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________________ 2222 श्रीनाभिभूपतिवंशदिनपतिवृषभजिनपतिपी (री) हितं कुरुतान्मतो जिनसागरस्य च नाकिनायकसम्मतः ॥६॥ ॥ इति श्री युगादिदेवविज्ञप्तिकारूप सुखभक्षिकागभितं स्तोत्रं सम्पूर्ण ||छ | (४) श्रीवीरजिनस्तोत्रं सुखासिकागभितम् जयसि साकर मोदक हे शमी, सुकृतवृक्षजले बिभयक्षयः । क्षितजरामर कीर्तिभर क्षमो, गलदघे वर मुक्तिरमाकरः ॥ १ ॥ दिशतु मेषरमां वर लापसी, खलहलां स्फुरद्राखगिरौ पवे ! । गुणबदाम रिपुक्षयनिर्वृते, रत बनालि अरम्यमुखाम्बुजम् ॥२॥ जन अखोड कपूर करम्बकं, सुजलदाडिमनोहरनिस्वनम् । प्रणम सेवक खांड म घीतिदं, स्फुरदहीशनुतं नतखाजलम् ॥३॥ फाग जनपस्तांजिन खारिकभेदक सार, कुहलापाक दमीदो सोपारी रस सार ॥१॥ सत् सेवइआ मोतीआ कसमसिआ सार, दुष्टकलाडूआ गलपापडी जयजयकार ॥२॥ मांडीनत मंतारय वसुधा मोतीचूर, महसूपकरणकारण कयरीपाकखजूर ॥३॥ मामण पुण्यवसुं हालीनत मंसुखसंग, अनुसंधान- २३ Jain Education International चार्वाचारोलीकर चारविजितमातंग || ४ || वरसोलां नतपदयुग पारगतं नमजाक, जितशोकाकबलीश्वर सुकृत सदाफललोक ॥५॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520523
Book TitleAnusandhan 2003 04 SrNo 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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