहिं पवड्ढमाणो, जो भाविऊण य जिणाण गुणोवहाणो । आया सुही समजिणाण नमसमाणो दिवंतओ य रणसीहसुयप्पहाणो ॥ १२१ ॥ ( दारं २९ (३१)) | जिणभत्ती सिवगंती जिणभत्ती दुरियदुग्गवहदंती । तित्थयरत्तपवित्ती जेहिं कया ताण सुहपंती ॥१२२॥ 13 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 अनुसंधान-२३ निरत्थया ताण नरप्पसूती जिणाण जेहिं न कया सुभत्ती । धन्ना य सा दुव्वयरायपुत्ती जीए जिणच्चाण कया सुजुत्ती ॥१२३॥ हवइ जिणाणं भत्ती परित्तसंसारबीयसुधरित्ती । जह सूरियाभसुरवर-दसण्णभद्दस्स सुहपंती ॥१२४॥ तित्थंकराण वरणंतगुणाण झाणो, आया सुही थयथुई च पकुव्वमाणो । अट्ठावयाइवरतित्थपवड्डमाणो, सो गोयमुव्व सुहभावविसुज्झमाणो ॥१२५॥ (दारं ३०(३२))। ठविया समजिणमुत्ती सव्वजिणाणं समाणसुविभत्ती । वविया य सत्तखित्ती तेसिं भरहुव्व सुहदित्ती ॥१२६।। नरजम्मसमुप्पत्ती चउदसरयणाइरज्जसंपत्ती । सहला य ताण कित्ती भमइ जए अज्ज अणिवित्ती ॥१२७॥(दारं ३१(३३))॥ सर दुविहं वरचरणं देसे सव्वे य पावपरिहरणं । पंचमहव्वयधरणं विहिणा जुग्गस्स सुवितरणं ॥१२८॥ नवकप्पेण विहरणं गुरुकुलवसणं पमायपरिहरणं । हीणायारावरणं जिणोवएसेण संचरणं ॥१२९॥ जं सव्वनाणी पभणेइ किच्चं समक्खियं तं न करेइ सच्चं । जं लोगजत्तासु रओसि निच्चं पुण्णं तओ ते उदरं अणिच्चं ॥१३०॥ असब्भवत्तासु अ मा रमेसु, मोणोवओगेसु धरेसु चित्तं । अकज्जभासी य मुणी बडुल्लो, तिगुत्तिगुणो य स मेरुतुल्लो ॥१३१॥ भग्गमणोथिरकरणं तवोवहाणं सुयाणमणुवहणं । नवगुत्तिबंभधरणं पवयणजणणीण बहुसरणं ॥१३२।। तह चरणकरणसत्तरि-जयणाकरणं च करणसंवरणं । विसयकसायावरणं धणववणं सव्वसहणं च ॥१३३॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 15 अप्पोवहिमुवगरणं निच्छय-ववहारसुत्तमाहरणं । उस्सग्गं अववायं जाणंतो जीव ! भय चरणं ॥१३४।। आया सुही चरणसित्तरिमादयाणो, सो वा दुतीसपयजोग्गमणुग्गहाणो । आया दुही भवइ निग्गुणसंनिहाणो, आया दुही य बहुकूडसुयाभिहाणो ॥१३५।। आया सुही हवइ साहुपहाणुजाणो आराहणाउ गुणचंदमुणीवमाणो । वेरग्गओ य नमिरायरिसिव्व धम्मं छड्डइ जो न हरिचोइय इत्थ सम्मं ॥१३६।। ___ (दारं ३२(३४)॥ रिसहो महातवस्सी महातवस्सी य वीरजिणनाहो । चक्की सणंकुमारो बाहुबली तह य हरिकेसी ॥१३७।। गोयम महातवस्सी महातवस्सी य ढंढणकुमारो । अज्जुणमालागारो विसल्लिया सुंदरी चेव ॥१३८॥ जंघा-विज्जाचारण-विण्हुकुमारो महातवस्सी य । सिवओ धणोणगारो महाबलो तह य बलदेवो ॥१३९।। इच्चाइतवस्सीणं नमो तिहुयणे जसस्सीणं । सरिऊण तवं तेसिं कुणसु तवं जीव ! समसुहयं ॥१४०॥ आया सुही [प]वरचित्ततवोवहाणो, नायं च नंदणभवे जिणवद्धमाणो । आया दुही मुणिजणाइ दुगंछमाणो, अक्खाणयं सुभमई-धणपुत्तियाणं ॥१४१॥ (दारं ३३(३५))॥ दुविहो परोवयारो दव्वे भावेण होइ जयसारो । पढमो स णाइ (सुयणाणाइ?) जं उवयरणं धम्मिजीवाणं ॥१४२।। नाणेण दंसणेणं चरणेण य भावओ य धम्मेणं । धम्मोवगरणएणं उवयरणं धम्मिजीवाणं ॥१४३।। रिसहो दुहावि लोए झायव्वो तिहुयणस्स उवयारी । सव्वकला सिप्पसयं दाउं लोआण उवयरियं ॥१४४॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 अनुसंधान-२३ धणकंचणकोडीओ दाऊण जहिच्छियं च लोगाणं । भावेण य सिवमग्गं उवयरियं जेण जगगुरुणा ॥१४५।। उवयारो तणुसारो उवयारो होइ धम्मआहारो । उवयारो हियकारो उवयारो तित्थउद्धारो ॥१४६॥ तेणुवयारो सारो उवयारो उत्तमाण आयारो । आहरण धरणकुमरो पत्तो जह कित्तिवित्थारं ॥१४७|| (दारं ३४(३६))। कहं तुमं कामगुणेहिं सुसंगो (संगो), धुत्तेहिं वा मित्तसहावसंरओ । जेहिं तुमं जीव अणेगसो मओ, हा ! सासओ मूढ ! असासओ कओ॥१४८॥ सद्दाइया कामगुणा खणिक्का दाऊण ते तुज्झ ममत्तभावं । गएहिं किं कंदसि रे वराय ! हा हा ! सुधुत्तेहिं व धुत्तिओसि ॥१४९॥ कामंधिओ किं पभमेसि भुल्लो सदोसपिंडेण पफुल्लगल्लो । मायाइसल्लेण सया ससल्लो अन्नाणदोसेण बइल्लतल्लो ॥१५०।। आया सुही विसयसल्लविसल्लचित्तो, राईमईइ रहनेमिमुणिव्व गुत्तो । आया दुही विसयपावगडज्झमाणो दिटुंतओ अरहदत्तकलत्तठाणो ॥१५१॥ (दारं ३५(३७))। अरिहंतचेइयाणं सिद्धायरियाइ सव्वसाहूणं । आसायणं अवन्नं धहयसु तहा पुज्जदव्वाणं ॥१५२॥ चमरिंदो जिणसरणो जिणदाढासायणं च छड्डेइ । जिणपडिमासायणओ पुव्वभवे अंजणा दुहिया ॥१५३॥ (दारं ३६(३८))॥ आया सुही भवइ झाणसरूवनाणो सो राजसो(से)हरनिवुच्च(व्व)य अट्टझाणो। दो चक्किणुव्व नरए पुण रुद्दझाणो आया सुही भवइ धम्मसरूवझाणो ॥१५४।। (दारं ३७(३९))॥ जह विणु रसेण सस्सं विणा रसिंदेण धातुसिद्धी य । दाणाइधम्मकिच्चं अहलं तं तह विणा भावं ॥१५५।। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 17 सुरनरपहूण सेवा विज्जामंताइ लोयकिच्चाई । सिझंति भावओ खलु ताणं न फलं च भाव विणा ॥१५६॥ भावा भवे केवलनाणलद्धी, भावेण वा सव्वपयत्थसिद्धी । सुहावहा तेण उ भावसुद्धी सव्वाण भावा किरियाण सुद्धी ॥१५७|| जं सुहलेसं किच्चं अज्झवसाएण होइ जं सुद्धं । जं च सुहभावहेऊ सो धम्मो एस परमत्थो ॥१५८॥ कविलमुणी सुहभावो केवलनाणी इलाइपुत्तो य । खंदगसीसा य तहा केवलिणो ते वि सुहभावा ॥१५९॥ मासतुसो सुहभावो केवलनाणी य कूरगड्डओ । राया पसन्नचंदो सीसो तह चंडरुद्दस्स ॥१६०॥ सुहभावा मरुदेवी समराइच्चो य केवलं नाणं । पत्ता चंदणबाला मिगावई ताण तिविह नमो ॥१६१।। (दारं ३८(४०))॥ सन्नाणदंसणचरित्ततवोवहाणो एयाई काममणु सिद्धिपयाई निच्चं । चित्ते निहाणमिव जे सययं धरंति ते पाणिणो विजयदाणपयं लहंति ॥१६२।। निस्सापयाई मुणिणो इय पंच काया, गच्छो सरीरममलं सुगिही सुराया । वटुंति जेहिं जिणधम्मसुरडुपाया, तेहिं सया सयलचंद सुहाय जाया ॥१६३।। समजियसुरसुक्खं अप्पणो बोहिदक्खं दुहदुरियविपक्खं धम्मचिंतासुभिक्खं । सहजकुसलसिक्खं जो सहाणं समक्खं सुणिय धरइ दिक्खं सो सुहं जाइ मुक्खं ॥१६४।। इति श्रीश्रुतास्वादसूत्रम् ॥ सकलचन्द्रोपाध्यायकृतमिति भद्रं भूयात् । यथाप्रति लिखितमिदम् ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार जिनस्तुतिओ सं. मुनि धुरन्धरविजय अत्रे चार जिन स्तोत्र आपवामां आवे छे. आमां बे स्तोत्र सम्बन्धी (कुटुम्ब ) नामगर्भ स्तोत्रो छे, अने बे स्तोत्रो खाद्यपदार्थनामगर्भ स्तोत्र छे. प्रथम आदिनाथस्तुति वा लब्धिसागरना शिष्य पं. भक्तिसागर गणीकृत छे, ते शिवपुरी (म.प्र.) संघना श्रेयार्थे रचेलुं छे. बीजुं मगसी पुर ( मक्षीजी) मण्डन पार्श्वनाथनुं स्तवन पं. राजसागरशिष्य रविसागरकृत छे बन्ने स्तोत्रोमां आवतां सम्बन्धीनामो जेवा शब्दोने Black टाईपथी आप्या छे, जेथी पाठकने तरत खबर पडी जशे. त्रीजुं स्तोत्र युगादिनाथविज्ञप्तिनुं सुखभक्षिका ( खाद्य पदार्थ) गर्भित स्तोत्र ते पण पं. रविसागरकृत छे. आ रविसागरजी तपगच्छे हीरविजयसूरि परिवारे पं. राजसागरना शिष्य छे. बीजुं तथा त्रीजु ए बन्ने स्तोत्र तेमनी ज रचना छे. चोथुं वीरजिनस्तोत्र पण सुखासिक गर्भित खाद्यनामगर्भित छे. तेनी रचना वा. धर्मसागरगणिशिष्य वा लब्धिसागरजी शिष्य उपाध्याय ने मिसागरनी छे. आपणी रोजिंदी लोकबोलीना प्रयोगना शब्दोने आ रीते गोठवीने अने गुंथीने विद्वान कविओए संस्कृत भाषा पासे जे काम लीधुं छे ते अजबगजबनुं छे. आमां प्रथम स्तोत्र धरावतुं पानुं उज्जैनना भंडारनुं छे, अने अन्य ३ स्तोत्रो धरावतुं पानुं वडोदरानी युनिवर्सिटीना संग्रहनुं छे. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 चार जिनस्तुतिओ (१) श्रीआदिनाथस्तुति - कुटुम्बनामगर्भिता ॥ श्रीगुरुभ्यो नमो नमः ॥ जयकर जन्तुकृपालय ! पालय नतमुनिचन्द्र । ऋषभजिनार्कसनाभि- भिकुलाम्बरतन्द्र(चन्द्र) ॥१॥ काका-काकीर्णोद्धर मामामामिलितः । सासूनृतमरूपम ! ससुरोमामिलितः ॥२॥ जयजयरवनन्दीकरो दिक्करिविमलयशः । भाभो-भाभी रतिकर ! दादो-दादिविशम् ॥३॥ देवर-दावलि दीधिति-निर्जितदाडिमबीज ! । भाइनवाणी वितरतु रोगाद्यशुभत्रीज ॥४॥ भतरीजीवसुखावह ! भाणेजीवनदः । रक्ष शुभाणेजो जय कारकजीवनदः ॥५।। शालीकृतशिव ! शालो-देरानीतिकरः । ज्येष्टभवोदधितारक ! जेठानीतिहरः ॥६॥ मासुखमाशीर्वादो बहुशिवसुखभरतार । सुकृतलतापल्लवना बहनीरदवरतार ॥७॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) भोजाईतिप्रशामक ! रेफइतात्तिविलाप ! । ज्ञानजमाइभगतिधर देहि सुकृतमाबाप ॥८॥ सुजनानन्दरजोज्झित ! नानन्दरिपुकन्द ! । दर्शतस्तव जिनवर ! मादृश एष ननन्द ॥९।। श्रीमद्वाचकलब्धिसागरगुरोः शिष्याणुना भक्तिना नीत: संस्तुतिगोचरं जिनपतिः श्रीमत्कुटुम्बाह्वया । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 श्रेयः श्रेष्ठकुटुम्बवृद्धिमतुलां कुर्याद्युगादिप्रभुः श्रेयःसन्ततिकारकः शिवपुरीसङ्घस्य कल्याणकृत् ॥१०॥ ॥ इति श्री ६ आदिनाथस्तुतिः सम्पूर्णा ॥ कृता पं. भक्तिसागरगणिना ॥ ( २ ) श्रीमगसीपुर - पार्श्वनाथस्तवनं कुटुम्बनामगर्भितम् केदारगुडी तथा आसाउरी) (राग अनुसंधान - २३ -- श्रीमगसीपुरमण्डन ! शम्भो दय जयदायक ! नायक ! शम्भो ! | श्रीपार्वामयसञ्चयदम्भो, गममपनय मदनाघमदम्भो ||१|| माताराभवतो भुवि कस्यां, बाबारानुकृतिर्नहि कस्याम् ? | काकाराद्भुतभूघनकान्ता, काकीर्णाननुमतिते कान्ता ||२|| मामारः परिभवतु नितान्तं, मामीसुरभवतागमतान्तम् । मासुख - शितिदशमीभव पोषे, मासीहितकारक ! [गतदोषे ] ||३|| भाईभासुर भूघनकान्ते ! बह निघनीव्रजतततमकान्ते ! । ससरोदयधारकहरिनूता सासूनृततनुभा भुवि नूता ॥४॥ भा भुजयामलमञ्जुलकाया भाभी रुचिर वितरतु काया । देवरणोज्झितसुखकरवाणी देवराणी अयि तरतनुबाणी ॥५॥ दिक निखिलकलागुणदाना दिकरीतिः परकुशलनिदाना । भाणे जय कारणजितभाना भतरीज्येष्ठरुचे हसमाना ||६|| कलश: स्तोत्रे ऽत्राऽस्ति कुटुम्बशब्दमिलनं दृग्दष्टमात्रं यथा विज्ञायाऽसफलं भवेऽपि निखिलं कौटुम्बिकं तत् तथा । श्रीमत्पण्डितराजसागरसुधीः शिष्यो (सुधीशिष्यो) महानन्दनं श्रीपार्श्व रविसागरस्त्व (स्तु) मगसीचूडामणी (ण) नौत्यलम् ||७|| ॥ इति मगसीपार्श्वदेवस्तोत्रं कुटुम्बगर्भितम् ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 21 (३) श्रीयुगादिदेवविज्ञप्तिकारूप-सुखभक्षिकागर्भितस्तोत्र (राग - केदारु फाग) श्रीसंघे वर साकर जय नृपमोदक सेव ! विमलजले बीजे सदमरकीर्तितजिनदेव ! ॥ हिङ्गलखण्डविभारुण ! ममलाप सीमदान, भविकं सार चकारतयिन पदकमलममान ॥१॥ वरसोलाघबदामय चारो लीनिमजाभ, [जन]पस्तांतिम खारिक भीत इमावसुलाभ ॥ सुदमी दुष्कनिशाकर कोहलापाकर पाहि, वि(जि?)तशोकाकबली वृषखण्डर परमयशाहि ॥२॥ अखलहलांकककूलिर खरमांगतिनिद्राख, आटोपरां सदा फल करणी र्पयडा शाख । सार विचार बिदाडिम रतबत नालीकेर, अकरमदां बकपूरक महसां तनु असु बेर ॥३॥ केलांगुलि नारिंगक जम्बीरांचिततान, मति रां जाय फला लिंब कमरख नेमूस्त्वान ॥ अकलिं बुधनर जां बुधिजरगोजांकिर बोर, कयरीतिकृतपरायण पीलुगतेरकठोर ॥४॥ वालुरणी नविडांगर डोडाध्यान लविंग, कर्मक्षपणे गांतवनाददवत्तरसंग ।। वीतजराबमरी तेल भाजी कलमधमाल, क्षीरदहीरनृपानत सोपारीरससार ॥५॥ कलश श्रीतपगणाधिपहीरविजयगुरुगच्छभूषितबुधवरश्रीराजसागरशिष्यपण्डितसुरविसागरनामतः । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2222 श्रीनाभिभूपतिवंशदिनपतिवृषभजिनपतिपी (री) हितं कुरुतान्मतो जिनसागरस्य च नाकिनायकसम्मतः ॥६॥ ॥ इति श्री युगादिदेवविज्ञप्तिकारूप सुखभक्षिकागभितं स्तोत्रं सम्पूर्ण ||छ | (४) श्रीवीरजिनस्तोत्रं सुखासिकागभितम् जयसि साकर मोदक हे शमी, सुकृतवृक्षजले बिभयक्षयः । क्षितजरामर कीर्तिभर क्षमो, गलदघे वर मुक्तिरमाकरः ॥ १ ॥ दिशतु मेषरमां वर लापसी, खलहलां स्फुरद्राखगिरौ पवे ! । गुणबदाम रिपुक्षयनिर्वृते, रत बनालि अरम्यमुखाम्बुजम् ॥२॥ जन अखोड कपूर करम्बकं, सुजलदाडिमनोहरनिस्वनम् । प्रणम सेवक खांड म घीतिदं, स्फुरदहीशनुतं नतखाजलम् ॥३॥ फाग जनपस्तांजिन खारिकभेदक सार, कुहलापाक दमीदो सोपारी रस सार ॥१॥ सत् सेवइआ मोतीआ कसमसिआ सार, दुष्टकलाडूआ गलपापडी जयजयकार ॥२॥ मांडीनत मंतारय वसुधा मोतीचूर, महसूपकरणकारण कयरीपाकखजूर ॥३॥ मामण पुण्यवसुं हालीनत मंसुखसंग, अनुसंधान- २३ चार्वाचारोलीकर चारविजितमातंग || ४ || वरसोलां नतपदयुग पारगतं नमजाक, जितशोकाकबलीश्वर सुकृत सदाफललोक ॥५॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April 2003 आंबा नारायण नतपदकज सेलडिसार, वृषबीजोरुं केलां त्वामभिनौमि जितार ||६|| सालि सुदालिनतक्रम मांडा वडि जिनचंद्र, जयसि सुखीरवडां जनकश्मलहर गततन्द्र ||७|| सुंदरडोडीलाधर पापड पापडी सार, तूंरीआन्वित कंकोडा भतस्तनुतार ॥८॥ गंतरेफो फलचिन्तन डोडा पान लवंग, वरतरजायफलोन्नतजाव त्रिभुवनरंग ||९|| कलश: इत्थं श्रीत्रिशलासुतः स्तुतिपथं दीपालिकावासरे नीतः स्फारसुखासिकावलिकलैर्भोज्यैरशेषैः सुखम् । देयाद् वाचकधर्मसागरगुरोः पट्टाम्बरद्योतने सूर्य श्रीगुरुलब्धिसागर शिशोर्नमेर्मनोवाञ्छितम् ॥१०॥ ॥ इति श्रीवीरजिनस्तोत्रं सुखासिकागर्भितं महोपाध्यायनेमिसागरगणिभिर्विरचितम् ॥ 23 ठे. ६ / चन्दन हाईवे, डीसा ( बनासकांठा ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाना-छन्दोमय-श्रीनेमिनाथस्तवन सं. मुनि विमलकीर्तिविजय संस्कृत-छन्दःशास्त्रना विविध छन्दोनो उपयोग करी, उत्तम अलंकारो तथा हार्दिक भावोथी गुंफित आ स्तवनमां श्रीनेमिनाथ भगवाननी स्तवना करवामां आवी छे. आ स्तवननी विशेषता ए छे के कर्ताए छन्दोनां नामो पण स्तुतिमां ज विविध रीते जोडी दीधां छे अने मुख्यतः अप्रचलित छन्दोनो ज उपयोग कर्यो छे जे तेमनी भाषा, छन्दःसाहित्य तथा काव्यविषयक कुशलता दर्शावे छे. __ आ स्तवनमां कर्ताए मात्रावृत्त तथा वर्णवृत्त-एम बंने प्रकारना छन्दो वापर्या छे. जो के मात्रावृत्त छन्दो ओछा वापर्या छे. जेम के - पथ्यावक्त्र (श्लो.१), औपच्छन्दसक (श्लो. ४), आपातलिका अपरान्तिका (श्लो. ७) अने औपच्छन्दसक-अपरान्तिका (श्लो. ११). बाकीना श्लोको वर्णवृत्तछन्दोमां ज रच्या छे. तेमां पण ४२मा श्लोकना चार चरणमां चार जुदा छन्दो प्रयोजी कमाल करी दीधी छे. __ आ स्तवन एक ज पत्रमा लखायेलुं छे. अक्षरो अत्यंत सुन्दर-स्पष्ट तथा मरोडदार छे. सहेज-साज अशुद्धि रही गई छे. कर्ता तथा लेखन संवत् विशे कोई उल्लेख नथी. छतां लखावट जोतां प्रायः १६मा सैकामां लखाई होय तेवू अनुमान थई शके छे. छेल्ला श्लोकमां लक्ष्मी-छन्द वापर्यो छे. ते परथी एवं अनुमानी शकाय के कोई लक्ष्मीकल्याण-लक्ष्मीकल्लोल जेवू लक्ष्मी-युक्त नाम धरावतां मुनिए आ स्तवननी रचना करी होय. अहीं छन्दोनां नामो हेमचन्द्राचार्यविरचित 'छन्दोनुशासन'ना आधारे आपवामां आव्यां छे. आ संपादनमां मुनि कल्याणकीर्तिविजयजीए सहाय करी छे. ★★★ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 श्रीशैवेयं शिवश्रीदं, छन्दोभिः कैश्चिदप्यहम् । 'कंदर्पविजयप्रात्तास्तोका लोकश्रियं स्तुवे ॥१॥ (पथ्यावक्त्र) नभोगनगस्वरूपाणी (नमो नगस्वरूपिणी) रिता त्ययि प्रयातु मे । महत्त्वमम्बुदालिवत्तनुप्रमाणा (प्रमाणिका)ऽपि गीः ॥२॥ (नगस्वरूपिणी । प्रमाणिका) मेघश्यामश्रीमन्नेमे ! विद्युन्मालावन्मां मुक्त्वा । का ते शोभा भूभृच्छृङ्गे, राजीमत्येत्युक्तो जीयाः ॥३॥ (विद्युन्माला) वैतालीयं यथा गुरौ स्यादौपच्छन्दसकं श्रितेऽक्षरेऽग्रे ।। अपि मिथ्यादृग् तथा सुदृग् स्यात्त्वदुत(क्त)तत्त्वे संश्रिते जिनेन्द्र ॥४॥ (औपच्छन्दसकम्) वक्त्रसुधाभीशु(षु)स्तेऽधीश ! स्फीतमुदे नो नव्यः कस्य । यः सततं निर्दोषासङ्घस्त्यक्तकलङ्कः पद्मोल्लासी ॥५।। (वक्त्र) किल सकलां मुखलक्ष्मी, जिन ! जयिनी तव वीक्ष्य । भजति भिया शशिलेखा, गुरुगिरिशालिकदुर्गम् ॥६॥ (शशिलेखा) तव पादैः श्रितसर्वसमत्वैर्धरयाऽऽधिक्यमवापि दिवाऽपि । आपातिलका (आपातलिका )तोऽधिकला किं तैरपा (रपरा )न्तिकयेश ! न लेभे ॥७॥ (आपातलिका - अपरान्तिका) भिन्दत्युद्धतमोहतमिश्रं, गोभि सितविष्टपभावे । स्वामिस्तेऽभ्युदितेऽपि मुखेन्दौ, चित्रं शोषमियति भवाब्धिः ।।८॥ (उद्धत) रुक्मवतीश ! क्षमाभृति शकैर्जन्ममहे ते चम्पकमाला । न्यासि मुदा कण्ठे त्रिदशस्त्रीलोचनभृङ्गस्मेरितमोदाः ॥९॥ (रुक्मवती । चम्पकमाला) १. पाठांतरम् - स्तुत्वा कुर्वे गिरस्तथ्या, पथ्या वक्त्रविनिर्गताः । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 गन्धर्वैस्तव सुस्त (स्व) रैर्यशोगीतं पीतमवीतसुस्पृहैः । स्वामिन्निर्जितशीतरुक्सुधा, गङ्गाशुद्धविराट् सुराधिपैः ॥१०॥ ( शुद्धविराट्) मात्राणामिव तन्वता त्वयाऽष्टादशकं ब्रह्मभिदां पदे पदेऽर्हन् । औपच्छन्दसकापरान्तिकावद्, यतिगणवृत्तविदाऽऽरचि व्रतश्रीः ॥ ११ ॥ (औपच्छन्दसकापरान्तिका ) चूर्णी भवन्त्यङ्गभृतामघौघाः काठिन्यवन्तोऽपि तव स्तवेन । स्वामिन्नतामत्र्त्यनरेन्द्रवज्राघातेन शैला इव निर्विलम्बम् ||१२|| ( इन्द्रवज्रा ) उपेन्द्रवज्रायुधपन्नगेन्द्रैरुपासितस्त्वं स्मितकैरवाक्षैः । सदास्यशीतद्युतिचन्द्रिकाम्भः पिपासुभिर्नाथ ! निरन्तरायम् ॥१३॥ अनुसंधान - २३ (उपेन्द्रवज्रा ) आख्यानि कीदृग् निजदुःखजातं, तवाऽग्रतोऽहं व्यथका यदेते । मुञ्चन्ति नाऽद्योप्युपजातिभृङ्गाः इव प्रभो ! मां मलिना अघौघाः ॥१४॥ (उपजाति) , दोधकमुख्यसुवृत्तनिबद्धै रासशतै रसवद्भिरधीश ! । निर्जरनागनभश्चरनार्यः कुत्र जगुर्न भवत्सुभगत्वम् ||१५|| (दोधक) स्वःस्त्रीकुलमुज्ज्वलनाट्यरसात् साक्षिभ्रमिसन्मुखमोटनकम् । नानाकरणोद्भटमपाहरच्चित्तं ( ? ) न तवेश ! रतीशजितः ||१६|| ( मोटनक) कामं स्वामिंस्त्वदमलचलनाम्भोजस्फूर्जभ्रमरविलसिताः । मर्त्याः प्रापुः प्रमुदितमनसः कल्याण श्रीरसमसमतरम् ||१७|| (भ्रमरविलसित) , पादाम्भोजं पुण्यसौरभ्यलोभासङ्गिस्वर्गश्रेणिभृङ्गावलीकम् । सद्भावाम्भ: शालिनीश ! त्वदीयं, वासं शश्वन्मानसे मे वितन्यात् ॥१८॥ (शालिनी) नाथ ! विष्टपकृपाऽपरान्तिका यात विश्वमहिता पदद्वयी । पूरिताखिलमनोरथोद्धतानन्ततापशमनाय मेऽस्तु ते॥१९॥ ( अपरान्तिका रथोद्धता) - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 April-2003 यैस्तव स्तवनकर्मणि वाणी, स्वागताघततिभिर्विनियुक्ता । ते भवन्ति भवनाधिपतित्वं, प्राप्य नाथ ! जगति स्तवनीयाः ॥२०॥ (स्वागता) भवदा ददतां प्रबोधितां ध्वनिना दत्तहरित्प्रतिश्रुताम् । अमृतप्रदकेन निन्यिरे, मुदिरेणेव रयेण विस्मयम् ॥२१॥ (प्रबोधिता) मुक्ताफलेन जिनेन्द्र ! यादवक्षोणीन्द्रवंशाग्रमलंकरिष्णुना । निस्त्रासनैर्मल्यवता कृतस्त्वया, कस्को न दृग् मार्ग[य]ते न मोदभाग् ।।२२।। (इन्द्रवंशामिश्र-उपजाति) चलन्महीरत्नमयध्वजां चलच्छलान्नरीनति जगत्पते ! तव । यशस्ततिर्विष्टपदिष्टविस्मया, सुतुङ्गवंशस्थनटीव सर्वदा ॥२३॥ (वंशस्थ) भक्तिसस्पर्धवर्धिष्णुसत्संमदा, नाथ ! जज्ञे जनालीनमन्मौलिका । तावकीनाङ्घ्रिपद्माग्रजाग्रन्नखप्रोन्मिष ज्ज्योतिषां श्रेणिभिः स्त्रग्विणी ॥२४॥ (स्रग्विणी) द्रुतविलम्बितभावविवर्जिता, सकलजन्तुहिता गतमत्सरा । जयतु ते युगपज्जनकोटिहत्प्रभवसंशय[सं]हरिणीश ! वाक् ॥२५॥ (द्रुतविलम्बित) वरजाङ्गुलीव जिन ! यच्छुतिषु, प्रमिताक्षराऽपि तव गीरविशत् । तरसा ततोऽनशदशेषमपि, स्फुटदर्पदर्पकमहाहिविषम् ॥२६॥ (प्रमिताक्षरा) प्रिय ! भूषय मां भव माऽभिमुखः, पारितोऽट कलंकय मा स्वबलम् । इतिवाक्यमिदं श्रवणेऽप्यवहनवधीश ! रयाद्भवता मदनः ॥२७॥ (तोटक) नरेन्द्रान्वयोद्भूतनिधूतदोषप्रभूतप्रभावप्रभो ! सत्कलाब्धे ! । विदीकृतोद्यन्मनोभूभुजङ्ग !, प्रयातं शिवं कैर्न हित्वा नमद्भिः॥ (भुजङ्गप्रयात) प्रमुदितवदनाः प्रभाभासुराः प्रणयभरभृताः सुपर्वाङ्गनाः ।। भवति नतिकृतां जनानां विभो ! वदति दिवि सदाशिषः शंपुषः ॥२९॥ (प्रभा) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 अनुसंधान-२३ स्वामिन् ! मूर्तिर्जलधरमालावत्ते, कामं श्यामा रचयति तपो(वो)पास्तिम् । आतन्वाना सुकृतलताविस्तारं, तच्चित्रं यज्जनयति हंसानन्दम् ॥३०॥ (जलधरमाला) स्थाने तन्मत्यै यदि दोषाकरः स्यान्मिथ्याबुद्धि श्राग् वैश्वदेवीमवाप्य । तच्चित्रं मैत्रीमाप्य भास्वानपि त्वं, जन्तूनां धत्से नाथ ! यत्सिद्धियोगम् ॥३१॥ (वैश्वदेवी) जलोद्धगतिः कृताऽघविततिस्त्वदुक्तविरतिः कुसंगतिरतिः । प्रनष्टसुमतिर्जिनेश ! कुमतिर्जन: शिवगतिश्रियं न भजति ॥३२॥ (जलोद्धतगति) लभते स्तुवन् केकिरवं जयद्भिर्दुरितपुटविभेदिन् मञ्जुशब्दैः । तव पदतामरसं भुवि भव्यः, कुसुमविचित्रावलिभिरिहाऽर्चाम् ।।३३।। (तामरस) सत्कीर्तिकान्तिललितास्तपूर्णिमा चन्द्रवर्त्मसुगतेर्भुवि भविनाम् । विशति नाथ ! तव गी: प्रियम्वदा, स्वरविनिर्जितलसत्कलहंसा ॥३४॥ (प्रियम्वदा) भगवन् ! गुणमालभारिणीनां, निजमाधुर्यपराजितामृतानाम् । द्रुतविद्रुतवैरसंशयानां, न गिरां ते श्रवणं वितन्वते के ॥३५॥ (मालभारिणी) अत्यन्तं मधुरिमकान्तिसौकुमार्योदारोंजोद्भुतसमताप्रसत्तिवन्ति । काव्यानि श्रवणवदीश ! ते निपीयाङ्गानि श्रान्मम नयने प्रहर्षिणी स्तम् ॥३६॥ (प्रहर्षिणी) मूर्च्छत्पाथोवाहमहागर्जितनादैनित्यं नृत्यन्म रवन्मत्तमयूरम् ।। शैलं कीर्तिस्ते विकसत्केतकराजीवातिस्फीता रैवतकं वासयतीश ! ॥३७॥ (मत्तमयूर) मदनं विजेतुं किमिमं महाकरं, गिरिकुञ्जरं गैरिगनागजाञ्चितम् । श्रितवान् सुदन्तं गुरुपादसुंदरं, त्वामिनश्रवन्निर्झरदानसंवरम् ॥३८॥ (सुदन्त) नृपकन्यकाऽक्षिहृदयाभिनन्दिनी, सपदि त्वयौज्झि मृदुम भाषिणी । निजरूपनिर्जितसुराङ्गनाऽपि सा, जिन ! नित्यनिर्वृतिसुखाभिलाषिणा ९॥ (मञ्जुभाषिणी) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 April-2003 कुटिलगतिकरं तं जगद् व्यस्मरं, मदनविषधरं निर्विषत्वं न यत् । त्वमसि यदि जिन ! स्वर्णकायस्तदा, मरकतमणिवत् कृष्णकायः कथम् ॥४०॥ (कुटिलगति) तृणवद्दिवं दिविषदो गणयन्तस्त्वदुपान्तमीश्वर ! मुदाऽधिवसन्ति । स्मितकेतकीकमपहाय वनं किं मधुपाः स्फुटं कुटजराजि भजन्ति ॥४१॥ (कुटज) न ते ध्यानध्वंसं चन्द्रिणी चन्द्रकान्तं, व्यधित नाथाङ्गहाराद्भुताऽप्युर्वशी। तथा वनी शुचिरुचिराम्रमञ्जरी, गुञ्जत्पिकोन्मदमधुप ! प्रभावती ॥४२॥ (चन्द्रिणी-उर्वशी-रुचिरा-प्रभावती) शमयति झगिति श्रमं समन्ताद् ध्वनरसलब्धविवृद्धिरीश ! गीस्ते । अभिमतफलदायिनी जनानां त्रिदिवलते ! वरदांशुपुष्पिताना ॥४३॥ (पुष्पिताग्रा) शमयत् परं गुरुतमांसि, कुवलयविबोधनोद्धराः । गाव इह ननु जडत्वभृतो भगवंस्तवाऽऽननसुधाकरोद्गताः ॥४४॥ (उद्गता) श्रीमत्रेमीश्वरेति स्तूयसे द्वैतशोभः, सोत्साहं छन्दसां यैर्मङ्गिभिस्त्वं शिवासूः । मत्यैः संप्राप्यते तैः क्लृप्तदुःकर्मपूर- प्रध्वंसैमॊक्षलक्ष्मीसङ्गसौख्यं महीयः ॥४५॥ (लक्ष्मी ) इति नानाछन्दोमयश्रीनेमिनाथस्तवनं समाप्तम् ॥ Co. अतुल कापडिया, ए-९, जागृति फ्लेट्स, . पालडी, अमदावाद-३८०००७ (गुजरात) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरविसागरगणिकृता कुमारसम्भवादिमहाकाव्यचतुष्करीत्या स्तोत्रचतुष्टयी ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि मध्यकालना जैन मुनिओए संस्कृतभाषामां जे रचनाओ करी छे ते जेम विपुल मात्रामां छे तेम अद्भुत अने सर्जक प्रज्ञाना विलक्षण उन्मेषोथी छलकाती पण छे. हस्तप्रतिओमां, अने हवे तो अढळक मुद्रित सामग्रीमां पण, आवी नानी मोटी रचनाओने अवलोकीए छीए, त्यारे आ वातनो यथार्थ ख्याल अवश्य आवे छे. सद्गत विद्वान प्रा. हीरालाल रसिकदास कापडियाए " जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास" लख्यो छे, तेमां एक स्वतंत्र ग्रन्थ लखीने उमेरवो पडे तेटली कृतिओ तो, ते पछी, प्रकाशमां आवी गई छे. अने प्रकाशमां न आवेली कृतिओनो जथ्थो तो हजी एवा केटला ग्रन्थ मागशे तेनी कल्पना ज करवी पडे. 'अनुसन्धान' आरंभायुं त्यारे तेनो प्रधान आशय प्राकृत - संस्कृतना क्षेत्रनी माहिती आप्या करवानो अवश्य हतो, पण ते साथे ज, संप्रा. रचनाओना संपादन - प्रकाशननो पण आशय हतो ज, अने ते आशयनुं शक्य विशेष प्रमाणमां अनुसरण थई रह्युं छे, ते सन्तोषप्रद छे. अत्रे आपली कृति, एक विलक्षण 'वस्तु' लईने आवे छे. संस्कृत साहित्यनां प्रसिद्ध त्रण महाकाव्यो तथा एक अद्भुत जैन महाकाव्यनी अनुकृतिरूप चार अलग अलग स्वतंत्र रचनाओ आ कृतिमां छे. जैन चित्रकलामां 'लघुचित्रो' नुं खूब चलण रह्युं छे. अजन्ता इलोराना बृहत्काय भित्तिचित्रोनुं अत्यन्त लघु अने नाजुक अनुसरण एटले जैन पोथीओमां सांपडतां 'लघु चित्रो' - Miniatures'. ते ज रीते शिल्पकलाना क्षेत्रमां जैनोमां 'अवतार चैत्यो 'नुं व्यापक महत्त्व रह्युं छे. जेवा के शत्रुंजयावतार चैत्य, गिरनारावतार चैत्य वगेरे. पहेलां तो आखुं स्वतंत्र चैत्य (देरासर) बंधातुं, अने तेमां आदिनाथनी मूर्ति बेसाडी ते चैत्यने 'शत्रुंजयावतार चैत्य' जेवुं नाम अपातुं. कालान्तरे, पाषाणना तथा पछीथी धातुमय पट्ट बनवा मांड्या. तेमां केन्द्रमां जे ते तीर्थना मुख्य भगवान स्थापवामां आवता, अथवा जे ते तीर्थनी प्रतिकृति दोरवामां आवती; अने तेने ते ते 'तीर्थावतार' प्रतिमारूपे ओळखवामां Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 31 आवतां. ते ते तीर्थ/तीर्थो प्रत्येना श्रद्धापूर्ण लगावने कारणे भाविको द्वारा आवां निर्माण थतां, जे आजे पण छूटाछवायां चाल्या करे छे. अनुसरण - अवतरणनी आ ज विभावनाने साहित्यक्षेत्रमां पण स्वीकारवामां आवी. तेना परिणामे 'मेघदूत'नी अनेक समस्यापूर्तिओ तथा ते प्रकारनां अन्य नाना मोटां सर्जनो मळ्यां छे. आवां काव्यो माटे 'मेघदूतावतार' एवो शब्द योजीए तो कांई खोटुं नथी. परन्तु, विलक्षण प्रतिभानी सर्जकताने फक्त समस्यापूर्ति के पादपूर्तिमां ज सन्तोष केम थाय ? ते तो अनुकरणमां पण कोईक वधु सर्जनात्मक अवनवा उन्मेष प्रगटाववा ताकती रहे छे. एना ए ताकमांथी सर्जाय छे अत्रे आपवामां आवेली (अने ते प्रकारनी ) अद्भुत 'लघु' रचनाओ. महाकवि कालिदासनी महाकाव्यात्मक रचनाओ जगविख्यात छे. कुमारसम्भव, रघुवंश, मेघदूत - ए त्रण तेमनी प्रमुख रचनाओ छे. ते रचनाओना ध्वनि अने रचनारीतिने पकडी लईने कर्ताए त्रण लघु-काव्यरचनाओ करी छे, जे खरेखर अनुपम छे. आमां पात्रो जुदां, प्रसंगो ने परिवेश जुदा; समानता मात्र शैलीनी. प्रतिभासंपन्न माणसनुं ज आ काम. % प्रथम रचना 'कुमारसम्भव'नी रीतिने अनुसरे छे. कुमारसम्भवनुं प्रथम पद छे 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः ', तो आ लघु रचनानो प्रारंभ ‘अस्त्यत्र भूयः शिखरानुषङ्गी शिलोच्चयो रैवतकाभिधानः ' एवा पदथी थाय छे, कालिदासना प्रसंगमां प्रसिद्ध वाक्य 'अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः' एनुं प्रथम पद 'अस्ति', कु०सं०नी जेम ज आमां पण कर्ताए गूंथ्युं छे, एटलुं ज नहि, कु.सं. मां 'हिमालय'नी वात छे, तो अहीं पण 'रैवतक' नी वात द्वारा पर्वतनी ज वात थई छे. कु. सं. मां शिव-पार्वतीनी वात छे, तो अहीं नेमिनाथ - राजीमतीनी वात मूकी छे. बीजी रचना 'मेघदूत'नी रीति प्रमाणे छे. प्रथम पद 'कश्चित् '. मन्दाक्रान्ता छन्द. मेघदूतमां नायक विरहाकुल बनीने नायिकाने सन्देशो पाठववा माटे 'मेघ' ने सन्देशवाहक बनावे छे. अहीं विरहिणी नायिका - राजीमती नायक - नेमिनाथने पोतानी वात पहोंचाडवा माटे 'ज्योत्स्ना' ने सन्देशवाहिका Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 अनुसंधान-२३ बनावे छे. नायिकानी विह्वल अने तेथी करुण मनोदशानुं वर्णन करी बताववामां कविए धारी सफलता हांसल करी छे. त्रीजी रचना 'रघुवंश' ने अनुसरे छे. प्रथम सर्ग अनुष्टुप् छन्दमां छे, 'वाग्' शब्दथी तेनो प्रारम्भ छे, अने रघु-वंश- तेमां विस्तृवर्णन छे; ते प्रमाणे अहीं पण अनुष्टुभ् छन्द द्वारा इक्ष्वाकुओना वंश--ऋषभदेवना वंश- कवि मजानुं वर्णन आपे छे; प्रारम्भ करे छे 'वाग्' शब्दथी ज. चोथी रचना ते 'जिनशतक'ना एक परिच्छेदनी अनुकृतिरूप छे. विक्रमना १०मा शतकमां थयेला विद्वान जैन मुनि-कवि जम्बूनागे १०० श्लोक अने चार परिच्छेदात्मक महाकाव्य रच्युं छे : जिनशतक. तेमां स्रग्धरा छन्दमां, २५-२५ पद्योना चार विभागोमां, जिनभगवानना एकेक अंगनुं अनुपम वर्णन करेल छे. अर्थालंकारो तथा अर्थगाम्भीर्यथी छलकाता ते काव्यने शब्दालंकारोनी विशिष्ट चमत्कृतिथी कविए एवं तो मढी दीधुं छे के तेने 'महाकाव्य' तरीके ओळखवामां कोई ज खचकाट अनुभवातो नथी. तेना प्रथम परिच्छेदमां आवता 'जिन-पादवर्णन' ने विषय बनावीने कर्ताए ते ज छन्दमां ते ज रीतिए २५ पद्योनी रचना अहीं आपी छे. २६मां पद्यमां कर्ताए ज 'जिनशतक'ने 'महाकाव्य' लेखे ओळखाव्युं छे. तेम ज तेमां थएल सूचना मुजब आ काव्य, पादपूर्तिरूपे होवानुं समजाय छे. (आ क्षणे, विहारयात्रामा होवाने कारणे, पुस्तकोनी अनुपस्थितिमां, आ मुद्दे स्पष्ट विधान करवानुं शक्य नथी.) कर्ता- नाम गणि रविसागर छे, अने तेमना गुरुनु नाम पं. राजपालगणि छे. आ राजपालगणिनुं नाम पं. राजसागर होवार्नु, अने तेओ वाचक हर्षसागरना शिष्य होवार्नु, कर्ताए स्वयं रघुवंशानुकृत काव्यमा २६मा पद्यमां सूचव्युं छे. गच्छनो तथा समयनो उल्लेख नथी. पण अनुमानतः तपगच्छ अने सत्तरमो शतक लागे छे. आ कृतिनी प्रति उदयपुरना हाथीपोळ सरायना भण्डारमा छे, जे परथी तेनी जेरोक्स नकल मेळवीने मित्र मुनि श्रीधुरन्धरविजयजीए मोकलेली, तेना आधारे आ संपादन थयुं छे. जेरोक्स उकेलवामां जरा कष्ट थाय तेम खलं. केटलेक स्थाने छूटी गएलां अमुक पदो तथा चोथी रचनागत २३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 33 २४-२५ ए त्रण पद्योमा एक ठेकाणे नहि मळेल अर्धं पद्य, अने तेने कारणे पद्यांक आपवामां थएली भूल-आटलुं बाद करतां एकंदरे प्रति शुद्धप्राय छे. चार पत्रोनी प्रति छे. तेनी लेखनशैली जोतां ते १७मा शतकमां लखाई होवार्नु अनुमान करी शकाय तेम छे. जो आनी अन्य प्रति क्यायथी जडे तो पाठमेळवणीपूर्वक शुद्धता आणी शकाय. एक सामान्य तारण ए नीकळे छे के जैन मुनिओ, परंपरागत रीतेज, जैन न होय तेवां पण रघुवंशादि पांच महाकाव्यो, विशद अध्ययन करता आव्या छे, अने तेने आत्मसात् करीने ते काव्यो उपर टीकाओ पण लखता रह्या छे, साथे साथे आवी विलक्षण अने श्रेष्ठ रचनाओ पण आपता रह्या छे. आम करवामां तेमने संप्रदायभेद, धर्मभेद, मन्तव्यभेद जेवां क्षुल्लक तत्त्वो कदापि नड्या नथी. श्रीसर्व्वविदे नमः ॥ स्वस्तिश्रियः सर्व्वजिनान् प्रणत्य तान्, स्तोष्ये किलाहं वृषभं च नेमिनम् । रीत्या समासेन कुमारसम्भव-श्रीमेघदूताख्य-रघूरुवंश्यया ॥१॥ (१) अस्त्यत्र भूयःशिखरानुषङ्गी शिलोच्चयो रैवतकाभिधानः । अनेकसौपसमागमेन गरीयसी संस्थितिमादधानः ॥२॥ सर्वेषु शैलेष्वयमेव तुङ्गः श्रृङ्ग समारुह्य यदीयमुच्चम् । समागतः केलिचिकीर्षयेति वृन्दारकौघैरवधार्यते स्म ॥३॥ एवं न चेत्तन्न किमारुरोह जिनं जिगीषुः कुसुमायुधोऽयम् । यथातथं तद्भुवि योऽल्पशक्ति-र्यत् सोऽधिरोढुं प्रभवेदनुच्चम् ॥४|| युग्मम् ।। काठिन्यमासीद् वचनीयतायै न यस्य भूयः सुखसिद्धिहेतोः । यदेकदोषो महिमच्छिदेन लावण्यभर्तुः सरितां विभोर्वा ॥५॥ अशोकवृक्षस्य यमाश्रितस्य च्छायां सुशीमामनुभूय मर्त्यः । अनन्तकालं वपुषां सहायौ निराचकाराखिलशोकतापौ ॥६॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 अनुसंधान-२३ यत्र स्थितानां सहकारकाणां स्वादूनि खण्डानि रसालयानि । पाणौ समादाय मुदा लिहन्त-स्तृप्यन्ति देवा इव देहभाजः ॥७॥ यदीयखानिर्वरिवत्ति भूयो माहात्म्यभृत् कल्पलतेव नृणाम् । समग्रसम्पत्तिविधानहेतो-बिभ्राजिरत्नप्रकरं दधाना ॥८॥ निष्पन्नमादाय यदीयखानौ स्वर्णादिधातुं कमलानिदानम् । जीवन्ति नि:स्वा हृदि दीनभावा भूयोऽर्थिनस्त्यागधियो ददन्ते ॥९॥ यदीयखानेः शुचि चीनपिष्ट-मानाय्य दास्या सह मानिनीभिः । मूर्ध्नि क्रियन्ते तिलकानि नूनं विराजिनानारचनाविशेषैः ॥१०॥ सदौषधीर्भावुककर्मक/ः संप्राप्य यस्माद्भुवि बोभवीति । सुखी हृषीकाणि पटूनि बिभ्र-ज्जनो मनोवाञ्छितवस्तुलाभात् ॥११॥ यस्मिन्नुपस्थाय पुरोगविद्या-धरैः साधयितुं कृतेच्छैः । प्रभूयते तत्र भवत्सकाशा-दनाबि(वि)लाम्नायमवाप्य पुण्यात् ॥१२॥ आरूढमुच्चैः सुमनःसमूहं क्रीडार्थमालोक्य सहाङ्गनाभिः । कदापि मा भूत् स्वपदस्य भङ्गो यस्मिन् सनेतीव वसन्ति मेघाः ॥१३॥ बहिर्गताः कन्दफलस्य पुण्य-स्यादित्सया मेघघटां समीक्ष्य । तपस्विनो यस्य दरीः श्रयन्ति विद्युल्लताढ्यां शिखराधिरूढाम् ॥१४॥ वेविद्यमाने मयि कोऽपि मा भूत् कदापि दारिद्मगृहीतधिष्ण्यः । इतीव सद्धातुरधारि येन प्रवर्तते सन् हि परोपकृत्यै ॥१५॥ कुलाङ्गनावच्छुशुभेतरां यो विशालवंशस्थितिमुज्जिहानः । नीतः स्तुतिं किन्नरकिन्नरीभि-मध्यप्रतीके शुचिमेखलाभृत् ॥१६।। आलिङ्गितानां युवतीजनानां मुक्तास्रजां चारुवरिष्टवक्षः । भूषाभृतो निर्मलता[नु?]षक्ता यत्राश्रयं प्राप्य दुराबभूवुः ॥१७॥ अविप्रलम्भे जलदावलीनां शिखण्डिनां सन्नटनावियोगः । यस्मिन् वरीवत्ति निवर्तिताघे कार्यं यतः कारणसम्भवे स्यात् ॥१८॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 35 यस्योपकण्ठं मुमुचुनितान्तं न नीलकण्ठाः स्वसुहृद्धनस्य । अनीहमाना विरहं कदापि यदुत्तमीया नियतैव मैत्री ॥१९॥ न सस्मरुविन्ध्यगिरिं द्विपेन्द्रा यं प्राप्य तद्भूतबृहत्सुखाप्तेः । विस्मारकं स्याच्च चिरन्तनस्य प्रत्यक्षसौख्यं हि निरन्तरायम् ॥२०॥ उपस्थिता निर्जररामरामा क्रीडां विधातुं प्रतिवल्लभं स्वम् । इतस्ततो भ्रान्तिमिवाशु नेतुं केलीच्छया यस्य गुहाः सिषेवे ॥२१॥ द्राक्षीच्च मा मामपि क: सलज्जा-मितीव कृष्णाम्बुदकैतवेन । यदीयकुण्डे जवनी विधाय समन्ततः स्नाति सुपर्वकान्ता ॥२२।। यत्र स्थितानां विलसन्मणीनां स्थितिर्बभूव क्षितिभृत्किरीटे । सम्यक् तदाहुर्गरिमाम्बुराशौ यत्संश्रितानां पदमग्र्यमेव ॥२३॥ मद्वर्गपक्षक्षिप एष यस्मात् कुर्वेऽहमिन्द्रं तदधः प्रसह्य । उच्चस्तरैः शृङ्गगणैः परीत इत्यूर्ध्वमेधिष्टतरां गिरिर्य : ॥२४॥ मुमुक्षया संसृतिदुःखपंक्तेः कल्याणमाप्तुं व्रतिभिः सिषेवे । यः प्राज्यराज्यान्वितभूमिभृद्वा सम्पत्तिमूरीचकृवाननल्पाम् ॥२५॥ शैलाधिराजस्त्वयमेव विश्व इत्युज्जयन्तः प्रथितः स चक्रे । श्रीनेमिनाथेन पुरैव नीत्वा राजीमती स्त्रीकृपया विमुक्तिम् ॥२६॥ इति पण्डितचक्रचक्रवत्ति पं. श्री राजपालगणिशिष्यरविसागरगणिना कृतं संक्षेपेण कुमारसम्भवरीत्या श्रीगिरिनारवर्णनं सम्पूर्णम् ॥ श्रीरस्तु संघवर्गसा(स्य)॥ _ (२) कश्चित् प्रत्यानयति मनुजो यः प्रियं मामकीनं सर्वाभीष्टं विभवमतुलं तं प्रतीहार्पयामि । व्यक्तीचक्रे सहृदयमनःसंश्रितो वाग्विलासोराजीमत्याऽभिमतसुतयेत्युग्रसेनेश्वरस्य ॥१॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 अनुसंधान-२३ कष्टेनात्मप्रियविरहिता विप्रयोगानुषक्ता नीत्वा घस्रान् किल कतिपयान् हुस्वजालान्तरालैः । स्वच्छच्छायां नयनसुभगामागतां सा ददर्श ज्योत्स्नां भ्राजच्छशधरभुवं शारदी पूर्णिमीयाम् ॥२॥ तामाश्लिष्य प्रिपविरहिणी सा मनाम् भूरिशक्ति कर्तुं प्रीती: कुवलयवनस्योच्चले साधु दध्यौ । वर्व]षा तनुविरहिणोऽप्यत्तिसम्पादयित्री प्राणेशस्य प्रमदवसतेः किं पुनर्विप्रयोगे ||३|| अभ्यायाते जलदवियुभे(ते?) कात्तिकेड्यैस्तया स्राक् स्वप्रीत्यर्थं कुशलकलितं प्रापयिष्यत्युदन्तम् । तारामुक्ताफलपरिचितं हारमुत्कल्य(?)तस्यै सोच्चैः प्रीत्या प्रमुदितमनाः स्वागतं पृच्छति स्म ||४|| प्रातर्खास्तंगतिरपि निशि स्थायिनी षत्क(षत्व?)चन्द्रज्योत्स्त्रोदन्तां सततबलिभिः प्रापणीया जनैः क्व ? । मोहादेवं विरहविधुरा प्रार्थयामास तां सा रागाश्लिष्टाः सहजविकलाः साम्प्रतासाम्प्रते यत् ॥५॥ त्वामुत्पन्नां भुवननयनान्दिनो वेद्मि चन्द्राद् गन्तुं पूज्यत्रिनयनशिरो दिक्षु गन्त्री यथेच्छम् । तस्मादैन्यं त्वयि गतवती मन्त्वभावेन मुक्ता मद्भाप्तो यदुपकुरुतेऽलं यथाशक्ति दीनम् ॥६।। हेतुः प्रीतेः प्रतिकुवलयं चन्द्रिके ! वर्त्तसे त्वं मद्भर्तुस्तज्झटिति गदितुं दुःखिनी मे प्रवृत्तिम् । संप्राप्ता या विरहजलधि कर्मणा द्वारिका ते प्राप्या चामीकरमयजिनप्रौढसौधाभिरामा ॥७॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 त्वामासीनां शशिमणिगृहे कामवत्यः प्रमोदात् पास्यन्त्युच्चैः स्ववसतिमतप्राणनाथा: पदव्याम् । आयाता यां त्वयि न कुरुते का निकाय्येषु पानं यान्या न स्यादहमिव कदाप्याश्रिता विप्रलम्भैः ॥८॥ सौख्यस्पर्शो भवति पवनः प्रेरणाकाम्यया त्वामाशीर्वाद दिशति वचसा तेऽनुकूलश्चकोरः । पारावारः प्रकटलहरीनिर्गतैबिन्दुवृन्दैः प्रीत्या वर्धापनमतितमां ते करिष्यत्यवश्यम् ॥९॥ नित्यं स्वान्ते निजमतसखीभूरिचिन्तां वहन्ती मत्प्राणेशः कजमृदुमनाः सन्मुखं द्रक्ष्यति त्वाम् । कारुण्यार्दा विपदुपगतान् सन्मुखीनं(नान् ?) हि दृष्ट्वा पान्ति प्रीत्यां(त्या) परतनुमतश्चोपकर्तुं समर्थाः ॥१०॥ मोदो(दा)धिक्यं दृशि जनयितुं दर्शनं यत् प्रभूष्णु प्रेक्ष्य प्रेक्ष्यं तदखिलमहासम्मदाप्तेनिदानम् । तारास्तारास्तरुणकिरणाः प्राप्स्यति त्वं सहायीभूता- -पगततिमिराभीशुमद्यातयानाः (?) ॥११॥ आपृच्छयास्वं (च्छय स्वं?) प्रियमुपपुरं दृश्यमानं त्वमेनद् याहि क्षिप्रं सखि ! सह मया प्रेमपात्रीकृतात्मा । वार्तामेषा कुशलकथिका मानयिष्यत्यवश्यं यत्त्वां पश्यत्यतिशुभदृशा प्रत्ययादित्यवेक्ष्याम् ॥१२॥ अध्वानं तं श्रवणविषयं त्वं कुरुष्वालि मत्तः पूर्वं सर्वं तदनु श्रृणु मद्वाचिकामादरेण । यत्राजिह्मे तव जिगमिषा विद्यते रम्यहh क्षेपं क्षेपं श्रममविकलं विग्रहे विग्रहेच्छे ॥१३।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 अनुसंधान-२३ हैमः पातः किमिति भवतीत्युन्मुखीभिर्वशाभिभीतं भीतं चपलनयनैः प्रेक्षितो मुग्धधीभिः । एतस्मात्त्वं प्रकुरु गमनीयास्पदादुद्यम द्राग् स्नेहाधिक्याद् भवति हि यतः कार्यसिद्धिः समग्रा ॥१४॥ एतत्खण्डं स्फुटति समुदः कैरविण्याः प्रतीच्या त्वय्याबद्धस्वकविकि?]चतासिद्धिसौगन्ध्यशालि । धत्ते यत्त्वां विरहवशतो म्लानिमात्मीयकाये जात्यस्त्रीणां वपुरिव मनाक् सौवभर्तुवियोगे ॥१५।। ध्वान्तध्वंसस्तव निशिवशोदम्पतिभ्यामितीष्टा स्मेरश्वी(राक्षी?)भिर्नयननिगमैः प्रेक्ष्यमाणा मिथस्त्वम् । श्रित्वा किञ्चिद् भवनमनयोनित्यसम्पृक्तयोः स्वात् पुण्यात् पश्चात् प्रभवजवतः पश्चिमायाः पदव्याम् ॥१६॥ प्रासादस्त्वां प्रमुदितहृदं मातृमातुः स्वमूर्जा प्रेमस्थानां महिमकलितां धीरयिष्यत्यतीव । तत्पूज्य: स्याद् गिरिशचरणस्रस्तरेणूत्करोऽपीशानेन स्वे शिरसि निहिता या पुनः किं न सा स्यात् ।।१७।। आतिथ्यं ते द्रुतजिगमिषोऽसौ करिष्यत्यवश्यं संसर्पन्त्याः सकलहरिता पुष्कलप्रीतिहेतोः । स्मेरीभूतं श्व(स्व?)मपि जनयेस्तद्गत(तं) कैरविण्या: कक्षं प्रीतिः सुखकृतिपरा स्यान्मिथो ह्युत्तमानाम् ॥१८॥ ---नुं मं त्वयि शुचिरुचौ संश्रितायां विभूषा दृश्या देवव्रजवनितया लप्स्यतेऽसौ गरीयान् । बिभ्रत्कान्तिइतवसुमयीमाश्रितामर्त्यवृक्षं (?) कल्याणाद्रेः शिखरमिव दृग् दर्शनीयस्वरूपम् ॥१९॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 आश्रित्यैनं द्रुतगतिरहोरात्रमेव त्वमस्मादग्रे तीर्णप्रचुरसरणिर्गोमती द्रक्ष्यसीक्ष्याम् । स्नेहं भर्ता सह कृतवती नित्यमामुष्मिकायात् (?) पौलोमी वा त्रिदशपतिना भूरिभूरिप्रभाजा ॥२०॥ भर्तुस्तस्यास्तव च जनकाद्वारमादाय गच्छेमुक्ता युक्तं ननु मम विभोः प्राभृतीकर्तुकामा । यस्माद् भूयःसमयमिलितं स्वामिनं रिक्तपाणिर्न प्रेक्षेत स्वकबहुरते: कामुकः शास्त्रदक्षः ॥२१॥ श्यामा दैर्घ्यं विरहशिथिलीभूतकेयूरवत्याः स्वामिस्तस्यास्तनुवपुरभूदन्नपानारुचिश्च । प्रोच्चैस्तापो वपुषि शशिनो दीधितीभ्यः प्रभूतः सौरभ्येण भ्रमरकृतमुच्चन्दनं वह्रिकल्पम् ॥२२॥ चिन्तापात्रीविगलितसुखा ज्वालितात्मीयकाया निःश्वासौधैर्विधुतशयना त्वद्वियोगेन साऽभूत् । सख्या साधू ललनविषये निर्मितान्यूनमौना बाष्पाम्भोभिः कृषिकजनवत् सिक्तवत्केकवप्रा (?) ॥२३।। संप्राप्य त्वं तमिति कथय प्रौढसौख्यस्य हेतु मच्चित्तस्य प्रियसखि ! मयि प्रास्तरागप्रवृत्तिम् । तस्मिन्नेव ध्रुवधृतधृतौ तत्करस्पर्शमिच्छौ त्यक्तेच्छायामपरजगतीस्वामिनीष्टप्रभेऽपि ॥२४॥ सन्देशीयैरिति सुवचनैर्यस्य नीतं न रागं राजीमत्या हृदयममलाम्भोजसोमालवृत्ति । कारुण्या प्रकृतिसुभगं स्निग्धताश्लिष्टमिष्टं गाम्भीर्येण व्यपगततमश्चक्रवालप्रवेशम् ॥२५।। इति संक्षेपेण मेघदूतरीत्या श्रीनेमिराजीमतीवर्णनं संपूर्णम् ॥श्री।। ★★★ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 अनुसंधान-२३ वाग् प्रसन्नमुखी भूया[त्] विद्यादानकृते मम । नमस्कारार्हपादाब्जा बिभ्रती स्वच्छकच्छपीम् ॥१॥ क्वाऽप्सरःपतिसम्भूतोऽन्वयः क्व ज़डधीरहम् । अस्म्यादित्सुर्महद्वस्तु-मोहानिःस्वपुमानिव ॥२॥ बालः पटुगतिं वाञ्छन्नुपहास्याय देहिनाम् । भविष्यामि यथा पङ्ग-र्मोहाद् वैदग्ध्यधारिणाम् ॥३॥ यद्वाऽस्मिन् सूरिभिर्वंशे जनिते स्तुतिगोचरे । गृहीते वप्र एकांशे जनस्येव गतिर्मम ॥४॥ सोऽहमाजन्मभूयिष्ठज्ञानानामाजगच्छ्रियाम् । आभोग्यकर्मसंसारस्थितीनामाजनूरुचाम् ॥५॥ यथाविध्युपकर्तृणां यथावित्तप्रदायिनाम् । यथावंशं प्रवृत्तीनां यथाभिमतभाषिणाम् ॥६॥ जयार्थं प्रौढसंग्रामकारिणां न्यायधारिणाम् । प्रत्तप्रत्यर्थिवासानां तुङ्गश्रृङ्गाद्रिगह्वरे ॥७॥ असङ्ख्यानेहसं यावद् ऊढनिर्वाणवम॑नाम् । वैराग्यत्यक्तसंसारसम्भोगानां त्रिवर्गिणाम् ॥८॥ इक्ष्वाकूणामहं स्तोष्ये जननं मन्दधीरपि । स्थित्वा तत्कीर्तनैः स्वान्ते स्तोतुमुत्कण्ठयेरितः ॥९॥ कुलकम् ॥ योग्यायोग्यविदः श्रोतुं व्यवस्यन्ति तदुत्तमाः । ज्ञायते यज्जनस्य शै-विद्वत्ता मन्दताऽपि वा ॥१०॥ मारुदेवोऽभवन्नाभि-गरिष्ठगुणगौरवः ।। निःशेषयुग्मिनां मान्यः पर्जन्यः स्वर्गिणामिव ॥११॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 41 तत्कुले बहुल श्रीके पक्षद्वितयनिर्मलः । श्रीमान् वृषभ इत्यासीत् सरसीव सितच्छि(च्छ)दः ॥१२॥ निर्वोढुं निखिलं भारं प्रभूष्णुर्जात्यगौरिव । तारणार्थं भवाम्भोधे-नृणां पोत इवाऽभवत् ॥१३॥ सद्राज्यादिगुणाधिक्यं तन्वता यशसान्वितः । विरेजे व्यापिना व्योम्नि किरणेनांशुमानिव ॥१४|| स्वरूपप्रतिमं शीलं शीलेन प्रतिमान् गुणान् । गुणप्रतिमपूज्यत्वं युग्मिराड् धृतवानसौ ॥१५।। भीमकान्तगुणेनासौ प्रीति-द्वेषकरोऽभवत् । मित्रार्योः पद्म-कुचयोर्भास्तापेनांशुमानिव ॥१६॥ मर्यादायाः प्रजास्तस्य न कदाप्यतिचक्रमुः । लोकत्कल्लोलकान्तस्य वेला इव नदीशितुः ॥१७॥ संपत्त्यर्थं नृणामेवा-ददे तेभ्योऽयमर्हणाम् । यतश्चिन्तामणिः पूजां दातुं गृह्णाति भूरि शम्(भूरिशः?) ॥१८॥ तस्यान्येऽलंकृतीभूताद्वयेनैवास्ति विभ्रमः । अलोभत्वेन कीर्त्या च श्यामीभूतारिवक्त्रया ॥१९॥ तस्याऽज्ञातस्वरूपस्याऽऽकारेण क्रिययाऽनिशम् । इच्छयैवाखिलप्राप्ति-र्देवस्येव श्रियः -- ॥२०॥ आत्मस्तुत्यन्यसंस्तुत्योर्न मुद्द्वेषौ स्वदानधीः । पूर्वपुण्यानुयायित्वादिवास्यासीन्मतिः सना ॥२१॥ निश्चयीभूतदुःप्राप-निःश्रेयससुखोऽपि सन् । विनैव वार्द्धकं धर्मे बभूव रुचिमानसौ ॥२२॥ सर्वसौख्यविधानेन शिक्षा[दा]नाच्च युग्मिनाम् । कल्पद्रुमाधिक: सोऽभूत् तेषां कल्पद्रुसंनिभाः (भः) ॥२३॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुसंधान-२३ दण्ड्यान् दण्डयिता नीत्यै भोग्यकर्मच्छिदे यतः । परिणेता च तस्यार्थ-कामौ सुकृतमेव तत् ||२४|| एवं यो भगवानासीद् राज्य-धर्मास्थितिं दधत् । स्वर्णवर्णसवर्णाभो नम्र[देवा]सुराधिपः ॥२५॥ श्रीहर्षसागरमनोहरवाचकानां पट्टाम्बरे परिलसत्तरणीयितं यैः । श्रीराजसागरविचक्षणशेखराणां तेषां विनेयरविसागरनामकेन ॥२६॥ रीत्या समासेन कुमारसम्भव-श्रीमेघदूताख्य-रघूरुवंश्यया । स्तुतौ जिनौ तौ वृषभाङ्कनेमिनौ, मुक्तिस्पृहाणां कुरुतां शिवश्रियम् ॥२७॥ इति पण्डितचक्रवर्ति पं० श्री राजपालगणिशिष्यरविसागरगणिना कृतं संक्षेपेण रघुवंशरीत्या श्रीऋषभदेववंशवर्णनं सम्पूर्णम् ॥ ★★★ श्रीसर्व्वविदे नमः ॥ श्रीमद्यत्पादजाताः प्रबलबलभृतः शोणिमानं दधाना ऊध्र्वं तिर्यग्(क्) त्वधस्तादिति किल विचरन्त्यंशवः क्ष्माकृपाः । स्थानं यत्रास्य भानोस्तत इममभियोऽधः करिष्यामहे हि श्रीमद्भिः स्वैर्महोभिर्भुवनमविभुवन्नापयत्येष शश्वत् ॥१॥ पोतायन्ते यदीयक्रमणभवविभाः प्रौढमाहात्म्यभाजो नीरन्ध्राः केतुजातैर्विवरपरिचिताः सुश्रियश्च द्विधायि(पि?) । यद्येवं नो कथं तत् सकलतनुमतस्तारयन्त्यञ्जसैताः संसारापारनीरेश्वरगुरुनिरयाशर्मपाको(कौ)घमग्नान् ॥२॥ स्वाहाभुक्को(कौ)शिकाद्याः प्रणमनसमये भूरिभक्त्यानुषक्ताश्चित्ते चित्रं दधाना मुखदशकमधुभ्रान्तिमन्मत्ययुक्ताः । भूयिष्टश्रीनिधीनामिव सुखजननात् प्राणभाजां च येषां Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 43 प्रोद्यद्दीप्रप्रभाढ्यक्रमनखमुकुरक्रोडसंक्रान्तबिम्बम् ॥३|| बिभ्राणैर्यत्क्रमाब्जैः प्रसृमरकिरणान् जघ्निरे लीलयेवाज्ञानस्थाष्णूनि यानि भ्रमररुचिशितीन्यन्धकाराणि नूनम् । तान्युग्रांशोशिष्णून्यपि निबिडरुचि सन्दधानो नृणां नो मार्तण्डश्चण्डभावं दह[ति च]निहिनस्त्यस्तदोषोऽपि पादैः ॥४॥ विघ्नाघो(घ्नौघो)द्यत्तमोघ्नैर्घन?]सुघनघटाघर्मसंघातघातं निर्मोघत्वार्थयार्घ्यं मघवभिरघ—च्च(?) जे संघटेभं (?) । सद्घोषैः श्लाघ्यमानं घनघृणि घटयन्त्यंघ्रियुग्मं यदीयं निर्विघ्नान् विघ्ननिघ्नानतिघनघृणया श्लाघ्यघोषानघोषान् ।।५।। भूयः सत्याश्रितोऽपि प्रमथपतिधिया नास्ति सत्याश्रितश्च ध्वस्तप्रोद्यत्करोऽपि प्रचुरकरगणान् सन्दधानः समन्तात् । कर्ताप्युच्चैर्वृषोक्तेर्व्यपगतवृषवाग्पादपद्मो यदीयो रक्तस्त्यक्तस्मरोऽपि प्रतिभयभयकृनिर्भयत्वप्रदोऽपि ॥६॥ शुद्धा बुद्धिर्गुणौघः श्रयति हि नितरामेतदेवानुकम्पाप्रोद्यद्गानं [च?]तस्मादहमपि विलसद्वाञ्छितस्थानहेतुः । भावादेतद् भजामि प्रमुखशमरसो नूनमिद्धं यदीयं स्वातारण्यं शरण्याश्रयणमिति यदध्यास्तविध्वस्तशङ्कः ॥७॥ सिद्धिं यावद्विशुद्धां परमतमरमाप्राप्तिहेतोर्जनौघो व्याचष्टे पूजनीयान् विकसितकुसुमैः प्रार्थनामन्तरेण । येषां पादान् सपादानखरुचिविलसन्मञ्जरीन् कल्पवृक्षान् जङ्घोऽध्वत्कन्धबुघ्नोगतलसदरुणाभाङ्गुलीपल्लवाढ्यान् ॥८॥ क्षेमोद्यदृक्षकक्षेक्षणकरजलदानक्षिलक्षैः समीक्ष्यान् साक्षाद्रक्षोविपक्षक्षपणबलवत: क्ष्मातिरक्षाक्षमाशान् । प्रेक्षास्थान् मोक्षकांक्षोर्यदमलचलनान् भिक्षुलक्षा नमन्ति क्षोणी क्षान्त्या क्षिपन्तः क्षणिक--- रस्त्रीकटाक्षाक्षिताक्षाः ॥९॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 अनुसंधान-२३ प्राज्यैश्वर्ये निषण्णास्त्रिदशनमसिताश्चक्रलक्ष्मी दधानाः प्रक्षिप्तारिष्टकष्टाः शुचिरुचिकमलास्वामिनो नन्दकाभाः । विभ्राजन्ते यदीयाः परमतमपदाश्चक्रिणो वा क्षमायां तन्वाना वैनतेयश्रियमहितवृषा(षो)त्कर्षमोषिप्रतापाः ॥१०॥ पादद्वन्द्वाङ्गलीसत्किशलयकलितौ बभ्रतुर्मानवानामन्यूनश्रीफलाप्ती विबुधजनमतच्छायया सेव्यमानौ । हस्तान्निर्गच्छदच्छच्छविनिचयवनैनित्यसंसिच्यमानौ यत्पादौ पादपौ वा शुचिरुचिनिचिताम्भोजपुञ्जालवालौ ॥११॥ प्रोद्यद्विद्याद्यविद्याधरनिकरमुदः सद्य उद्योतविद्यानन्द्यावर्तेरनिन्द्यधुपतिहतविभा उद्यमासाद्यमद्य । द्युत्युद्यानं प्रसद्य क्रमणजलधरश्चिन्वते द्राग् यदीया द्यां धुत्योद्योत्यमुद्यद्द्युसदधिपमता विधुदुद्योतजेत्र्याः ॥१२॥ प्राज्ञैर्येषां शशङ्के क्रमणरुचिरिति भ्राज्यशोकद्रुमस्य (?) च्छाया विस्तारिता किं गुरुभिरिति परैर्मा व्यघातापजाभूत्(?) । शुद्धान्तर्भावभाजामखिलतनुमतां सिद्धिसिद्धाध्वना द्वे निर्वाणात् पूर्वदेशप्रगमकृतधियां शुद्धबुद्धय[ध्व]गानाम् ॥१३॥ मित्रत्वेनापि युक्तं चरणयुगमदोऽन्यस्वभावं यदीयं केनाप्यप्रास्तशस्तद्युतिजननयनैर्दृश्यमानस्वरूपम् । बिभ्रन्नो चण्डभावं त्विषि च कुवलयं प्रापयत्युग्रतोषं शोभामम्भोरुहाणामपहरति करोत्युद्वचं कौशिकस्य ॥१४|| तानन्तानन्दपंक्तेः सदसि विदधतावादरेणा[दरेण?] कालं कालं क्षिपन्तौ प्रतिभयभयदं मानवानां नवानाम् । कामं कामं जयन्तौ जगति घटजवद्वासमुद्रं समुद्र दूरे दूरेपसोवो वसतिमसुभृतां साधयन्तौ धयन्तौ ॥१५॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 माञ्जिष्ठीभूतभावो ध्रुवमिति रुषया प्रेषयामास रागो यत्पादोद्भूतभानिर्गमनकपटतो मार्गणौघान् प्रगाढम् । प्रोद्यत्प्रद्योतनाद्यस्खलितगुरुरुचीन् निभि तिष्ठत्ययं किं कृत्वाऽधः पादयोर्मां निरतिशयशम श्रीसमालिङ्गिताङ्गः ॥ १६ ॥ प्रौच्चैः प्राचीनबहिर्निचयरुचिचितिश्चित्तचार्वेकचेष्टचण्डाच्चिर्वत्र चर्च्यः शुचिवचनविपश्चिच्चयैर्निश्चयार्च्यः । प्रोचे वाचाप्रपञ्चैः शुचिशुचिरचनो यत्क्रमाच्चिर्गुणो नोचार्वाचारोक्तिचञ्चप्रवचनचतुराचार्यचं (च) कस्य चञ्चत् ॥१७॥ इत्यन्तः क्रोधरुद्धा दधुरपरिमितं द्वादशापि प्रतापे रक्तोष्णत्वं पतङ्गा ध्रुवमभिभवितुं यत्क्रमाच्चिर्विभूषाम् । तान् जेष्यावोऽस्य केतून् वयमपि परितश्चेदभीशून् सतां नः पद्धयां भूभृद्गुरुभ्यां भ्रमति भृशमभीभ्रंशयन् हेलयाऽयम् ॥१८॥ स्फूर्ज्जन्मुक्ताफलाभाच्छिशिररुचिसमुल्लासभर्तुर्यदीयात् पादद्वन्द्वात् पयोधेरिव लहरिरिव द्युद्बहिर्निर्जगाम । भूयः शैत्यानुषक्ता बहुलवसुमती व्यश्नुवाना स्फुरन्ती प्रख्यातादच्युतश्रीवरवसतितयाशेषकान्त्योपगूढात् ॥१९॥ मन्ये धात्रेति येषां शुभजननपटू भ्राजिनौ निर्मितो (तौ) स्तः पादावालम्बनाहौं गुणमितजगतस्तारणार्थं समर्थों । प्रोच्चैः पोतायमानौ लसदसुखकृतिप्रौढसंसारसिन्धौ मा पतत्तस्त्वभावात् कलिकलिलभराक्रान्तमत्यन्तमेतत् ॥२०॥ भूयः कल्पप्रभास्वत्फलदपदतया चारुचामीकराद्रिश्चञ्चच्चेद्भानुकारं कुवलयवरमुन्निर्मितित्वेन नित्यम् । येषां सत्पादपद्मक्षितिपतिरतिकृद् रक्षयोर्व्याः - पित्वा ( ? ) दुर्गे स्वर्गापवर्गाध्वनि सदरितया स्पन्दनं सस्यदागः ( ? ) ॥२१॥ 45 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 अनुसंधान-२३ कामं कामाशोत्थैररुणिममिलितैः प्रग्रहै: सन्दधानैभूषां भावं जनानां सदसि किशलगन्धोद्धर्वदेशेऽवदातैः । वर्णैः पुष्पाग्यमाल्यस्थितमिति विलसद्विभ्रमस्य प्रदानात् यत्पादैः पारिजातक्षितिरुहमहिमाहानिमानीयते हि ॥२२॥ पादद्वन्द्वं पदीयं कजमिव शुशुभे भूरिसौरभ्यपृक्तं सन्मूर्ध्यारोहणाहँ शुचिविकचतया चारुरुक् चीय[मानम्?]। प्रोच्चैः प्रेम्णा प्रणामप्रवणतम इह प्राप्नुवन्ति प्रमोदं प्रौढं दीप्रप्रकारं प्रसृमरभविकाः प्राणिनः प्रेक्षयाढ्याः ॥२३॥ येषां प्राज्ञप्रभौघान् प्रियतमचरणान् क्षमाप्रणम्यान् प्रणम्य प्राज्यप्रौढप्रमादप्रतिभयनिधनप्राप्तदीप्र[प्र]तापान् । येषां पादारविन्दं सबलमपि भियं प्रापयत्पुष्पकेतु (तुं?) भीरुं वा भूम्यधीशं क्षतरुचिकमलालिङ्गनत्वेन नित्यम् ॥२४॥ विष्वक्सेनाय मातं प्रमथपतितुलं शङ्करत्वात् क्षमापा (?) उज्जृम्भाम्भोजगर्भश्रितमिति परमेष्ठीमते निष्ठितार्थे । भक्तैवं संस्तुतास्ते जिनशतकमहाकाव्यनाम्नः किलाद्यैः पादैः कारुण्यपुण्यास्त्रिजगति गुरवश्चारुनिःश्रेयसाप्त्यै । कुर्वन्तु श्रीफलाप्ति प्रणिपतनकृतं नालिकेरद्रुवद् द्राग् नित्यं सत्यं गुणौधं वपुषि निद[ध]ता भ्राजमाने(नैः?) कलाभिः ॥२६।। इतिश्री ६ राजपालपण्डितशिष्य गणिरविसागरसमस्थित जिनशतक महाकाव्य प्रथमपरिच्छेदाद्यपदगुरुवर्णनं संपूर्णम् ॥ शुभं भवतु ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्यार ध्यान विचार लेश श्री विक्रमपुर नगरमा (हालना बिकानेरमां) वि.सं. १७९९ना वैशाख सुद छठना दिवसे भोज नामना विद्वान द्वारा लखायेल 'च्यार ध्यान विचार लेश' हस्तप्रत २ पानांनी छे. अक्षरो सुवाच्य छे अने बन्ने पानामां वच्चे एकसरखी डिझाइन उपसे ते रीते लखाण सुशोभित छे. सं. डॉ. मालती के. शाह जैन परंपरामा रजू थयेल ध्यानना चार प्रकारनुं वर्णन आ प्रतमां रजू थयेल छे. १. आर्तध्यान, २ रौद्रध्यान, ३. धर्मध्यान अने ४. शुक्लध्यान. आ दरेक ध्यानना चार-चार पायानी समजूती आप्या बाद गुरु- - शिष्यना संवादरूपे केटलीक शंकाओनुं समाधान करवामां आवेल छे. आ सिवाय एक अन्य दृष्टि पण ध्यानना चार प्रकार अहीं रजू कर्या छे. १. पदस्थ, २. पिंडस्थ, ३. रूपस्थ, ४. रूपातीत आ चारेय प्रकारनां ध्यान मोक्षप्राप्ति माटे कारणभूत छे. धर्मध्याननी चार भावना रजू करी छे. १. मैत्री, २. प्रमोद, ३. मध्यस्थ अने ४. दया. आ प्रतना अन्त भागमां हिन्दीमां चार दोहा आपेल छे. तेमां त्रीजो अने चोथो प्रसिद्ध हिन्दी कवि बिहारीना छे. आ दोहा अहीं शा माटे आप्या छे ते ख्यालमां आवतुं नथी. आ चारेयना अर्थ आ प्रमाणे छे. २. १. व्यक्ति देखीती क्रिया एक करे छे अने तेनुं फळ एटले के तेना मननो भाव जुदो होय छे. जेम के पतिने ज्यारे पत्नीने बोलाववी होय त्यारे ते नाम पोताना बाळकनुं बोले छे, पण तेना मनमां बाला एटले के पत्नीने बोलाववानो भाव छे. लालस (एटले लालच) लाळ, लबाडता आ त्रण लला जेनामां छे तेना हाथमां लाकडी आवी गइ छे (अर्थात् ते वृद्ध थइ गयो छे) तोपण तेना हैयामां लोभ छे. आवी वृद्धावस्था (वडपण) बाळपण ( ललपण) जेवी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 ज छे. ३. आ दुनियामां जेनामां बुराई वसे छे तेने ज सन्मान मळे छे. बधा ग्रहोमां जे सारा ग्रहो छे तेने भलो भलो करी छोडी देवामां आवे छे अने राहु, केतु जेवा खोटा ग्रहो आपणने नडे छे तेथी तेने जप, दान वगेरेथी रीझववामां आवे छे. एटलेके सज्जन सारो छे तेनी कोइ नोंध पण लेतुं नथी अने दुर्जनथी सौ बीवे छे तेथी तेने जप्या करे छे, नम्या करे छे. ४. एक कनक एटले धतुरो अने बीजो कनक एटले सुवर्ण. सुवर्णमां धतुरा करतां सोगणी मादकता छे. धतुरो खावाथी तनमां मादकता आवे छे, ज्यारे सुवर्णने तो मात्र मेळववाथी मादकता आवी जाय छे. पोतानी पासे रहेल सुवर्णने जोवा मात्रथी माणसमां मद के अहंकार आवी जाय छे. अनुसंधान - २३ आ प्रतनी गुजराती भाषा मारुगुर्जर शैलीनी छे. तेमां अपभ्रंश, राजस्थानी, व्रज भाषानी छांट छे. कर्तानुं नाम 'कर्ता' तरीकेना उल्लेखथी प्राप्त नथी थतुं, परंतु 'भोज' नामना लेखक ते ज कर्ता होय तेवी शक्यता नकारी शकाती नथी. श्री गुरुभ्यो नमः ॥ हिवइ चारि ध्यान कहइ छइ । तिहां ध्यानरा ४ भेद छइ । आर्तध्यान १ रुद्र ध्यान २ धर्म ध्यान ३ शुक्लध्यान ४ । तिहां पहिला २ ध्यान अशुभ छइ । अनइ बे ध्यान शुद्ध छइ । तिहां आर्तध्यान कहइ । मनमइ आहट दोहटना परिणाम ते आर्तध्यान कही |१| जे आर्तध्यानना पाया ४ छइ । पहिलो इष्टवियोग जे इष्ट कहतां वल्लभ भाई मित्रसयण मातापिता स्त्री पुत्र धन प्रमुखनो वियोग थयां जे चिंता सोग विलाप करइ ते इष्टवियोग आर्तध्यान कहीजइ |१| बीजो अनिष्टसंयोग कहतां अनिष्ट भुंडा दुःखना कारण दुसमण दलिद्र कुछोरु मिल्यां जे मनमइ दुःख चिंता उपजइ ते अनिष्टसंयोग आर्तध्यान कही |२| तीजो रोगचिंता आर्तध्यान जे शरीरमइ रोग उपनां दुःख करइ चिंता Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 घणी करइ ते रोगचिंता आर्तध्यान कहीजइ |३| चउथो अग्रशोच आर्तध्यान. जे मनमइ आगला कालरो सोच करइ । जे इण वरस ए काम करस्यां आवतइ वरस उ काम करस्यां इम चितवइ । अथवा दान शील तपनो फल मांगइ जे में इण भवमइ ए तप कीधो तेहनो मोनइ चक्रवर्ति इंद्रनी पदवी होज्यो । ए आगला भवनी वांछा ते पिण अग्रशोच आर्तध्यान जाणवो । 49 ए आर्तध्यानरा च्यार भेद कह्या । ए आर्तध्यान तिर्यंच गतिनो कारण छइ । गुणठाणा पांच तथा छ तांई आर्तध्यानना परिणाम उपजइ । हिवरं रौद्रध्यान कहइ छइ । रुद्र कहतां महाकठोर परिणाम चतवइ ते रुद्रध्यान कहीजइ । ते रुद्रध्यानना पाया च्यार छइ । हिंसानुबंधी १ मृषानुबंधी २ चोरानुबंधी ३ परिग्रहरक्षणानुबंधी ४ । ए च्यार पायाना नाम कह्या । हिवर पहिलो हिंसारौद्रध्यान कहइ छइ । जे जीव हिंसा करी हर्ष पामइ । अथवा हिंसा करता देखी खुशी होवइ । अथवा संग्रामनी वातनी अनुमोदना करइ ते हिंसारुद्रध्यान कहीजइ |१| मृषानुबंधी रौद्रध्यान जे कूड बोलइ मनमइ हर्ष वेदइ । जे मइ किसो एक कूड केलव्यो छइ । जे माहरइ कूडरी खबर किणहीनई पडी नही । एहवो मृषारूप परिणाम ते मृषारुद्रध्यान कहीजइ |२| तीजो चौर्यरुद्रध्यान जे चोरी करी ठगाई करी मनमइ खुसी होवइ । जे मुझ सरिखो जोरावर कुण छइ । जे हूं पारका माल खाउं । एहनउ जे परिणाम ते चोररुद्रध्यान जाणिवो | ३ | हिवइ चउथो परिग्रहरक्षण रुद्रध्यान । जे परिग्रह धनधान्य परिवार घणो वधवारी लालच होवइ । जे धनरइ अनई कुटंबरइ वासतइ हरकिसो पाप करइ । अथवा परिग्रह घणो जुड्यां अहंकारमइ मगन ते परिग्रहरक्षण रुद्रध्यान कहीजइ |४| ए रुद्रध्यानरा चार पाया कह्या । ए रुद्रध्यान नरकगतिनो कारण छइ । महा अशुभ कर्मनो कारण छइ । ए रुद्रध्यान पांचमइ गुणठाणइ तांई Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 अनुसंधान-२३ छड् । अनइ छठइ गुणठाणइ पिण एक हिंसा रुद्रध्यानना परिणाम किणही जीवनइ छइ । हिवइ धर्मध्यान कहइ छइ । धर्मनो चीतवणो ते धर्मध्यान कहीजइ । ते धर्मध्यानरा पाया च्यार छइ । आज्ञाविचय १ अपायविचय २ विपाकविचय ३ संस्थानविचय ४. तिहां पहिलं आज्ञाविचय कहइ छइ । जे वीतरागदेवनी आज्ञा तहति करि मानइ सरदहइ एतलइ भगवंतइ द्रव्य छनो स्वरूप नय-प्रमाण-निक्षेपा सिद्धस्वरूप निगोदस्वरूप जिम कह्या तिम सरदहइ । वीतरागनी आज्ञा नित्य स्याद्वादपणइ निश्चय व्यवहारपणइ मानइ सरदहइ ते आज्ञाविचय धर्मध्यान कहीजइ ११। हिवइ बीजो अपायविचय धर्मध्यान कहइ छइ । जे जीवमइ अशुद्ध पणइ कर्मसं संसारनावस्थामइ अनेक अपाय कहतां दूषण छइ । अज्ञान रागद्वेष कषाय आश्रव ए माहरा नही हूं इणांसूं न्यारो छु । अनंत ज्ञानदर्शनवीर्यमयी शुध-बुधि अविनासी छु । अज अनादि अनंत अक्षय । अक्षर अनक्षर अचल अकल अमल अगम अनामी अरूपी अकर्मा अबंधक अनुदय अनुदीरक अजोगी अभोगी अरोगी अभेदी अवेदी अच्छेदी अखेदी अकषायी असखायी अलेशी अशरीरी अभासी अनाहारी अव्याबाध अनवगाही अगुरुलघु अपरिणामी अनिद्री अप्राणी अयोनी असंसारी अमर अपर अपरंपर अव्यापी अनाश्रित अकंप अविरुद्ध अनाश्रव अलख असोक लोकालोकापायक शुद्ध चिदानंद माहरो जीव छइ । एहवो जे ध्यान ते अपायविचय धर्मध्यान जाणवो । हिवइ विपाकविचय धर्मध्यान कहइ छइ । जे एहवो जीव छइ तो पिण कर्मवसइ दुःखी छइ ते कर्मनो विपाक चीतवइ । जे कारण ग्यानगुण ग्यानावरणी कर्म दाब्यो । दर्शनावरणी कर्म दर्शनगुण दाब्यो छइ । इम आठ कर्मइ जीवरा आठगुण दाब्या छइ । एतलइ ए संसारमइ भमतइ जीवनइं सुख दुःख ते सर्व कर्मना कीधा छइ । तिहां सुख उपनां राचवो नही । दुःख उपनां दलगीर होणो नही एहवो जे परिणाम ते विपाकविचय धर्मध्यान जाणवो ।३। हिवइ संस्थानविचय धर्मध्यान कहइ छइ । जे चउदह राजमान लोक Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 51 छइ । तेहनउ स्वरूप विचारइ ते कहइ छइ । ए लोक चउद राज उंचो छइ । तिणमइं सात राज अधोलोक छइ । अनई विचइ अढारइसइ योजन मनुष्यलोक त्रिछो लोक छइ । ते उपरि कांइक उंणऊं सात राज ऊर्ध्वलोक छइ । ते मांहि देवता वैमानिक सर्व अनइ उपरि सिद्धसिला सिद्धक्षेत्र छइ । इम लोकमान छइ । ए लोकनो संस्थान वैशाख छइ । अनंतइ कालमई आपणइ जीवइ संसार भमतइ सर्वलोक जन्ममरण करी फरस्यउं छइ । एहवउं जे ध्यान ते संस्थान-विचय धर्मध्यान कहीजइ । ए धर्मध्यानना च्यार पाया कह्या। ए धर्मध्यान चउथा गुणठाणाथी मांडी सातमा गुणठाणा तांई छड् । हिवइ शुक्लध्यान कहइ छइ । शुक्ल कहतां निर्मल शुद्ध परिणाम आलंबन विना ते शुक्ल ध्यान कहीजइ । ते शुक्ल ध्यानरा पाया च्यार छइ । पृथकत्ववितर्क सप्रविचार ।१। एकत्ववितर्कअप्रविचार २ सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति ३ । उच्छन्नक्रियानिवृत्ति ४ ए चार भेद छइ । तिहां पहिलो पृथकत्ववितर्कसप्रविचार । जीवसुं अजीव जुदा करणा वितर्क कहतां गुणपर्याय विचारइ । सप्रविचार कहतां आपरी सत्ता ध्यावइ ए पृथकत्ववितर्कसप्रविचार जाणवो । ए पायो आठमइ गुणठाणइ सूं मांडी इग्यारमइ तांई छइ ।