SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5 अनुसंधान-२३ क्रिया शुक्लध्यान कहीजइ । ए ध्यान ध्यावतां अवगाहना देहमानमई तीजो भाग घटावइ । इम शरीर छोडि इहांथी सात राज उपरिलोकनई अंतइ जाय सिद्ध थाय । इहां शिष्य पूछइ छइ । जे चउदमइ गुणठाणइ तो अक्रिय छइ तो सात राज ऊंचउ गयो ते सिद्धई ए क्रिया किम करइ छइ । तिहां उत्तर कहइ छइ । जे सिद्ध तो अक्रिय छइ परं प्रेरणाइं तूंबीनइं दृष्टांतरं जीवमई चालवारो गुण छइ । धर्मास्तिकायमइ प्रेरणा गुण छड् । तिणई कर्मरहित जीव मोक्ष जाइ । लोकनइ अंतइ जाय रहइ । तिहां कोई पूछसी जे आगइ उंचउ अलोक तिहां किम जावइ नही। तिहां कहइ छइ । जे आगइ धर्मास्तिकाय नही तिणइं न जाइ । अधो नीची गति किम न जावइ । तिहां कहइ कर्मरइ भारतूंरहित छइ हलको छइ । तिणइ नीचो न जावइ । डाबो जीमणो न जावइ । जे कारण प्रेरक कोई नही । अरु कंपइ नही जे अक्रिय छइ । कोई पूछसी जे सिद्धनई वली कर्म क्यु न लागई । तिहां कहइ जे कर्म तो अज्ञानसूं अनई योगसूं लागइ छइ । ते सिद्ध जीवनइ अज्ञानयोग खखाव्या (खपाव्या) तिणई कर्म लागइ नहीं । ए च्यार ध्याननो अधिकार कह्यो । हिवई वली बीजा च्यार ध्यान कहइ छइ । पदस्थ १ पिंडस्थ २ रूपस्थ ३ रूपातीत ४ । हिवइ पदस्थ ध्यान कहइ छइ । जे अरिहंत सिद्ध पंच पदना गुण चीचीतारी ध्यान करणो ते पदस्थ ध्यान कहीजइ ।१। हिवइ पिंडस्थ ध्यान कहइ छइ । जे पिंड कहतां शरीर ते माहि रहाउं छइ ए आपणो जीव तेहमइ अरिहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु घणेरा गुण सर्व छइ एहवउं जे ध्यान ते पिंडस्थ ध्यान जाणिवो ।२। ___ हिवइं रूपस्थ ध्यान कहइ छइ । जे रूपमइ रह्यो थको पिण ए माहरो जीव अरूपी अनंत गुणी छइ एहवो जे ध्यान ते रूपस्थ ध्यान जाणवो। ए तीन ध्यान धर्मध्यानमइ जाणवा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520523
Book TitleAnusandhan 2003 04 SrNo 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy