Book Title: Anusandhan 2003 04 SrNo 23
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 15
________________ अनुसंधान-२३ अणिच्चं नरत्तं अणिच्चं सुरत्तं, अणिच्चं पहुत्तं अणिच्वं सुहित्तं । . अणिच्चं धणं जुव्वणं वा कुडंबं, अणिच्चं च कामाण सेवाविडंबं ॥७८|| असासया किं न सुया हु भोगा ? किं नो खया कस्स धणाइजोगा ? | दिट्ठा न किं कस्स तणुम्मि रोगा? जं निब्भया चिट्ठह मुद्धलोगा ! ॥७९।। असासया कम्मजुया पयत्था, किं ते कया ताण कए अणत्था । दाऊण सोयं तुह ते पणट्ठा, तणुम्मि कम्माण भरा पविठ्ठा ॥८०॥ भुत्ता न किं कत्थवि कामभोगा धणाइजोगा न हु किं ससोगा । दिट्ठा न किं कस्स गिहे विओगा जं निब्भया चिट्ठह मुद्धलोया ॥८१॥ (द्वारं १६(१७))॥ रूवं बलं जुव्वणरिद्धिरज्जं, आरुग्ग सोहग्ग पहुत्तणं च । जं जं मणुन्नं तमणिच्चयं च, णच्चा बली सुद्धवयं च कुज्जा ॥८२॥ (द्वारं १७(१९) ॥ हयगयरहलक्खेहि वि रयणनिहाणेहिं भवउ सह धरणं । बल-केसव-चक्कीणं तहवि न जमहरणओ सरणं ॥८३।। जो तिहुयणसंहरणं कुणइ हरी तस्सऽहो पुणो मरणं । इय नाऊण असरणं वसुदत्तो गिण्हए चरणं ॥८४॥ लोहाइधम्मधरणं भवउ तहा विविहदेवतासरणं । बहुविहमोसहकरणं तहवि हु मरणे न को सरणं ॥८५।। गिण्हइ जमो नियरणं कुणइ कुडंबं गिहाउ नीहरणं । सुरअसुरहरिनराणं जया तया नत्थि को सरणं ॥८६।। (दारं १८(२०)।। आया सया वच्चइ जीव एगो जाओ मओ जत्थवि तत्थ एगो । सयंकडं भुंजइ एस एगो चिच्चा य सव्वं दुहमेइ एगो ॥८७॥ जीव ! तुम जइ एगो कुणसि ममत्तं तु तुज्झ अविवेगो । जो होइ इह च्छेगो एगत्ते तस्स सुविवेगो ॥८८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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