१।। हिवइ बीजो एकत्ववितर्कअप्रविचार कहइ । जे जीव आपरा गुणपर्यायरी एकठा करी ध्यावइ । जीवना गुणपर्याय जीवसुं एक ज छइ । अनइ माहरो जीव सिद्धस्वरूप एक छइ । एहवउं ध्यान ते एकत्ववितर्कअप्रविचार जाणवो । ए पायो बारमइ गुणठाणइ ध्यावइ । इण ध्यानसूं घनघाती च्यार कर्म खपावइ । निर्मल केवलज्ञान पामइ । पछी तेरमइ गुणठाणइ ध्यानंतरिका तेरमइरइ अंतर चउदमइ ते दोय पाया ध्यावइ । तिहां त्रीजो सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती कहइ छइ । सूक्ष्म मन वचन कायाना योग रूंधइ । शैलेशीकरण करी अयोगी थाय ते जे अप्रतिपाती निर्मल परिणाम ते सूक्ष्म प्रतिपाती ध्यानं जाणवो । इहां सत्ता पच्यासी प्रकृति रही ते मांहि बहुत्तरि खपावइ । चउथउ उच्छिन्नक्रियानिवृत्ति कहइ छइ । जे योगनिरोध कीयां पछी तेरइ प्रकृति खपावीनइं अकर्मा थाय । सर्व क्रियासू रहित थायइ ते समुच्छिन्न Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 अनुसंधान-२३ क्रिया शुक्लध्यान कहीजइ । ए ध्यान ध्यावतां अवगाहना देहमानमई तीजो भाग घटावइ । इम शरीर छोडि इहांथी सात राज उपरिलोकनई अंतइ जाय सिद्ध थाय । इहां शिष्य पूछइ छइ । जे चउदमइ गुणठाणइ तो अक्रिय छइ तो सात राज ऊंचउ गयो ते सिद्धई ए क्रिया किम करइ छइ । तिहां उत्तर कहइ छइ । जे सिद्ध तो अक्रिय छइ परं प्रेरणाइं तूंबीनइं दृष्टांतरं जीवमई चालवारो गुण छइ । धर्मास्तिकायमइ प्रेरणा गुण छड् । तिणई कर्मरहित जीव मोक्ष जाइ । लोकनइ अंतइ जाय रहइ । तिहां कोई पूछसी जे आगइ उंचउ अलोक तिहां किम जावइ नही। तिहां कहइ छइ । जे आगइ धर्मास्तिकाय नही तिणइं न जाइ । अधो नीची गति किम न जावइ । तिहां कहइ कर्मरइ भारतूंरहित छइ हलको छइ । तिणइ नीचो न जावइ । डाबो जीमणो न जावइ । जे कारण प्रेरक कोई नही । अरु कंपइ नही जे अक्रिय छइ । कोई पूछसी जे सिद्धनई वली कर्म क्यु न लागई । तिहां कहइ जे कर्म तो अज्ञानसूं अनई योगसूं लागइ छइ । ते सिद्ध जीवनइ अज्ञानयोग खखाव्या (खपाव्या) तिणई कर्म लागइ नहीं । ए च्यार ध्याननो अधिकार कह्यो । हिवई वली बीजा च्यार ध्यान कहइ छइ । पदस्थ १ पिंडस्थ २ रूपस्थ ३ रूपातीत ४ । हिवइ पदस्थ ध्यान कहइ छइ । जे अरिहंत सिद्ध पंच पदना गुण चीचीतारी ध्यान करणो ते पदस्थ ध्यान कहीजइ ।१। हिवइ पिंडस्थ ध्यान कहइ छइ । जे पिंड कहतां शरीर ते माहि रहाउं छइ ए आपणो जीव तेहमइ अरिहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु घणेरा गुण सर्व छइ एहवउं जे ध्यान ते पिंडस्थ ध्यान जाणिवो ।२। ___ हिवइं रूपस्थ ध्यान कहइ छइ । जे रूपमइ रह्यो थको पिण ए माहरो जीव अरूपी अनंत गुणी छइ एहवो जे ध्यान ते रूपस्थ ध्यान जाणवो। ए तीन ध्यान धर्मध्यानमइ जाणवा । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 53 हिवइ रूपातीत ध्यान कहइ छइ । निरंजन निर्मल संकल्प विकल्परहित अभेद एक शुद्ध सत्तारूप ध्यान ते रूपातीत ध्यान जाणवो । इहां मार्गणा गुणठाणा नय प्रमाण मति आदिक ज्ञान क्षयोपशमभाव सर्व छांडवायोग्य थया। एक सिद्धना मूलगुण ते ध्यावइ । ए रूपातीत ध्यान जाणवो । एतलइ मोक्षना कारण ध्यान ते कह्या ।। हिवइ च्यार भावना धर्मध्यानरी कहइ छड् । मैत्री भावना सर्व जीवसूं मैत्रीभाव चीतवणो । सर्वनो भलो चाहइ । पिण बुरो किणरो चीतवणो नही ए मैत्री भावना ११ प्रमोदभावना । गुणवंत अनइ ज्ञानादि गुण उपरि राग ते प्रमोदभावना २॥ मध्यस्थ भावना जे धर्मवंतसूं राग अनइं अधर्मीसूं राग नही द्वेष पिण नहीं ते मध्यस्थ भावना ।३। दया भावना जे सर्व जीव आप सरिखा जाणी दया पालइ हिंसइ नहीं ते दया भावना ४। ए च्यार भावना कही ॥ इति च्यार ध्यान विचार लेशः संपूर्णः । श्रीमद् विक्रमपुरवरेऽलेखि भोजेन । संवत् १७९९ । वैशाख सुद षष्ठी तिथौ ॥ श्री रस्तु ॥ क्रिया और फल और ही । होत और ही भाय । बालक नाम पुकारकै । बाला लेत बुलाय ।। लालस लाल लबालता लला लला पण तीन । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 अनुसंधान-२३ कर लाकरी हिय लोभता । ललपण वडपण कीन ।२। वसइ बुराई जास तन । ताहीको सनमान । . भलो भलो करि छोडीयइ । खोटे ग्रहे जपदान ।३। कनक कनकते सो गुनौ । मादकता अधिकाय । इहिं खायें बौरात तन । उहिं पायै बौराय ।४। श्रीः स्तात् । वाचनावसरे मुखे यत्नाकरणीयेति रहस्यम् ॥ कठिन लागता शब्दोना अर्थ आहट दोहट- अघट-दुर्घट परिणाम विचार सयण स्वजन दुसमण कालरो सोच कालनो शोच(चिन्ता) मोनइ मने ताई सुधी पाया कूड कूट-प्रपंच धनरइ अनइं धनने अने कुटुंबरइ वासतइ कुटुंबने वास्ते हर किसो हरेक-कोईपण दुश्मन भेद Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 55 जुड्यां भेगो को गुणठाण गुणस्थान--आत्माना गुणविकासनी भूमिका तहति तथास्तु-'ते प्रमाणे ज छे' एम सरदहइ श्रद्धा करे द्रव्य छनो जैनदर्शनमा स्वीकृत छ द्रव्योनुं नय-प्रमाण-निक्षेपा जैन तत्त्वज्ञानना पदार्थोनां नाम छे. सिद्धस्वरूप मुक्त जीवनुं स्वरूप निगोदस्वरूप अतिअव्यक्त चेतनावाळी जीवनी अवस्था ते निगोद. स्याद्वाद अनेकान्तवाद निश्चय व्यवहार प्रत्येक वस्तुने जोवानी बे जैन दृष्टिः निश्चयनय, व्यवहारनय संसारनावस्थामइ संसारनी अवस्थामां इणांसू एथी शुधबुधि शुद्ध बुद्ध अबंधक अनुदय कर्मना बंध, उदय, उदीरणा-रहित अनुदीरक अवेदी वेद विनाना असखायी सखा-मित्रसंबंधरहित अलेशी लेश्यारहित अनवगाही अवगाहनारहित लोकालोकापायक लोक-अलोकने छोडनार चउदउ राज मान १४ 'राज' ना मापवाळो त्रिछो तिर्लो-मध्य वैशाख संस्थान केड पर बे हाथ राखीने ऊभेला मनुष्यनो आकार पोतानी ध्यानंतरिका शुल्लध्यानना ४ भेदनो मध्यान्तर योग रंधइ व्यापार बंध करे आपरी Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 शैलेशीकरण अयोगी अप्रतिपाती अवगाहना धर्मास्तिकाय अंतइ जाय आगइ चीचीतारी अनुसंधान-२३ आत्मानी निश्चल अवस्था योग विहोणो आव्या पछी टले नहीं तेवो ऊंचाई 'धर्म' नामक जैनदर्शनस्वीकृत पदार्थ अंते जईने आगे-आगळ विचारी(?) रूपमां-पुद्गलमां ८, श्रीपाल फ्लेट्स, कृष्णनगर, देर रोड, भावनगर (गुजरात) ३६४००१ रूपमइ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलदेवमुनिनी सज्झाय सं. डो. रसीला कडिया विभाग (१) प्रतिपरिचय : माप : १०.५ सें.मि. x २६ सें.मि. अक्षर संख्या = ३९ पंक्ति संख्या प्रत संख्या = १ स्थिति = जीर्णप्राय आजुबाजु हांसिया माटेनी जग्या छोडेली छे पण लीटीओ दोरेली नथी. अक्षरो मोटा, चोख्खा, सुंदर अने एकसरखा छे. प्रारंभे भले मीढुं करेल छे. अंते रचनाकार के लिपिकारना नामनो उल्लेख नथी. संवत पण लखी नथी छतां अंदाजे आ प्रतनो समय १८मो सैको गणी शकाय तेम छे. 'सकल' ए छेल्ली कडीमां आवतो शब्द कर्ता- सूचन करनारो होय तेम लागे छे. प्रस्तुत अज्झाय तपस्वी महामुनि बलदेवमुनि विशे छे. तुंगिआ शिखरथी शोभता वनमां तेओ दीक्षा लईने तप करे छे अने क्यारेक कोई कठियारो कोईक दिवस भोजन आपे त्यारे ज पारणुं करे छे. वनमां जंगली प्राणीओ बोध पामे छे अने 'संग तेवो रंग' न्याये आ पशुओमांथी कोईक श्रावक बने छे. कोईक अनशन करे छे. कोईक मांस छोडे छे. कोईकने जाति-स्मरण ज्ञान थाय छे. मासखमणने पारणे मुनि ज्यारे नगरीमां गोचरी लेवा जाय छे त्यारे कूवा-कांठे ऊभेली कामिनी रूपवान मुनिने जोई एवी तो मोहित थई जाय छे के भान भूलीने घडाने स्थाने पोताना पुत्रने कूवामां पाणी माटे उतारे छे ! मुनि चेती जाय छे, पोतानुं रूप वनमां पशुओ साथे ज सारुं छे एम विचारी Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 वनमां पाछा फरे छे. आ समये वनमां लाकडां कापनार भक्तिभावपूर्वक पारणं करावे छे. पासे उभेलो नील मृग आ निरखी रह्यो छे, एवामां झाडनी डाळी पडे छे अने तेनी नीचे कठियारो, मृग तथा मुनि दबाई जायछे. पुण्यनुं भाधुं लई तेओ पांचमा देवलोके पहोंचे छे. आठ कडीनी आ सज्झायमां आम बलदेवमुनिनुं जीवनवृत्तांत सुंदर ते निरूपित थयुं छे. अनुसंधान - २३ विभाग २ बलदेव महामुनि तप तपइ वनि, लेई संयमभार रे दारु- छेदक कबहइ को दीइ पारणइ लीइ आहार रे माई तुंगिआगिरि सिखरि सोहि ॥१॥ राम मुनि सुख कंद रे, वाघ मृग शशा सिंघ, चीतर बुझवइ पशुवृंद रे ॥२॥ तुंगि केई मृगपति हुया श्रावक, केइ अणसण लेइ रे, धरिय समकित मांस छांडि, जाति समरण केइ रे ॥३॥ तुंगि रूप सुंदर अति पुरंदर, चाल्यउ नयर मझारि रे मास पारणे गोचरी जब, पेखिउ किनइ नारि रे ||४|| तुंगि कूप कंठई मदन मोही, नयन मषि ना लेइ रे. कुंभ चूकी पुत्र पास्या, कूया भीतरि देइ रे ||५|| तु० चतुर चिंत रूप मेरु, कामिनी मृग पासि रे, गोचरीकुं नयरि नाउं भला मुज वनवास रे ॥६॥० मास पारणि आह (हा ) र दइ तब, रथिक भगति विशाल रे हरिणला गुण नीला निरखइ, चंपिआ तरु डालि रे ||७|| तु० रथकार मृग बलदेव मुनिसुं, तब चल्या संबल लेई रे पंचमि सुरलोकि पोहता, सकल भवि सुख देई रे ||८|| तु० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 59 दारुछेदक शशा इति सज्झाई संपूर्ण विभाग-३ अघरा शब्दोना अर्थ लाकडां कापनार ससलुं दीपडो बोध पमाडवो कूवा कांठे निमिष अथवा पलकारो दबाई गया चीतर बुझवई कूप-कंठइ मषि चंपिआ संबल भाएं Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोठारीपोळना चिन्तामणि पार्श्वनाथनुं स्तवन सं. डो. रसीला कडिया प्रतपरिचय : प्रत संख्या =१ माप =११.५ से.मि. x २३ से.मि. पंक्ति संख्या =२१ अक्षर संख्या =२० स्थिति =उत्तम आजुबाजु हांसिया माटेनी जरा पण जग्या छोडेली नथी, के हांसियालीटी दोरेली नथी. लखाण अहीं उपरथी नीचे तरफनु ऊभुं छे. प्रारंभे भले मींडं करेल नथी पण स्तवन शरू करतां पहेलां वच्चोवच्च उपरना भागे श्री लखेल छे. छेल्ली-आठमी कडीमां अक्षरो घणा ज मोटां अने छूटां छे. बीजा कोईना हाथे ए कडी लखाइ होय तेम लागे छे. अक्षरो बाकीना मध्यम कदना छे. कडीने अंते संख्या पहेलां अने पछी जग्या छोडेली छे पण दंड कर्या नथी लखाण छेकछाकवाळु छे. प्रस्तुत स्तवन राजनगर (अमदावाद) मध्ये झवेरीवाड विस्तारमां आवेल श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथना जिनालय विशे एक ऐतिहासिक माहिती आपे छे. शेठ नथमल शाहे संवत १८४५मा माघ वद ४ने गुरुवारना रोज श्रीपार्श्वनाथने तख्ने बेसार्या हता अर्थात् प्रतिष्ठा थई हती. आ पछी संवत १८८८मां नथमल शेठना नानाभाई वखतचंदना पुत्रे जीर्णोद्धार करावेल छे. _ 'राजनगरना जिनालयो' (आ.क. पेढी प्रकाशित) पुस्तकमां पण शेठ नथुशाओ देरासर बंधाव्यानो उल्लेख छे, पण साल आपी नथी. वळी, शांतिनाथना (बाजुना) देरासरनी भींत परनो लेखने आधारे सं. १८७२मां शेठ इच्छाचंद वखतचंद तथा शेठाणी झवेरबाईओ प्रतिष्ठा कराव्यानो उल्लेख छे. वळी आ पुस्तकमां (पृ.१०७) पर 'अमदावादना इतिहास'मांथी लीधेली नोंध प्रमाणे नगरशेठ शांतिदास झवेरीना देरासरमांनी शामळी नानी चिन्तामणि पार्श्वनाथनी मूर्तिने झवेरीवाडमां सुरजमलना दहेरामां पधरावेल हती. प्रस्तुत प्रतिष्ठित Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 61 थयेली मूर्ति ते आ ज होय एम मानी शकाय तेम छे. स्तवनमा लिखित साल तेमज शिलालेखमां निर्देशित साल जुदां पडे छे ते एक कोयडो छे. जो के, आवो ज कोयडो अमने वाघणपोळमांना श्रीअजितनाथना भीत परना बे लेखमां जुदी संवत मळतां थयो हतो ! वळी, आ स्तवन बाबते एक बीजी वात नोंधनीय छे. आजना समयमां सविशेष पोळोनी भूगोळ बदलाती रहे छे त्यारे आ नोंध करवी हुं जरूरी समजुं अने ते छे पोळना नाम बाबते. आजे आ जिनालय वाघणपोळमां आवेलुं गणाय अने विस्तार झवेरीवाड गणाय. कोठारीपोळ तरीके हवे आ पोळ के विस्तार जाणीतां नथी रह्या. प्राचीन संघवर्णनो वांचतां कोठारीपोळनुं नाम जोवा मळे छे. ओ जमानामां संघ सरसपुर उतरतो. त्यांथी सौ पहेलां दर्शनार्थे कोठारीपोळमां आवतो. त्यारे त्यां धर्मशाळाभोजनशाळा होवा जोईए. ए कोठारीपोळ ते आजनो झवेरीवाडनो विस्तार. वळी, आ लखनार पोते झवेरीवाडमां आंबलीपोळमां रहीने मोटी थई छे. वांचतां शीख्या पछी, एना घरनी बारीमांथी सामे देखाता दरवाजा परनुं 'कोठारीपोळ' नामक लखाण उकेल्यं होवानुं याद छे. ए बोर्ड संभवनाथनी खडकीनी बहार, आमलीपोळना साधुओना उपाश्रय पासेना दरवाजा पर हतुं. आ ज नामनुं बीजं बोर्ड परबडी पासे, हेमचंद चकलीना डहेलानी बहार पण में जोयुं छे. आजे ते बोर्ड परबडी उपर छे. वाघणपोळनी अंदरनो विस्तार पण केटलाक कोठारीपोळथी ज ओळखता. पछीथी वपराशमां झवेरीवाड ज प्रचलित थतुं गयेवं. आजे तो ए दरवाजो नथी के नथी बोर्ड. झवेरीवाड ओ निशापोळथी महावीरस्वामिना (वाघणपोळना) देरासर सुधी, संभवनाथनी खडकी सुधी, तो बीजी बाजु पटणीनी खडकीनो बहारनो तथा गोसांईनु मंदिर जतां पहेलां आवता दरवाजा सुधीनो भाग ई.स. १९४५मां कोठारीपोळ तरीके ओळखातो हतो. संभवनाथनी खडकीनी बीजी बाजु नीकळो एटले ए चौमुखजीनी खडकीथी ओळखातो विस्तार आवे. आम, प्रस्तुत स्तवन श्रीचिन्तामणी पार्श्वनाथ जिनालयनी सं. १८४५मां थयेली शेठ नथमलशाना हस्तेनी प्रतिष्ठा बाबते तथा सं. १८८८ मां थयेला शेठ वखतचंदपुत्र (इच्छाचंद)ना हस्ते थएल जीर्णोद्धार बाबते महत्त्वनी विगतो Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 अनुसंधान - २३ पूरी पाडे छे. वळी, झवेरीवाडमां कोठारीपोळ नाम बोलातुं लुप्त थतुं जाय छे त्यारे ते नाम पण विशेष अगत्यनुं बने छे. || देशी ॥ सामलियाजी ॥ चालो चालो चंतामण पास रे, मारुं मनडुं थयुं उलास रे. पुरे माहरा मनडानी आस रे, हुं तो चरण कमलनो दास रे प्रभु बेठा कोठारि पोले रे, जाचक बिरदावली बोले रे गोरी गावे मलि टोले रे, माहरा जिनजिनी नहि कोई तोले रे सा० ॥२॥ संवत अढार पीसताले रे, माघ वदि केरी चोथ गुरुवारे रे प्रभु तखत बेसार्या ताहरे रे, सेठ नथमल साह उदारे रे सा ॥३॥ अनुक्रमे वरस वोलि जाई रे, अढार अठयासि मांहे रे सेठ नथमलसा लघुभाई रे, वखतचंद पुत्र सवाई रे सा० ||४|| मंदिर उद्धार कराव्यो रे, मंडप चोबारो छायो रे आरसदल फरस बनाव्यो रे, चैत्य दिपे अतिहिं सवायो रे सा०||५ ॥ वालो वामा राणिई जायो रे, अश्वसेन नृपकुल आयो रे सामलियो दिपे सवायो रे, हुं तो पुरव पुन्ये पायो रे सा०॥६॥ प्रभु पुरसादाणि पास रे, आदै नाम करम जास रे मुज कठिण करम करे नास रे, देवे मुज अविचल वास रे सा० ॥७॥ श्रीशांतिसागर सूरंद रे सागर गछमां दिपे इंद्र रे. पन्यास प्रमोद मूणंदरे तस सीष कहे मुनिचंद्र रे सां(सा) ॥८॥ अघरा शब्दो जाचक बेसार्या वोलि जाई पुरुसादाणि सामलियाजी ॥१॥ याचक भोजक प्रतिष्ठा करी वीती गयां लोकोना विशेष आदरपात्र — Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतनगुरुरास सं. डो. रसीला कडिया प्रतपरिचय : प्रत संख्या =२ माप =११.५ से.मि. x २५.७ से.मि दरेक प्रतमां पंक्तिओनी संख्या =१५ अक्षर संख्या =३९ स्थिति =मध्यम प्रारंभे 'भले मींडु' करेल छे. चरणांते आंकणी लखी संख्या लखी छे त्यां : (विसर्गचिह्न) करेल छे अने लाल शाहीथी दंड करवा माटेनी जग्या छोडी छे. बन्ने बाजु हांसिया माटे ऊभी त्रण लीटीओ लाल शाहीथी करेली छे. आंकणी तथा कडीनी संख्या लखी छे त्यां गेरु लगाडेलो छे. प्रतने अंते रचयितानुं नाम लखेल नथी पण पुष्पिका आपी छे जेमां लिपिकार तरीके मनिश्री हेतकुशलगणिनं नाम मळे छे अने प्रत हेमविजयजीना वांचनार्थे लखवामां आवी होवानुं जणावेल छे. प्रत धोराजीमां लखवामां आवी छे. संवत पण जणाववामां आवी नथी पण अंदाजे आ प्रतनो समय विक्रमनो १९मो सैको छे. ___अहीं छेक छेल्ले गुजराती लिपिमां "आ पर[त]नाः परातरक: मा हरचंदजी छे" लखेल छे अने एनी नीचे- लखाण भूसी नाखवामां आव्युं छे. भाषानी केटलीक लाक्षणिकताओ नोंधवा जेवी छ : गुरुने स्थाने गरु, मुज अने तुजमां ज ने स्थाने झ नो प्रयोग, अनुस्वारनो नहिवत् प्रयोग जेमके - हु, सुदर, सुदरि, विनवु, साभलता, तु, मे- अने जगत माटे वपरायेलो जगत्र शब्द ध्यान खेंचे छे. कथावस्तु : प्रस्तुत रासमां दीक्षा लेवानो निरधार करनार रतनसी आणुं लईने पत्नी श्रीबाईने तेडवा जाय छे त्यारे पोतानो निर्णय जणावे छे अने बन्ने वच्चे त्यारे जे संवाद थाय छे ते खूब सरस रीते निरूप्यो छे. श्रीबाईनी पण तर्कप्रवीणता रतनसी जेवी ज छे पण अंते नेमराजुलनी पेठे Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 अनुसंधान-२३ श्रीबाई पण दीक्षा ले छे. अने बन्ने शुद्ध निर्मल संयमजीवन आदरे छे. साहा रतनसी नवानगरमां अर्थात् आजना जामनगरमां आव्यानी आ रासमां नोंध छे. 