________________
April-2003
81
३. आवी ज गरबड सिद्धर्षि गणिना सम्बन्धमां पण थई छे. इतिहासविदो द्वारा प्रमाणित थया प्रमाणे याकिनी महत्तरासूनु श्री हरिभद्रसूरिनो सत्तासमय मो शतक लगभग छे. अने त्यारबाद १५०-२०० वर्षे 'उपमितिभवप्रपञ्चाकथा'ना प्रणेता सिद्धर्षिगणि थया होवानुं मनायुं छे. तेओ गृहस्थावस्थामां अठंग द्यूतकार होवानी, अने रात्रे कायम मोडा आवता होई तेमने पाठ भणाववा माटे माताए जाकारो आपतां दीक्षा लीधानी कथा संप्रदायमा प्रचलित छे. हवे अहीं प्रबन्धकोशकार आ कथा वर्णवती वखते ते गृहस्थ हरिभद्राचार्य पासे लई जईने तेमना हस्ते ज दीक्षा अपावी तेमना ज शिष्य बनावी वाळे छे. पछी तो ते बौद्धो पासे भणवा जाय, गुरुने दीधेला वचन खातर पाछा फरे, आवुं २१ वार बने; अने छेवटे 'ललितविस्तरा' वृत्ति तेमने ज माटे हरिभद्राचार्य बनावे छे अने पोथी रेढी मूकीने गुरु क्यांक जता रहे छे त्यारे सिद्धर्षि पोथी वांची प्रतिबोध पामे छे वगेरे कथानक वर्णवेल छे.
आम भेळसेळ थवानुं कारण 'उपमिति कथा'ना मंगलाचरणमां आवतो, प्रबन्धकारे पण टांकेलो आ श्लोक होय तेम वधु संभवित लागे छे :
नमोऽस्तु हरिभद्राय तस्मै प्रवरसूरये ।
मदर्थं निर्मिता येन वृत्तिर्ललितविस्तरा ॥" (पृ. २५-२६)
बाकी जो आ ज श्लोक परत्वे बारीकीथी चिन्तन थाय तो तरत ख्याल आवे के जो पोताना गुरु ज होय तो तेमने माटे 'तस्मै प्रवरसूरये" वो परोक्षतासूचक प्रयोग कोई शिष्य न ज करे; बल्के तेमने माटे तो, जरा जुदी ज भावभङ्गीथी प्रतिपादन करे.
४. केटलाक ग्रन्थो विषे आ ग्रन्थमां सरस जाणकारी मळे छे. दा.त. 'पञ्चसूत्रक' ए हरिभद्रसूरिनी रचना छे तेवो स्पष्ट निर्दश (पृ. २५) अहीं हरिभद्रसूरिरचित ग्रन्थोनी सूचिमां थयेलो जोवा मळे छे.
तो गौडदेशना कवि वाक्पतिराजे 'गौडवहो' उपरांत 'महामहविजय' नामनुं एक बीजुं प्राकृत महाकाव्य पण रचेलुं तेवो उल्लेख पण आ ग्रन्थमां प्राप्त थाय छे. (पृ. ३७)
प्रसंगोपात्त, आ वाक्पति - कवि उत्तरावस्थामां त्रिदण्डी संन्यासी बने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org