Book Title: Anusandhan 2003 04 SrNo 23
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 80
________________ 75 April-2003 लिपिकारो हुस्व 'उ'नुं चिह्न ७ विशिष्ट ढबे लखता, जेनाथी 'सु'नी भ्रांति थई शके. आ विषयमां संपादक - संशोधक वधु चोक्कस निर्णय लई शके. 'सुसमय' शब्द अर्थनी दृष्टिए पण वधु स्वाभाविक पण छे. प्रभु- 'पोतानुं शासन' के 'पोताना सिद्धांत' जेवू न होय, सत्यना निरूपण साथे ज तेमने तो सम्बन्ध होय, तेथी ‘साचासारा सिद्धान्तरूपी कमलो माटे सरोवर समान' ए विशेषण वधु उचित ठरे. महो. श्री यशोविजयजीनी एक अन्य अपूर्ण कृति आ अंकमां जोवा मळे छे. गत अंकमां प्रकाशित 'पाखण्डिस्वरूपस्तोत्र'नी अवचूरि पाछळथी मळी, ते पण आ अंकमां छे. पृ. २७ पर नीचेथी बीजी पंक्तिमा 'सप्तभेदा०' छे त्यां 'सप्रभेदा०' होवू घटे. आ अंकनी मुख्य रसप्रद कृति छे-कवि दीपविजयजीकृत 'समुद्रबन्ध' चित्रकाव्य. ३६ दोहरा क्रमशः ३६ पंक्तिओमां आलेखी समुद्र जेवो देखाव ऊभो कर्यो छे. अने एमां हार, धनुष, वज्र, पर्वत जेवी आकृतिओमां संस्कृत, व्रज वगेरे भाषाओना श्लोक-दूहा गोठव्या छे. स्वाभाविक रीते ज आवी मिश्र रचनामां भाषाकीय अने व्याकरण सम्बन्धी छूट लेवी पडे, पण तेनाथी कृतिनी चमत्कृति अथवा कविनी कल्पकताने लेश पण हानि थती नथी. कर्ताना स्वहस्ते लखायेला वस्त्रपट परथी आ संपादित थई छे ए वळी विशेष नोंधपात्र मुद्दो. आ पंक्तिओना लेखकने हमणां ज आवा अन्य समुद्रबन्धो मांडवी-कच्छना खरतरगच्छीय भंडारमा जोवा मळ्या. (मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी आवां चित्रकाव्यो पर काम करी रह्या छे एवा खबर मळ्या छे.) आवी कृतिओनो अभ्यास भाषा, कवित्व, इतिहास अने इतिहासबोध जेवा विविध दृष्टिकोणोथी थई शके अने थवो जोईए. 'जिनपूजाविधि' शीर्षकवाळो, संभवतः १७मा सैकानो, गद्य मारुगूर्जर लेख जिनपूजाविधिना संदर्भ मूल्यवान माहिती पूरी पाडे छे. वर्षों पूर्वे हाथ लागेलो आ लेख आटला वर्षे 'अनुसन्धान'मां प्रकाशन पाम्यो ए वाते आनन्द थाय ज, किन्तु आवी सामग्रीनो उपयोग-विनियोग रूढि-परंपराना परिमार्जन अर्थे संघनायको करता थाय तो ए आनन्द चोगणो थशे ! १. 'सुसमय' पाठ ज छे. रभसवश 'स्वसमय' वंचायुं छे. (सं.) || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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