'साहा' शब्द रतनगुरु (स्थानकवासी) लोंकागच्छना होवानुं दर्शावे छे. अति सुंदर संवादोने कारणे कृति रसप्रद बनी छे. रतनगुरुनो रास अथ श्री रतनगरुनो रास लख्यो छे : रतनगरु गुण मीठडा रे, मीठडा मुखना बोल. साभलता रंग वासना रे, आपे जेम तंबोल. रतनगरुगुणमी० ॥१॥ श्रीसोहागदेनो नंदजी रे, सरमाली कुल चंद. नागर रखीजीओ बुझवो रे, रतनसि गुणवंत ॥२॥ रतनगरुगुण मी० आंकणी: सोलमे वरसे रतनसी रे, कीधलो व्रत आचार. देवकना सरखी तजि रे, श्रीबाई सुकमाल. ॥३॥ रतनगः श्रीबाई नार बोलाववा रे, सासरे आवा साम. सासरवासो लई करी रे, साथे म(म)त्री अभीराम ॥४|| रतनगः वनो करीने सासु वदे रे, तमे केम पधारा आज. रतन कहे तव रंगसु रे, तम तनीआसु काज. ॥५॥ रतनगः तेडो तमारी बालका रे, श्रीबाई सुकमाल सासरवासो करु अमे रे, संजम लेसु सुविचार ॥६॥ रतनः पंच सहिरुमां खेलति रे, श्रीबाई परमोद. माता बोलावे मंदरे रे, सुणवा वात वनोद ॥७॥ रतनः रतन कहे सुणो सुदरी रे, अमे आदरसु चारित्र. मानी बेन में तझने रे, ले सासरवासो पवित्र ॥८॥ रतनः Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 65 कहे श्रीबाई कंथने, नठर वचन न बा(बो)ल. भोला मन चंत परिहरो रे, चालो मारग वेवार ॥९॥ रतनः वण अवगण नीज कामनी रे, एम केम तजो नर [जा?]ण । उत्तमकु[ळानी हु उपनी रे, मुज साख पडे संसार ||१०|| रतनः हु दनदन सुख माणति रे, मुझ रतनसि भरतार. मोटे मने हु माणति रे, तुझ उपर निरधार; ॥११॥ रतन. कुलवती सुणो सुदरि रे, आ संसार असार, चोरासी लखमां हु फर्यो रे, जिव अनंति वार; ॥१२॥ रतन. सगपण सरवे आपणा लहे रे, न रहि मणा लगार धर्म वोणो आतमो रे, वसिइ नरग मझार. ॥१३॥ रत० दस दृष्टांते पामीइं रे, मानविनो अवतार. धर्म सामग्री सरवे लही रे, हवे कोण फरे संसार ? ॥१४॥ रत० सानध कीधी सुदरी रे, मुझ परणेवा पचखाण. बेन सरखी तु हवे रे, साभल चतुर सुजाण, ॥१५॥ रत० सासरवासो तु पेरती रे, मुझ बंधव कही बोलाव. दे आसीस सोहामणी रे, कुंकुम चोखे वधाव ॥१६॥ रतन० तम अम सगपण जोडीउ रे, ती जाणे जगत्र विख्यात इम केम कामनी छांडसो रे, तुम सामी हो मारा नाथ. ॥१७॥ रत० गुणवंता सुणो नाथजी रे, केम रेसु निरधार, जो वेराग हतो आवडो रे, तो परथम न कीधो वीचार ॥१८॥ रत० हवे मन थर करो नाथजी रे, पोचो तमे आ वार लगन दवस वचारीने रे, आवजो धरी उलास. ॥१९॥ रत० तमेअमे तो आस्या घणी रे, सफल करो गुणवंत, इम कीम दीक्षा लीजीइ रे, कुंवारां सुणो कंथ, ॥२०॥ रत० Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 जोवनमे दीक्षा दोहेली रे, दोहीलो साधु आचार, लघु वेसे कोण आदरे रे, दुकर संजम भार ॥ २१ ॥ रत० अनुसंधान - २३ सुण सुदर सुंदरि तुझ मेरे जेम श्री जंबुकुमार. तेम हुं संजम आदहं रे, अनुमत द्यो श्रीकुमार (श्रीकार ) ॥२२॥ रत० श्रीबाई जंबु कहेइ रे, परणा आठे नार. तार पछी संजम आ[द]र्या रे, तेम तमे करो रतनकुमार ||२३|| रत० अमारे तो परणवुं नहीं रे, आदरु साधु आचार, ते तो तमे जाणजो रे, कहे श्रीबाई नार, ॥२४॥ रत० वेवसाल न मेलीइं रे, नहीं कसो जंजाल, पालव लागी पीआ तम तणे रे, ते तो जाणे बालगोपाल ॥ २५ ॥ रत० पालव लागीने परहरी रे, नेमे राजुल ना[र] तेम हुं संजम आदरु रे, कहो तुज कंत विचार ||२६|| रत० हाथ जोडीने विनवु रे तमे जोवो ते मोरा साम, जाणु रे रचना एही रे तो मुझ दाखो ठाम ||२७|| रत० मुझ जनके सुदरी रेजो सुखसमाद श्रीबाई कहे तम वीना रे, तो कोण देखे घरबार ? ॥२८॥ रत० तो तमे पीहर थोभजो रे, आपु द्रव्य अपार, दान पुन लखमी तणो रे, लाहो लेजो संसार ॥ २९ ॥ ० पीहर मीठु तीहां लगे रे, जीहां जुओ आणानी वाट दोष चडावे लोकडा रे, पडे मननी भरांत ||३०|| रत० कुवारा कुवारा कुवांरीका रे सो घर सो भरतार आदरजो मन मानतो रे जे जाणे हेतकार ॥३१॥ रत० तमे आये भवसाहेर तरे रे मुझ राखे छे संसार. पियु तोरे प्रेम न जाणीओ रे स्वारथिउ भरतार ||३२|| रत० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 67 सुदरि कहे सुणो वालहा रे, भव भव तुमसु नेह हु तुझने छांडु नही रे, अवर नव टाळु देह ॥३३॥ रत० मानसरोवर हंसली रे, ते तो नगर षा(खा)ले कोण नाह ? द्राख अखोड मेवा तजी रे, लीबोली कोण खाय ? ॥३४॥ रत० जो रे रेसो संसारमा रे, तो हुं तमारी नार जो पण संजम आदरो रे, तो मुझ साधवि आचार. ॥३५||रत० नेमनी रीत तमे करी रे, अमे करु राजुलने रित. परमेसरनी साखे करी रे, भव भव तुम सु प्रीत. ॥३६॥ रत० अमृतवचन श्रीबाईना रे, साभली रतनकुमार. दंपती दीक्षा आदरे रे, जाणे जगत विख्यात ॥३७॥ रत० सासरे जईने प्रीया प्रीछवी रे, श्रीबाई वर नार, पीउनो साथ न मेलीउ रे, जीम राजूल राजकुमार ॥३८॥ रत० श्रीरतनगुरु ते सार, श्रीबाई राजुल सारखी रे, आदरे संजम भार ॥३९॥ रत० श्रीमाली पट सुदरे जीनशासन अणगार संजम सीअल ते आदर्यो नीरमल सुध आचार. ॥४०॥ रत० साहा रतान]सी आवीया रे, नवानगर मोझार साधु सहु सेवा करे, सफल करे अवतार ॥४१॥ रत० तेणे समे पंच भतेसरू रे, आव्या सनजीकुमारु चरणकमल मुनिस्वर तणा रे भेडी[टी] प्रेम अपार ॥४२॥ रत० श्री रतनगुरुआ देसना रे, जेम पामे भवपार सांभलता सुख उपजे रे, दोस टले अपार ॥४३॥ रत० इतिश्री रतनगरुनो राश संपूर्ण : १. एक चरण ओछु छे. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 रखी देवकना वनो = = नठर सहिरु वोणो सानध = = आः परतनाः परातरक मा हरचंदजी छे. ऋषि = सुकमाल चंत चिंता निष्ठुर * लखीतं मुनीस्वर हेतकुशलगणी वांचनार्थ हेमवी [ज] यजी चरजीवी धोराजी मधे. विनय देवकन्या = सुकुमार सखीओ विहोणो सान्निध्य अघरा शब्दो आस्या लघु वेसे भतेसरू भरांत = = = आशा = ? भ्रांति = सवारथियुं खाले खाळे अखोड = नानी उमरे परातरक = स्वार्थी अखरोट ? अनुसंधान - २३ जैन बोर्डिंग, टी.वी. टावर सामे, थलतेज रोड, अमदावाद - ३८००५४ (गुजरात) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीतीर्थंकर मल्लिनाथनी प्रतिमाओ विजयशीलचन्द्रसूरि जैन शासन बे मुख्य धाराओमां वहेंचायेखें धर्मशासन छे. आ बे धारा ते श्वेताम्बर धारा अने दिगम्बर धारा. आ बन्ने धाराओ वच्चे अनेक बाबतोमां मतभिन्नता छे, जेमांनी एक बाबत 'मल्लिनाथ भगवान' विषे छे. __ मल्लिनाथ ए आ काळना २४ पैकी १९मा जैन तीर्थंकर छे. तेओ स्त्री तरीके जन्म्या हतां, अने स्त्री तीर्थंकर तरीके तेमणे धर्मचक्र प्रवर्ताव्यु हतुं तेवी श्वेताम्बरीय संघनी मान्यताने दिगम्बर संघ स्वीकारतो नथी. दिगम्बर मत अनुसार, 'नग्नत्व' ज मोक्षपद, कारण छे; स्त्रीओ माटे नग्नत्व निषिद्ध होई तेओ स्त्रीलिंगे मोक्षपद प्राप्द करी न शके; तेथी स्त्री तीर्थंकर थाय के होय ए वात ज अप्रस्तुत गणाय. मल्लिनाथ पण पुरुष तीर्थंकर ज हता. आनी सामे श्वेताम्बरोनुं मन्तव्य एवं छे के शास्त्रोमा १५ प्रकारे 'सिद्ध'नुं वर्णन छे, तेमां 'स्त्रीलिंगे सिद्ध'नो पण प्रकार छ ज. वधुमां, स्त्री तीर्थंकर- थर्बु - ते प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल- एक 'आश्चर्य' होवानुं शास्त्रकारो वर्णवे छे. परन्तु, भले 'आश्चर्य' तरीके तो तेम, पण स्त्री तीर्थंकर के केवलज्ञानी (मात्र नग्नत्वना अभाव जेवा सामान्य कारणसर) न बनी शके, अने मोक्षमां न जई शके, ते वात तो मान्य न ज थई शके. बल्के श्रीनन्दीसूत्र आदि ग्रन्थोमां तो विविध प्रकारना सिद्ध जीवोना अल्प-बहुत्वनुं वर्णन आवे छे त्यां 'स्त्री तीर्थकरी' ओ एकी साथे केटली संख्यामां 'सिद्ध' पद प्राप्त करे ? तेना जवाबमां त्यां 'एक करतां वधु (स्मृतिना आधारे : 'बे अथवा चार' एवो आंक छे)' स्त्री-तीर्थंकरो मोक्षे जाय, तेवो उत्तर लखेल छे. तात्पर्य ए के स्त्रीने मोक्षनो अधिकार छे, अने मल्लिनाथ जो स्त्रीतीर्थंकर तरीके थयां होय तो तेमां कोई बाध नथी. आ तो थयो शास्त्रीय विवाद. परन्तु शिल्पशास्त्रनी तथा पुरातत्त्वशास्त्रनी दृष्टिए केटलाक पुरावा एवा सांपड्या छे के जे श्वेताम्बर धारानी मान्यताने यथार्थ अने उचित ठेरवे. जेवा के मल्लिनाथनी स्त्रीदेहधारी जिनप्रतिमाओ. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 अनुसंधान-२३ उत्तर भारतना एक प्रमुख वृत्तपत्र 'हिन्दुस्तान' (४ जुलाई, २००२) नो हवालो आपीने, 'णमो तित्थस्स' (मासिक पत्र, सं. ललित नाहटा, दिल्ली; फरवरी-२००३)मां आवेला एक समाचार प्रमाणे, दरभंगा पासेनी, मधुबनी विस्तारनी 'अकौर बस्ती' (बुद्धिकालीन अंगूतरप्पा) मांथी, स्थानिक सी. एम. कोलेजना प्राध्यापक इतिहासविद डॉ. सत्यनारायण ठाकुरने, एक स्त्री आकृति धरावती पत्थरनी जिन-प्रतिमा जडी आवी छे. डो. ठाकुरना निवेदन प्रमाणे आ प्रतिमा जैन स्त्रीतीर्थंकर मल्लिनाथनी छे. आ मूर्ति ऊभी मूर्ति छे. बे इंच लांबी, दोढ ईंच पहोळी अने जाडाईमां बे सेन्टिमीटर व्यास धरावती ते मूर्ति तांबावरणा पत्थरनी बनेली छे. तेनो समय ईसा पूर्व पन्दरसो वर्ष लगभगनो अंदाजवामां आव्यो छे. डॉ. ठाकुरना निवेदननो अंश आपणे जोईए : ___ "डो. ठाकुरका कहना है कि उक्त मल्लिनाथकी प्रतिमा अकौर बस्ती से प्राप्त हुई है और इसकी बनावट जहां वर्धमान महावीर जैसी है, वहीं स्तन के उभार एवं शारीरिक संरचना स्पष्ट रूप से किसी महिला की प्रतीत होती है, जो उसे मल्लिनाथ प्रमाणित करने के लिए काफी है । वस्त्रों के तन पर रहने से स्पष्ट है कि मूर्ति श्वेताम्बर जैन के तीर्थंकर की है, जो इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करता है कि जैन धर्म इस काल तक श्वेताम्बरों की ही धरोहर रहा होगा ।" आ हेवाल एटलो बधो स्वयंस्पष्ट छे के तेना पर विशेष कांई कहेवानी जरूर जणाती नथी. सातेक दायका पहेलां, अमदावादथी 'जैन सत्य प्रकाश' नामे मासिक पत्र प्रगट थतुं हतुं. तेना कोईक जूना अंकमां, घणा भागे डॉ. यु.पी.शाहना कोई लेखमां, मल्लिनाथनी एक खण्डित-मस्तक विहोणी पण स्तनो अने सरस केशपाश-चोटलो धरावती अद्भुत प्रतिमानी छबी जोयानुं सांभरे छे. ए मूर्ति लखनऊना म्युजियममां आजे पण विद्यमान छे, अने कलाविषयक ग्रन्थोमां तेनी तसवीर वारंवार छपाती पण रहे छे. मल्लिनाथनी स्त्रीदेहधारी एक विशालकाय प्रतिमा अद्यावधि अज्ञात स्थितिमां राजस्थानमा क्यांक-कोई दिगम्बर मन्दिरमा ज आजे पण उपलब्ध छे. (तेनी झांखी छबी आ अंकमां ज अन्यत्र (टाईटल पेज पर) आपवामां Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 आवी छे.) अने ते उपरांत, ताजेतरमां ज मध्यप्रदेशना 'घुना' क्षेत्रमांथी एक आशरे ८-९ आंगळनी स्तन-चोटलो धरावती मल्लिनाथनी प्राचीन प्रतिमा मळी आवी छे. आम, आजे आपणी समक्ष ओछामां ओछी चार ज्ञात मल्लिनाथप्रतिमाओ मोजूद छे, जे प्राचीन पण छे, अने मल्लिनाथने स्त्रीतीर्थंकर पुरवार करवा माटे समर्थ साक्ष्य के पुरावारूप पण बनी रहे तेम छे. 71 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-२१, विहंगावलोकन ___ मुनि भुवनचन्द्र अनुसन्धान-२१मां नानी-मोटी ९ रचनाओ छपाई छे, विषय वैविध्य स्वयं सर्जायुं छे. अज्ञात-कर्तृक सप्तनयविवरण, विज्ञप्तिकासंग्रह, ऋषभतर्पण - आ कृतिओ ध्यान खेंचे एवी छे. अन्य सामग्री स्वाध्याय माटेनी सरस सामग्री पूरी पाडे छे. 'सप्तनयविवरण' नयवादनो प्राथमिक परिचय रोचक भाषामां आपे छे. स्याद्वादनुं पाठ्यपुस्तक करवू होय तो तेमां एक पाठ तरीके आने मूकी शकाय. सात नय, तेनां उदाहरणो, सुनय-दुर्नय, नय-प्रमाणनो भेद, सप्तभंगी आदि संबन्धित विषयो बीजरूपे आमां समाविष्ट छे. प्रदेशोमां सात नय ऊतार्या छे ते भाग संवादमय अने नवीनतावाळो छे. पृ. २ पर 'अनंतवर्णात्मक' छे त्यां हस्तप्रति पुनः चकासी जोवानी जरूर लागे छे. आवो शब्द आ विषयमां वपरातो नथी, वस्तु अनंतधर्मात्मक छे एवो ज प्रयोग प्रचलित छे, अहीं पण ते ज होय एम बने. तो वाचननी भूल गणवी पडे. पृ. ३ पर 'उभाभ्यां प्रकाशनाभ्यां' छे, अहीं अभिप्रेत छे प्रकार, तेथी संपादके काउन्समां 'प्रकाराभ्यां' लखवू जोइतुं हतुं. 'ऋषभतर्पण'ने संपादक 'जैन क्रियाकांड विषयक कृति गणावे छे. आवी कृतिओने जैन व्यक्ति द्वारा जैन स्वरूप अपायुं छे एटला एक कारणसर 'जैन' गणीए तो भले, बाकी आवा प्रकारनी विधिओ जैन दृष्टि साथे संगत नथी. वैदिक, ब्राह्मण अने क्यारेक तो तान्त्रिक परंपराओनी विधिओने आ रीते जैन वस्त्रो पहेराववाना प्रयासो ते ते काले थया छे. 'ऋषभतर्पण' अने 'आर्य वेदमन्त्रो' ए बन्ने आवी कृतिओ गणी शकाय. ते ते काले बहु ज प्रसार पामेली जैनेतर वस्तुओने जैन संस्कार आपी अव्यवस्था सर्जाती अटकाववाना तत्समयना सुज्ञ-चतुर मुनिपंडितोना प्रयास लेखे तेनी उचितता हशे, परंतु तेने सर्वदा उपयोगी के 'जैन' गणी न ज शकाय. ब्राह्मण अने जैन परंपराना संकलन-संमिश्रणनो मोटा पाया पर प्रयास भूतकाळमां थयो हतो - निगमगच्छ के निगमसंप्रदाय एनो पुरस्कर्ता हतो, पण ते वास्तवमां Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 73 सफल नथी थयो. आर्यवेदना मन्त्रो जे आ अंकमां आप्या छे तेनी भाषा प्राचीन नथी, मध्यकालनी के ते पछीनी छे. 'तर्पण'ना अंते तो मुनिओने मिष्टान्न-वस्त्र आदिनुं दान करी पितृतर्पण करवानुं विधान छे. जैन मुनिओना मार्ग तथा जैन तत्त्वदृष्टि साथे एनो कोई मेळ नथी. संपादके नोंध्युं छे तेम, जैन जनताने अन्यत्र ढळती अटकाववाना हेतुथी आq गोठवायुं होय अने ते उपरांत यतिवर्गे पोताना लाभार्थे आq शरु कर्यु होय एवी पण संभावना खरी. आ समग्र मुद्दो ऐतिहासिक तपास मागे छे ए तो संपादकश्रीए पण नोंध्यु ज छे. पृ. ३७. प्रीयते=प्रीतये १८. नैवे(र्वे)द्यं = 'न वेद्यं' होई शके. वेद्यंनो अर्थ वेदनीय लइ शकाय. 'सरस्वती स्तोत्र'मां 'धूधूमि धूधरी' छे, त्यां 'ध'नो 'घ' वांचवो जोईए - घूघूमि घूघरी. ___'विज्ञप्तिका संग्रह' मांनी बधी ज विज्ञप्तिओ एक ज कर्तानी रचेली होवानी पूरी शक्यता छे. शैलीनुं अने विषयतुं साम्य तो खुल्लु ज छे, वधुमां बधी रचनाओ एक ज प्रतिमां छे. कर्ता- कवित्व स्वयंप्रकाशित छे ज, गुरुभक्ति, गुणानुराग, श्रद्धा आदि धर्मभावो पण उत्कट रूपे गूंथाया छे. प्रथम विज्ञप्तिमां थोडा मुद्रणदोषो छे गाथा ३. कुमयपरुवग =कुमयपरूवग गा. ६. पंचसमइ =पंचसमिइ चारित्रचूला महत्तरा विज्ञप्ति ध्यानार्ह छे. जेमनी स्तुति ए समर्थ मुनि कवि रचे ते साध्वी केवी असामान्य योग्यता धरावतां हशे तेनी कल्पना विज्ञप्तिमांथी आवी शके. गा. ५ मां 'जयसि' छे त्यां 'जयति' वधु योग्य ठरे. गा. ६मां 'नय (जय)' छे त्यां 'जय' करतां 'नय' ज वधु संगत छे - 'नतसुखकारिणी'. १. निर्वेदी-वेदरहित, तेनी समक्ष, वेदरहित थवा माटे धराय ते नैवेद्य, आवी अर्थयोजना पण प्रसिद्ध-प्रचलित छे. (सं.) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 वळी 'जया' ते पछी आवे ज छे. 'चतुर्मुखमहावीरस्तवन' यमक जेवा शब्दालंकारथी सुशोभित अने भावसभर छे. कविए शब्दोनी योजना - संयोजना द्वारा श्रुतिमधुर रचना सर्जी छे. पाखण्डिस्वरूपस्तोत्र, कम्मबत्तीसी, त्रिलोकस्थितजिनगृहस्तव आ कृतिओ कोरी शास्त्रीय विगतोने काव्यमां वणी लेवाना प्रयासना उत्तम नमूना छे. नीरस आंकडाकीय विगतोने काव्यरूप आपवुं ए एक पडकार जगणाय. जैन कविओ द्वारा आवी कृतिओ मोटा प्रमाणमां सर्जाई छे. अनुसंधान-२३ 'आज्ञास्तोत्र' मां रचनाकौशल झळके छे. कथन चोटदार छे अने शैली रसिक छे. गाथा ५मां 'मइनिउणं' छे त्यां ग्रन्थकारे 'नेउन्न' शब्द वापर्यो होय एवी कल्पना आवे छे. 'मइनेउन्नमणोवमं' आम होय तो अर्थसंगति तो सधाय ज, साथे पुन्नं, पडिपुन्नं साथे श्रुतिसाम्य पण सधाय. कविनी शैली जोतां आ लाभ कवि जतो न करे. लिपिकार 'नेउन्न' ने स्थाने अजाणतां ज जाणीतो शब्द 'निउणं' लखी नाखे एवं बनी शके. अनुसन्धान- २२नुं विहंगावलोकन मुनि भुवनचन्द्र 'अनुसन्धाने' थोडा समयथी बहुरंगी कलेवर धारण कर्तुं छे. अंकगत कोईक सामग्रीने लगतुं चित्र आवरण पर आपवानी प्रथा आरंभाई होय एम लागे छे. आ प्रथा चालू रहे तेम इच्छीए. २२मा अंकनी प्रथम रचना श्रीहरिभद्रसूरिजी एक लघुकृति होय एवी शक्यता निर्मूल नथी. 'भवविरह' तथा समसंस्कृतभाषा - आ बे प्रबल सूचक चिह्नो छे; तदुपरांत, प्रतिना अंते 'श्री हरिभद्रसूरिकृतं' एवो स्पष्ट निर्देश छे, प्रति पांचसो वर्ष पूर्वेनी छे. गाथा ६मां 'स्वसमय' शब्द छे ते भ्रांतिजन्य होय एवी भीति रहे छे. 'स्व' शब्द समसंस्कृतमां ग्राह्य न थई शके. मारा ख्यालथी प्राचीन Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75 April-2003 लिपिकारो हुस्व 'उ'नुं चिह्न ७ विशिष्ट ढबे लखता, जेनाथी 'सु'नी भ्रांति थई शके. आ विषयमां संपादक - संशोधक वधु चोक्कस निर्णय लई शके. 'सुसमय' शब्द अर्थनी दृष्टिए पण वधु स्वाभाविक पण छे. प्रभु- 'पोतानुं शासन' के 'पोताना सिद्धांत' जेवू न होय, सत्यना निरूपण साथे ज तेमने तो सम्बन्ध होय, तेथी ‘साचासारा सिद्धान्तरूपी कमलो माटे सरोवर समान' ए विशेषण वधु उचित ठरे. महो. श्री यशोविजयजीनी एक अन्य अपूर्ण कृति आ अंकमां जोवा मळे छे. गत अंकमां प्रकाशित 'पाखण्डिस्वरूपस्तोत्र'नी अवचूरि पाछळथी मळी, ते पण आ अंकमां छे. पृ. २७ पर नीचेथी बीजी पंक्तिमा 'सप्तभेदा०' छे त्यां 'सप्रभेदा०' होवू घटे. आ अंकनी मुख्य रसप्रद कृति छे-कवि दीपविजयजीकृत 'समुद्रबन्ध' चित्रकाव्य. ३६ दोहरा क्रमशः ३६ पंक्तिओमां आलेखी समुद्र जेवो देखाव ऊभो कर्यो छे. अने एमां हार, धनुष, वज्र, पर्वत जेवी आकृतिओमां संस्कृत, व्रज वगेरे भाषाओना श्लोक-दूहा गोठव्या छे. स्वाभाविक रीते ज आवी मिश्र रचनामां भाषाकीय अने व्याकरण सम्बन्धी छूट लेवी पडे, पण तेनाथी कृतिनी चमत्कृति अथवा कविनी कल्पकताने लेश पण हानि थती नथी. कर्ताना स्वहस्ते लखायेला वस्त्रपट परथी आ संपादित थई छे ए वळी विशेष नोंधपात्र मुद्दो. आ पंक्तिओना लेखकने हमणां ज आवा अन्य समुद्रबन्धो मांडवी-कच्छना खरतरगच्छीय भंडारमा जोवा मळ्या. (मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी आवां चित्रकाव्यो पर काम करी रह्या छे एवा खबर मळ्या छे.) आवी कृतिओनो अभ्यास भाषा, कवित्व, इतिहास अने इतिहासबोध जेवा विविध दृष्टिकोणोथी थई शके अने थवो जोईए. 'जिनपूजाविधि' शीर्षकवाळो, संभवतः १७मा सैकानो, गद्य मारुगूर्जर लेख जिनपूजाविधिना संदर्भ मूल्यवान माहिती पूरी पाडे छे. वर्षों पूर्वे हाथ लागेलो आ लेख आटला वर्षे 'अनुसन्धान'मां प्रकाशन पाम्यो ए वाते आनन्द थाय ज, किन्तु आवी सामग्रीनो उपयोग-विनियोग रूढि-परंपराना परिमार्जन अर्थे संघनायको करता थाय तो ए आनन्द चोगणो थशे ! १. 'सुसमय' पाठ ज छे. रभसवश 'स्वसमय' वंचायुं छे. (सं.) || Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान - २३ 'अनु० 'मां आ लेख वांच्या पछी आ. श्री. वि. प्रद्युम्नसूरिजीए मारा परना पत्रमां जे प्रतिभाव पाठव्यो छे ते आशाप्रेरक छे. आचार्य श्रीनी संमति ज छे एम समजी, ए पत्रमांनो संबंधित अंश अहीं ऊतारुं छं : 76 "अनु. २२ मेळव्युं, जोयुं, पछी पूजाविधि शान्तिथी वांची. मारी घणी मान्यताओने पुष्टि मळी. शीलचन्द्र महाराजे तारवण पण घणुं सारुं आप्युं छे. केटलीक प्रथाओ तरत अपनावी शकाय तेवी जणाई छे. दा.त. प्रक्षालजळमां सुगन्ध औषधिओ मिश्रित करवी, अंगलूहणां केसरवर्णा करवा, प्रवेशतां जमणो पग पहेलो मूकवो, पूजावस्त्रो वधु वार पहेरी न राखवां व. " जो के वर्तमान पूजापद्धतिमां निरर्थक अने यावत् अनर्थकारी घणुं घूसी गयुं छे, तेने अटकाववानी ताती जरूर छे, पण काम बहु विकट दीसे छे. भौतिक लालसा प्रेरित गलत मान्यतानां तोरण घर-घर बंधायेलां छे तेने पोषवामां आवे छे. प्रतिमाजीनी सहज सुंदरता नंदवाय छे ते पहेलो अने मोटो 'लोस' छे, पण सामूहिक धोरणे विचारणा करवा साधुगण तैयार नथी. व्यक्तिगत धोरणे तो कहेवानुं राख्युं ज छे." आ. श्री प्रद्युम्नसूरिजी जेवा भक्तहृदयी अने शास्त्राभ्यासी आचार्य श्रीए आ विषयमा तरत आटली कलम चलावी ए जोई मारा जेवाने एक सार्थकतानी लागणी थाय. आ ज पत्रमांना आचार्य श्रीना अन्य आशावादी उद्गारो पण अत्रे नोंधवानी लालच रोकी नथी शकतो : 66 'श्री ढांकीना पुस्तकनी तमारी सर्वांगीण समालोचना वांची... आजे पण आवा तलस्पर्श करनारा विद्वानो छे ते मारा जेवाने माटे मोटुं आश्वासन छे, कारण के भायाणी साहेब गया पछी आवा गंभीर विद्वानोनो वरवो दुकाळ जणाय छे. एटले ज 'अनुसन्धान' पण मीठी वीरडी जेवुं लागे छे. ए माध्यमथी विद्याजगतमां डोकियुं थई शके छे. एक युग आथमवानी अणी उपर आवे छे त्यारे वळी नवा युगनां मंडाण थवानां पगरण मंडावा मांडे ए आशा राखवी गमे छे. नानां नानां सारां कामो थतां रहे छे तेथी वळी काले मोटा कामो थशे थई शकशे एवं लागे छे." 1 आचार्यश्रीना आवा आशावादी चिन्तननो 'चेप' वधु ने जनोने पण लागे एवी आशा राखीए वधु अग्रणी Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 77 सबर : पूजाविधिना शब्दो विशेसुहाली भेरव : कापडनी एक जातनुं नाम छे, जे कदाच मलमलने मळती आवती हशे. (भेरव नाम अंगे श्री मावजीभाई सावला साथे वात थई त्यारे एमणे एक वधु संकेत सूचव्यो : भैरवी थाटना रागोमां चार स्वर कोमल आवे छे, ते परथी सुंवाळा कापडने 'भैरव' नाम कदाच मळ्युं होय? आने 'सखर' एम वांचवें जोईए. अर्थ : सुन्दर, श्रेष्ठ, उत्तम, नवाणु प्रकारी पूजामां 'सखरे में सखरी कोण....' आवे छे. कच्छी भाषामां आजे पण सखर =उत्तम एवो शब्द प्रचलित छे. भावि : 'भावि तिम नाखीइ...' ए वाक्यनो संदर्भ जोतां "ठीक लागे तेम, फावे तेम' एवो अर्थ जणाय छे. पासानी : बाजुनी, पडखानी (पाषाणनी नहि). डालरि : पहोळा मोढा, मोटा भागे लाकडानुं खाना जेवू पात्र. कच्छीमां ढोरोने खाणदाण आपवाना लाकडाना पात्रने 'डालो' ज कहे छे. काठियावाडी शब्द 'डालामत्थो' पण याद आवे. तीर्थयात्रा-चैत्यपरिपाटीना विषय पर अनेक जूनी रचनाओ मळे छे. आ रचनाओ ऐतिहासिक दृष्टिए बहु महत्त्व धरावे छे. आ अंकमां आवी एक कृति ‘समेतशिखर गिरि रास' छपाई छे. मारवाडी, गुजराती, बंगाली वगेरे भाषाओनी असर आमां वर्ताय छे. सेंजडी (ढाल ६, गाथा ४) शब्द काठियावाडी 'सेंजल'नी याद अपावे छे. 'खोअल' (ढाल ६, कडी ४)नो अर्थ 'ऊंडु' स्पष्ट जणाइ आवे छे. मराठीमां 'खोल' आ ज अर्थमां प्रचलित छे. आनुं मूळ कोक जूना देश्य शब्दमां कदाच होय. _ 'स्वाध्याय' शीर्षक नीचे शीलचन्द्रसूरिए 'ललित-विस्तरा'मा उल्लेखित प्राचीन दार्शनिकोनां अने तेमना संप्रदायोनां नामो- तेमनी मान्यताना निर्देश साथे - उद्धृत करीने आप्यां छे. आवां केटलां मत-पक्ष-दर्शन भारतमां Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 अनुसंधान-२३ उद्रव्यां हशे ने तेमनु केटो बधुं साहित्य रचायुं हशे एनो विचार करतां रोमांच थाय. आजे तेमनां नामो ज मात्र आ रीते जोवा मळे छे, ग्रन्थो मळता नथी. 'ललितविस्तरा'नी जेम अन्य प्राचीन ग्रन्थोमां आ मत । मतप्रवर्तको विशेनी विगतो जरूर विखरायेली पडी हशे. शोध करनारे विशाळ ग्रन्थसागर उलेचवो पडे ! जैन देरासर नानी खाखर-३७०४३५ कच्छ, गुजरात Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्यायः श्रीराजशेखरसूरिकृत प्रबन्धकोश गत केटलीक नोंधपात्र वातो वि.सं. १४०५मां मलधारगच्छीय श्रीराजशेखरसूरिए रचेल, ऐतिहासिक अने पारम्परिक प्रसंगोना संचयरूप ग्रन्थ 'प्रबन्धकोश'नुं वांचन करतां केटलांक पुरातात्त्विक तथ्यो, केटलांक ऐतिहासिक तथ्यो अने केटलीक गरबडो जाणवा मळे छे, जे रसप्रद बने तेम होईने तेमज ऊहापोहप्रेरक पण बनी शके तेम लागवाथी आ स्थाने प्रस्तुत करवामां आवे छे. १. श्रीपादलिप्ताचार्यना प्रबन्धमा प्रबन्धकारे एक प्रसंग आ प्रमाणे लख्यो छे :- "अथ श्रीपादलिप्ताचार्याः प्रतिष्ठानपुरं.... जग्मुः । तत्र सातवाहनो राजा... । तस्य सभायां.... सर्वैः पण्डितैः सम्भूय स्त्यानघृतभृतं. कच्चोलकमर्पयित्वा निजः पुरुष एकः आचार्याणां सम्मुखः प्रेषितः । आचार्यैघृतमध्ये सूच्येका क्षिप्ता, तथैव च प्रतिप्रेषितं तत् । राज्ञा... पण्डिताः पृष्टाः - घृतपूर्णकच्चोलकप्रेषणेन वः को भावः ? । तैरुक्तं-एवमेतनगरं विदुषां पूर्णमास्ते, यथा घृतस्य वर्तुलकं, तस्माद्विमृश्य प्रवेष्टव्यमिति भावो नः । राज्ञा निगदितंतर्हि आचार्यचेष्टापि भवद्भिर्जायताम्- यथा निरन्तरेऽपि घृते निजतीक्ष्णतया सूची प्रविष्टा, तथाऽहमपि विद्वनिबिडे नगरे प्रवेक्ष्यामि ।" (पृ. १४) अर्थात् पंडितो घीथी भरेलो वाटको मोकलीने, नगरमा हवे नवा पंडित माटे अवकाश न होवानुं सूचवे छे; अने ते वाटकामां सोय भोंकीनेनाखीने आचार्य जणावे छे के घीमां सोय समाई गई तेम अमे पण नगरमां समाई जईशुं. आ कथाप्रसंग केटलो बधो व्यापक चलणी छे ! 'भोजप्रबन्ध'मां भोजराजानी सभामां पण आवो ज प्रसंग कोई आगन्तुक विद्वान साथे घट्यो होवानुं वर्णन छे. अने आ प्रबन्धोनी वातोने वार्ता ज मानी लईए तो, आवो ज प्रसंग 'संजाण' बंदरे पारसीओ ज्यारे सैकाओ अगाउ आव्या त्यारे बनेलो तेने पण याद करवो पडे : राजा तरफथी, समुद्रमार्गे आवेला पारसीओने Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 अनुसंधान - २३ दूध -- भरेलो प्यालो मोकलीने 'आनी जेम छलोछल भरेला नगरमां हवे जग्या नथी' एवो संदेशो पाठववामां आव्यो, त्यारे तेना उत्तरमां पारसीओए ते दूधमां साकर उमेरीने पाछो ते प्यालो राजा पर मोकली आप्यो : एवा इंगित साथे के दूधमां जेम साकर भळी शके तेम अमे तमारा शहेरमां समाई रहीशुं. तात्पर्य एटलुं ज के जुदा जुदा युगे तथा सन्दर्भे घटती घटनाओमां केटलीक वखत केटलुं बधुं साम्य होय छे ! लोककथानो घाट घडाय त्यारे तेना पायामां आ प्रकारनी कोई घटित घटना ज धरबाती हशे ने ? २. आचार्य मल्लवादी ए जैन संघना प्रख्यात तार्किक अने वादी आचार्य छे. 'द्वादशार नयचक्र' जेवा प्रौढ ग्रन्थ साथे तेमनो नाळसम्बन्ध छे. आ ज नाम धरावता, नागेन्द्रगच्छीय एक आचार्य विक्रमना १३ मा शतकमां पण थया छे. ते स्तम्भनक - थामणाना स्तम्भनक पार्श्वनाथ चैत्यना संरक्षक मठपति जैनाचार्य हता. आ बन्ने मल्लवादीसूरि वच्चे आशरे ७००-८०० वर्षोनुं अन्तर होवा छतां, प्रबन्धकोश-कारे ते बन्नेने अभिन्न बनावी दीधा छे, अने बन्नेना प्रसंगोने प्रथम मल्लवादीना जीवनप्रसंग तरीके ज वर्णवी दीधा छे. 'मल्लवादी प्रबन्ध' वर्णवतां वर्णवतां ज्यारे वलभीभङ्गनी कथा आवे छे त्यारे, मल्लवादी (क्षमाश्रमण) सपरिवार त्यांथी 'हिजरत' करी गयानुं बयान प्रबन्धकारे आ प्रमाणे आप्युं छे : " एतच्च प्रथमं ज्ञात्वा मल्लवादी महामुनि: । सहितः परिवारेण पञ्चासरपुरीमगात् ॥६८॥ नागेन्द्रगच्छसत्केषु धर्मस्थानेष्वभूत् प्रभुः । श्रीस्तम्भनकतीर्थेऽपि सङ्घस्तस्येशतामधात् ॥६९ ||" (पृ. २३) आमां मोटी विसंगति तो ए छे के पांचमा - छठ्ठा सैकामां स्तम्भनक तीर्थनी उत्पत्ति के स्तम्भनकपार्श्व-प्रतिमानुं प्राकट्य पण गुजरातमां नहोतुं थयुं; ते तो ठेठ १२मा शतकमां अभयदेवसूरि द्वारा थयुं छे. आम छतां, प्रबन्धकारे आ स्थाने केम आवुं वर्णन कर्तुं हशे ? मजानी वात तो पाछी एछे के 'वस्तुपाल प्रबन्ध' मां, स्तम्भनकतीर्थ अने तेना अधिष्ठाता मल्लवादीसूरिनो वस्तुपाल जोडेनो प्रसंग प्रबन्धकारे विस्तारथी वर्णव्यो ज छे ! (पृ. १०९१२) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 81 ३. आवी ज गरबड सिद्धर्षि गणिना सम्बन्धमां पण थई छे. इतिहासविदो द्वारा प्रमाणित थया प्रमाणे याकिनी महत्तरासूनु श्री हरिभद्रसूरिनो सत्तासमय मो शतक लगभग छे. अने त्यारबाद १५०-२०० वर्षे 'उपमितिभवप्रपञ्चाकथा'ना प्रणेता सिद्धर्षिगणि थया होवानुं मनायुं छे. तेओ गृहस्थावस्थामां अठंग द्यूतकार होवानी, अने रात्रे कायम मोडा आवता होई तेमने पाठ भणाववा माटे माताए जाकारो आपतां दीक्षा लीधानी कथा संप्रदायमा प्रचलित छे. हवे अहीं प्रबन्धकोशकार आ कथा वर्णवती वखते ते गृहस्थ हरिभद्राचार्य पासे लई जईने तेमना हस्ते ज दीक्षा अपावी तेमना ज शिष्य बनावी वाळे छे. पछी तो ते बौद्धो पासे भणवा जाय, गुरुने दीधेला वचन खातर पाछा फरे, आवुं २१ वार बने; अने छेवटे 'ललितविस्तरा' वृत्ति तेमने ज माटे हरिभद्राचार्य बनावे छे अने पोथी रेढी मूकीने गुरु क्यांक जता रहे छे त्यारे सिद्धर्षि पोथी वांची प्रतिबोध पामे छे वगेरे कथानक वर्णवेल छे. आम भेळसेळ थवानुं कारण 'उपमिति कथा'ना मंगलाचरणमां आवतो, प्रबन्धकारे पण टांकेलो आ श्लोक होय तेम वधु संभवित लागे छे : नमोऽस्तु हरिभद्राय तस्मै प्रवरसूरये । मदर्थं निर्मिता येन वृत्तिर्ललितविस्तरा ॥" (पृ. २५-२६) बाकी जो आ ज श्लोक परत्वे बारीकीथी चिन्तन थाय तो तरत ख्याल आवे के जो पोताना गुरु ज होय तो तेमने माटे 'तस्मै प्रवरसूरये" वो परोक्षतासूचक प्रयोग कोई शिष्य न ज करे; बल्के तेमने माटे तो, जरा जुदी ज भावभङ्गीथी प्रतिपादन करे. ४. केटलाक ग्रन्थो विषे आ ग्रन्थमां सरस जाणकारी मळे छे. दा.त. 'पञ्चसूत्रक' ए हरिभद्रसूरिनी रचना छे तेवो स्पष्ट निर्दश (पृ. २५) अहीं हरिभद्रसूरिरचित ग्रन्थोनी सूचिमां थयेलो जोवा मळे छे. तो गौडदेशना कवि वाक्पतिराजे 'गौडवहो' उपरांत 'महामहविजय' नामनुं एक बीजुं प्राकृत महाकाव्य पण रचेलुं तेवो उल्लेख पण आ ग्रन्थमां प्राप्त थाय छे. (पृ. ३७) प्रसंगोपात्त, आ वाक्पति - कवि उत्तरावस्थामां त्रिदण्डी संन्यासी बने Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 अनुसंधान - २३ छे त्यारे तेमने आ. बप्पभट्टीसूरि प्रतिबोध पमाडीने जैन दीक्षा आपवापूर्वक जैन मुनि बनावे छे तेवी विलक्षण ऐतिहासिक घटनानी पण आमां नोंध थई छे. (पृ. ३९) वत्सराज - उदयन ( वासवदत्ता) प्रबन्धमां 'नागमत' नामे ग्रन्थ (के पछी संप्रदाय ? ) नो उल्लेख पण अहीं मळे छे. (पृ. ८८) ५. आजे जैन संघमां संवत्सरी पर्व - भाद्रपद शुदि चोथ/पांचम ए मुद्दे विविध वितंडावाद - विसंवाद प्रवर्ते छे. त्यारे आ प्रबन्धकोशमां (अने प्रभावकचरित आदि ग्रन्थोमां पण) वर्णवेल आ. बप्पभट्टिसूरिनो प्रसंग अत्यन्त सूचक बनी रहे तेवो छे. अहीं मळता वर्णन मुजब, ज्यारे नागावलोक आम राजा अवसान पाम्यो त्यारे, ते दिवसे भादरवा शुदि पांचम हती; राजा तथा बप्पभट्टिसूरि गंगानदीमां नौकाविहार करी रह्या हता; त्यारे राजानुं मृत्यु थयुं हतुं प्रबन्धनो पाठ आ प्रमाणे छे : " सह सूरिणा नावारूढो गङ्गासरित्तीरे तीर्थं मागधं गतः । तत्र जले धूमं दृष्टवान् । तदा सूरीन्द्रमक्षमयत् । संसारमसारं विदन् अनशनमगृह्णात् । समाधिस्थः श्रीविक्रमकालात् अष्टशतवर्षेषु नवत्यधिकेषु व्यतीतेषु भाद्रपदे शुक्लपञ्चम्यां पञ्च परमेष्ठिनः स्मरन् राजा दिवमध्यष्ठात् ।" (पृ. ४३) अने बप्पभट्टिसूरि शिथिलाचारी हता, तेवुं पण नथी. वास्तवमां तो तेओ ज्यारे स्वर्गारूढ थया त्यारे शासनदेवताए तेमना शिष्योने कह्युं के तमारा गुरु ईशान (बीजा) देवलोकमां गया छे. (पृ. ४५). सार एटलो ज के भाद्र शुदि चोथ निमित्ते चालता विखवादो वधारनार - चलावनार लोको माटे, जो परिणति जेवुं होय तो, आ प्रसंग बहु मार्मिक अने बोधदायक बनी रहे तेवो छे. ६. केटलाक उल्लेखो इतिहास - पुरातत्त्वनी दृष्टिए आगवुं महत्त्व धरावनारा जणाय छे. तेवा उल्लेखो पर एक दृष्टिपात करीए : • वटपद्रपुर ( वडोदरा ? ) ना राणा यशोभद्रे श्रीदत्तसूरि आचार्य पासे डिण्डुआणा गामे जई दीक्षा लीधी; ते पूर्वे पोतानो मूल्यवान हार त्यांना श्रावकोने आपीने तेमांथी सुन्दर प्रासाद (देरासर) कराव्यो. ते विषे प्रबन्धकार Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 83 नोंधे छे के "अद्यापि दृश्यते स तत्र ।" (पृ. ४६). आ प्रसंग संभवतः १०मा सैकानो छे. • आजना महाराष्ट्रमां- दक्षिण भारतमां कोल्हापुर नगर छे, अने . त्यां महालक्ष्मी देवीनु प्रसिद्ध पीठरूप प्राचीन मन्दिर छे. ते विषे आ ग्रन्थमां वर्णवाता एक कथात्मक प्रबन्धमां-सातवाहन प्रबन्धमा आवो उल्लेख छ : "क्रमात् प्राप्तौ कोल्लापुरम् । तत्रस्थं महालक्ष्मीदेव्या भवनं प्रविष्टौ ।" (पृ. ७०-७१). आनो अर्थ एम करी शकाय के आ बे वानां, ओछामां ओछु, १४मा सैकामां विद्यमान हतां ज. • वंकचूलप्रबन्धमां चर्मण्वती (आजनी चंबल) नदीना किनारे वंकचूल द्वारा चैत्यनिर्माण, नदीमांथी महावीरस्वामीनुं तथा जीवन्तस्वामीरूप पार्श्वनाथनुं बिम्ब कढावी तेमां प्रतिष्ठा वगेरेनुं कथानक प्रबन्धकारे आलेख्युं छे. तेमां कांईक सेळभेळ (बे भिन्नकालीन बनावोनी) थई होय तेवो वहेम पडे छे. परन्तु, ते प्रतिमाओ ने मन्दिर अंगे प्रबन्धकारनी नोंध ध्यानार्ह छे. ते नोंधे छे के : - १. अद्यापि तथैवास्ते (पृ. ७६) । २. अद्यापि तत् किल तत्रै वास्ते (पृ. ७७) । (अहीं 'तत्' एटले ते जिनबिम्बो). ३. अद्यापि स भगवान् श्रीवीरः, स च चेल्लणपार्श्वनाथः, सकलसङ्घन तस्यामेव पुर्यां यात्रोत्सवैराराध्यते इति । (पृ. ७७). • सिद्धयोगी नागार्जुनना प्रबन्धमां नागार्जुने रैवतक गिरिनी तळेटीमां दशाहमण्डप करावेलो ते ऐतिहासिक बीना विषे आ प्रमाणे नोंध आ ग्रन्थ आपे छे : "येन खटिकासिद्धिवशाद् दशाहमण्डपादिकीर्तनानि रैवतकोपत्यकायां कृतानि" । (पृ. ८६) • गिरनार पर्वत परना तीर्थपति नेमिनाथनुं आजे विद्यमान बिम्ब कोनुं भरावेलुं हशे ? ते बाबते प्रकाश पाडतो एक नोंधपात्र उल्लेख आ ग्रन्थगत 'रत्नश्रावकप्रबन्ध मां सांपडे छे. (घणीवार भ्रमणा थाय छे के आजे छे ते बिम्ब मंत्री वस्तुपाले भराव्यु हशे. पण तेमना चरित्रमा तेमणे ते बिम्ब भराव्यानो क्यांय उल्लेख नथी.) आ प्रबन्ध वर्णवे छे तेम, अम्बिका देवीनी सूचनाथी पर्वतीय गुफाभण्डारमा सुरक्षित एवी आ पाषाणमयी प्रतिमा रत्न श्रावक लई आव्या, अने पूर्वनी वेळुमय (sand stone) प्रतिमा जे पोताना Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 अनुसंधान-२३ हाथे अभिषेकसमये ओगळी गई हती तेना स्थाने ते प्रतिमा स्थापित करी. आ आखी वात विगते वर्णवीने प्रबन्धकार नोंधे छे के - "रत्नस्थापितं नेमिबिम्बमिदं यद् वन्द्यमानमास्तेऽधुना" । (पृ. ९७) आ एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक नोंध गणाय. • कोईने अतिशयोक्तिपूर्ण लागे, तो मोटा भागना जनोने गळे ज ना ऊतरे तेवी एक विलक्षण वात पण आमां जडे छे, वस्तुपालप्रबन्धमां. दिल्लीना सुलतान मौजदीननी मातानी हजयात्रा अंगेनो वस्तुपाल मंत्रीनो प्रसंग अत्यन्त प्रसिद्ध छे. ते प्रसंगे वस्तुपाल मक्कानी मसीद माटे पाषाणनिर्मित कलात्मक तोरण मोकलवा उपरांत दीवा माटे तेल वगेरे सामग्री सहित घj घणुं त्यां अर्पण करवा मोकले छे. आ प्रसंगे प्रबन्धकार नोंधे छे के - मक्काशरीफ के काबानो पत्थर ए शुं छे वास्तवमां ? तो "श्री नाभेयपादुकास्थाने महामण्डपश्च तत्र । परमार्थतस्तीर्थमिदं श्रीऋषभपादुकामयं बाहुबलिना कृतम् ।" (पृ. ११९) ___अने अत्यारे हजयात्राए जनार के गयेल कोई प्रमाणिक ने साफदिल हाजी साथे अन्तरंग चर्चा करीए, तो आ वर्णन साथे मेळ धरावती घणी विगतो सांपडे छे, एटलुं ज नहि, त्यां करवामां आवता क्रियाकांड तथा वेषपरिधानादि विषे पण घणी समजवायोग्य वातो सांपडी रहे छे. ७. वस्तुपालना जीवन साथे संकलित बे-त्रण घटना जोवा जेवी छे. • रैवतगिरिनी यात्राए जता यात्रिको पासे,त्यां वसता 'भरडा'ओ यात्राकर (परंपरागत होवाथी) उघरावता होवा- मंत्रीना ध्यान पर आवतां तेमणे ते लोकोने 'कुहाडी' नामे गाम बक्षीसरूपे आपीने कर-उघराणी कायम माटे अटकावी. (पृ. १२०) __वर्तमानमा सिद्धाचलतीर्थे बारोट लोको द्वारा फल नैवेद्यादिनी आवक लई जवानो प्रश्न उकेलती वखते, आपणा वडीलोए एक फण्ड ऊभुं करीने बारोटोना कल्याणार्थे अर्पण करी पेली आवक लई जवानी कायम माटे बंध करावी- ते व्यवस्था, वस्तुपालीय व्यवस्था साथे केटली मळती आवे छे ! • राणा वीरधवलनो देहान्त थयो, त्यारे अनेक सेवको बळी मरेला, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 85 ते वेळा मंत्री वस्तुपाल पण मरवा तत्पर थया होवा- प्रबन्धकार जणावे छ : "मन्त्री तु काष्ठानि भक्षयन्नपरापरैर्मन्त्रिभिनिषिद्धः ।" (पृ. १२५). आ घटनाने सामाजिक दृष्टिए विचारीए तो राजा-मंत्री वच्चे केटलुं .. स्नेहाद्वैत हशे के आवो शाणो मंत्री पण बळी मरवानी हदे विह्वळ थाय ! • वस्तुपाल अने अनुपमादेवी मरणोपरांत महाविदेह क्षेत्रमा गया होवानी कथा छे. ते अंगे आ प्रबन्धकार असन्दिग्ध शब्दोमां आ प्रमाणे नोंध मूके छे : "मन्त्रिणि दिवंगते श्रीवर्धमानसूरयो वैराग्यादाम्बिलवर्धमानतपः कर्तुं प्रारेभुः । मृत्वा शङ्केश्वराधिष्ठायकतया जाताः । तैर्मन्त्रिणो गतिविलोकिता, परं न ज्ञाता । ततो महाविदेहे गत्वा श्रीसीमन्धरो नत्वा पृष्टः । स्वाम्याह अत्रैव विदेहे पुष्कलावत्यां पुण्डरीकिण्यां पुरि कुरुचन्द्रराजा संजातः । स तृतीये भवे सेत्स्यति । अनुपदेजीवस्तु अत्रैव श्रेष्ठिसुताऽवार्षिकी मया दीक्षिता पूर्वकोट्यायुः । प्रान्ते केवलं मोक्षश्च । सा एषा साध्वी व्यन्तरस्य दर्शिता । तदनु तेन व्यन्तरेणात्रागत्य तयोर्गतिः प्रकटिता ।" (पृ. १२८) ___ अलबत्त, आ विषय मात्र श्रद्धालुओनो छे. बुद्धिवादी जनोने आमां भाग्ये ज रस पडे. ८. आजे 'गोहिलवाड' तरीके ओळखातो प्रदेश वस्तुपालना वखतमां पण 'गोहिलवाटी' नामे ज ओळखातो होवानो इशारो आ ग्रन्थमां प्राप्त छे. (पृ. १०३). ९. ते काळमां मजबूत बांधकाम माटे, आजे cement वपराय छे तेम, कयो पदार्थ वपरातो हशे ? ते सवालनो खुलासो आ ग्रन्थगत 'आभडप्रबन्ध'मांथी जडे छे. आभडनां कार्यो विषे लखतां प्रबन्धकार लखे छे के _ "पूगहट्टिका १, निजसदनं २, श्रीहेमसूरिपौषधशाला ३- माषपिष्टकेष्टकाचिताऽकारि ।" (पृ. ९८) अर्थात्, पोतानी हाट, पोतानुं रहेठाण अने हेमचन्द्राचार्यना निवासने योग्य उपाश्रय - आ त्रण वास्तुओनुं निर्माण करवामां तेणे 'माष' एटले Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 अनुसंधान-२३ अडदनो लोट तथा 'इष्टका' - ईंटोनो उपयोग कराव्यो. अडद आम पण चीकणो गणाय. तेने पीसीने तेनो मसालो बनाववानी कोई तरकीब ते काळना कडिया-मिस्त्रीओ अजमावतां हशे तेम आ उल्लेखथी लागे छे. ९. 'प्रबन्धकोश'मां पद्यो अने सुभाषितो तो प्रसंगवश अढळक छे, परन्तु रूढिप्रयोग के कहेवत गणाय तेवी लोकोक्तिओ पण घणी छे. थोडीक अहीं नोंधीए : 'कुञ्जरस्कन्धाधिरूढोऽपि भषणैर्भक्ष्यते' । (पृ. ४) हाथीना होद्दे बेठा पछीये कूतरां छोडतां नथी. ‘एकं वानरी, अपरं वृश्चिकेन जग्धा' - मूळे वांदरी, एमां वळी वींछी फटकायो ! (९). 'हनूमति रक्षति सति शाकिन्यः पात्राणि कथं ग्रसन्ते ?' - हनुमाननी चोकी होय त्यां शाकिनीओ 'पात्र'नो कोळियो करी जाय ते शक्य नहि. (१०). ४. 'न खलु यमो भूतानां ध्रायते' - प्राणीओनो कोळियो करतां जमराज कांई धराय नहि. (१०) 'जर्जराऽपि यष्टिः स्थालीनां भञ्जनाय प्रभवत्येव' - जजरी गयेली लाकडी भले होय, पण हांडीने तो ते भांगे ज. (१३). 'मृत्वाऽपि पञ्चमो गेयः' - मरवू कबूल, पण पंचम स्वर तो जरूर गावो. (१४). 'नष्टं मृतं सहन्ते हि पितरो निजतनयम्'- दीकरो भागी जाय के मरी जाय तो ते मावतर सहन करी ले. (जमने सोंपाय पण जतिने नहि - ए भावमां). (२७). ८. 'तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते' - तेजस्वीनी उमर न जोवाय. (२६). ९. 'रत्नानि पुण्यप्रचयप्राप्यानि' - पुण्य होय तो ज रत्न सांपडे. (२६) १०. 'स्वनाम नामाददते न साधवः' सत्पुरुषो पोते पोतानुं नाम न ले. (२७) ॐ3 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 87 ११. 'वात्याभिर्न चलति काञ्चनाचलः' - वंटोळिये कांई मेरु न डगे. (३४). १२. 'अङ्गीकृतसाहसानां न किमपि दुष्करम्' - साहसिको माटे कोई काम कठिन नथी. (५०) १३. 'सेवकस्य च हिताहितविचारो नास्ति' सेवकने पोताना हित-अहितनी परवा न होय. (५१). १४. 'अर्थो हि परावर्तयति त्रिभुवनम्' - पैसो आखी दुनियाने फेरवी शके. (५१) १५. 'यूनां स्त्रीसन्निधानं च मन्मथद्रुमदोहदः' - युवान मनुष्यने स्त्री- साहचर्य मळे तो कामवासना बहेक्या विना न रहे. (६५). - शी. (आ स्वाध्याय माटेनो आधार ग्रन्थ : "प्रबन्धकोश", कर्ता : राजशेखरसूरि, सिंघी ग्रन्थमाला, ई. १९३५, सं. १९९१). Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 अनुसंधान-२३ माहिती नवां प्रकाशनो १. शास्त्रवार्तासमुच्चय (हिन्दी भाषानुवाद - टिप्पणसहित) कर्ता : श्रीहरिभद्रसूरि, अनुवादक : के. के. दीक्षित प्रका. : ला. द. भा.सं. विद्यामन्दिर, अमदावाद द्वितीय मुद्रण : ई. २००२ भवविरहाङ्क सूरिवरनी श्रेष्ठतम दार्शनिक कृतिनो सरस-सरल स्पष्ट हिन्दी अनुवाद, आ ग्रन्थमा प्ररूपित गहन पदार्थोनो सुगम बोध कराववामां खूब उपकारक बने तेम छे. विस्तारथी आ विषयनो अभ्यास करवानी अनुकूलता न होय तेवा संक्षेपरुचि अभ्यासीओ माटे उपयोगी प्रकाशन. २. सुदंसणाचरियं (प्राकृत गाथा-गद्यपद्यात्मक) कर्ता : अज्ञात, संपादक : डॉ. सलोनी जोशी प्रका. : ला.द.भा.सं. विद्यामन्दिर, अमदावाद, ई. २००२ खंभातना श्रीशान्तिनाथ ताडपत्रभंडारमा प्राप्य एक मात्र ताडपत्रीय प्रतिना आधारे करवामां आवेलुं संपादन. भृगुकच्छ-भरुचना समळीविहार नामना जैन चैत्य साथे संकळायेल समळी-राजकुमारी सुदर्शनानुं इतिवृत्त वर्णवती आ रचनाना प्रकाशनथी प्राकृत भाषा-साहित्यमां एक मूल्यवान ग्रन्थनो उमेरो थाय छे. प्रति अशुद्ध, त्रुटित पाठो, एकमात्र पोथी - आ स्थितिमां "प्राकृत' साहित्य पर काम करवू ए स्वयं एक प्रकार साहस ज गणावू जोईए. आना करतां 'संस्कृत'नी कोई कृति पर काम करवानुं वधु अनुकूल बनी रहे. परंतु संपादिका बहेने कंटाळ्या विना आ कठिन कार्य पार पाड्यु, ते बदल तेमने अभिनन्दन घटे छे. खास करीने आजे आपणे त्यां प्राकृत साहित्य विषे काम करनारा के अध्ययन करनाराओनो जे विकट अकाल (लगभग) प्रवर्ते छे, त्यारे तो आवं कार्य करनारने विशेष धन्यवाद आपवा ज रहे. विस्तृत प्रस्तावना तथा उपयोगी परिशिष्टो होवाथी आ ग्रन्थ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 विद्वानोमां वधु आदेय बनशे. ३. पाटण जैन धातुप्रतिमा-लेखसंग्रह संकलन-संपादन : लक्ष्मणभाई ही. भोजक प्रका. : मोतीलाल बनारसीदास प्रा.लि. तथा भो.ल.इन्स्टिट्यूट ऑफ इन्डोलोजी, दिल्ली, ई. २००२ गुजरातनुं जूनुं पाटनगर पाटण, त्यांना शताधिक जैन देरासरोमां विद्यमान सेंकडो धातुप्रतिमाओना लेखोनुं वांचन करीने तेने लिपिबद्ध करवा पूर्वक ग्रन्थबद्ध करवानु अत्यन्त कष्टसाध्य कार्य आ पुस्तकरूपे आपणी समक्ष आव्युं छे. आ विकट कार्य, आटली श्रेष्ठ पद्धतिथी, मात्र लक्ष्मणभाई ज करी शके, एम कहेवामां लेश पण अत्युक्ति नथी. १७३७ लेखो, विविध उपयोगपूर्ण परिशिष्टो वगेरेना संचयरूप आ ग्रन्थ एक ऐतिहासिक सन्दर्भग्रन्थनी गरज सारशे, तेमां शंका नथी. ४ OSIAJI - Temple of Mahavira (Monograph) By Ravindra Vasavada प्रका. ला.द.विद्यामन्दिर अने आणंदजी कल्याणजीनी पेढी, अमदावाद ई- २००१ (अंग्रेजी भाषामां) उपकेश-ओसवाल वंश, उपकेश गच्छ इत्यादिना उद्गमस्थानरूप, राजस्थाननुं ओसिया तीर्थ ए प्राचीन जैन तीर्थ छे. तेनां पुरातन मन्दिरोनो इतिहास अने स्थापत्यनी दृष्टिए सुग्रथित अभ्यास आपतुं सुन्दर प्रकाशन. विविध छबीओ (Plates) अन नकशाओ (Maps) आ पुस्तक, महत्त्वपूर्ण अंग छे. ला.द.विद्यामन्दिर द्वारा स्वीकारायेल Project for studies in Temple Architecture श्रेणीनुं आ प्रथम प्रकाशन छे. 5. Jainism and the New Spirituality By Vastupal Parikh Peace Publications, Toronto, Canada, 2002 विदेशोमां वसता जैन बन्धुओनी, जैन तत्त्वज्ञान विषे जाणवानी Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 अनुसंधान - २३ ऊंडी जिज्ञासाने संतोषवा माटेनो एक सरस प्रयत्न एटले आ प्रकाशन. सुंदर अने सचित्र प्रोडक्शन, अभ्यासपूर्वकनुं आलेखन, जैनोना तमाम फिरकाओने तथा दरेकनी मान्यताओने सांकळीने रजूआत थई होई पायाना जैन तत्त्वज्ञान परत्वे सारो भार अपायो जणाय छे. जैन ग्रन्थो तथा ग्रन्थकारो विषे आपवामां आवेली माहिती तद्दन स्थूल कक्षानी लागे. जैन वेबसाइट्सनी सूचि आपी छे जे तेना रसिकोने उपयोगी थाय तेवी छे. ६. प्रबुद्धरौहिणेयनाटक प्रबन्धः मुनि रामभद्रकृत गुज. भावनुवाद सह, अनुवादक : विजयशीलचन्द्रसूरि प्रकाशक : जैन साहित्य अकादमी, गांधीधाम (कच्छ), ई. २००३ मूळ श्रीपुण्यविजयजी द्वारा संपादित नाटकरचना पण पुनः मुद्रित करवामां आवी होवाथी अभ्यासी जनोने उपयोगी थशे. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ April-2003 माहिती 1666 जैन पाण्डुलिपिओनुं सूचीकरण तथा संरक्षण भावनगर (सौराष्ट्र) स्थित श्रीसत् श्रुत प्रभावना ट्रस्ट द्वारा, भारतना अन्यान्य प्रान्तोना क्षेत्रोमां स्थित १०७ दिगम्बरीय ह. लि. शास्त्र भण्डारोनी आशरे ४० हजार पाण्डुलिपिओनी सूचि बनावीने तेने कम्प्यूटरमा Feed करवामां आवी छे उपरांत, मुद्रित सूचिपत्रोना आधारे पण १४५४२ ग्रन्थोनी सूचि Feed करेल छे. आमांथी अप्रकाशित कृतिओनुं जुदुं सूचीकरण करीने तेवी प्रतिओनुं स्केन करवा द्वारा C. D. बनाववानी पण योजना छे. हजी पण आ योजना हेठळ कार्य जारी ज छे. 91 अलबत्त, आ आयोजन फक्त दिगम्बर संघना भण्डारो पूरतुं मर्यादित छे. आम छतां, आ समग्र आयोजन अत्यन्त उपयोगी तथा आवश्यक छे ते विषे बे मत नथी. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________