Book Title: Anusandhan 2003 04 SrNo 23
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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वनमां पाछा फरे छे.
आ समये वनमां लाकडां कापनार भक्तिभावपूर्वक पारणं करावे छे. पासे उभेलो नील मृग आ निरखी रह्यो छे, एवामां झाडनी डाळी पडे छे अने तेनी नीचे कठियारो, मृग तथा मुनि दबाई जायछे. पुण्यनुं भाधुं लई तेओ पांचमा देवलोके पहोंचे छे.
आठ कडीनी आ सज्झायमां आम बलदेवमुनिनुं जीवनवृत्तांत सुंदर ते निरूपित थयुं छे.
अनुसंधान - २३
विभाग २
बलदेव महामुनि तप तपइ वनि, लेई संयमभार रे दारु- छेदक कबहइ को दीइ पारणइ लीइ आहार रे माई तुंगिआगिरि सिखरि सोहि ॥१॥
राम मुनि सुख कंद रे, वाघ मृग शशा सिंघ, चीतर बुझवइ पशुवृंद रे ॥२॥ तुंगि
केई मृगपति हुया श्रावक, केइ अणसण लेइ रे, धरिय समकित मांस छांडि, जाति समरण केइ रे ॥३॥ तुंगि
रूप सुंदर अति पुरंदर, चाल्यउ नयर मझारि रे मास पारणे गोचरी जब, पेखिउ किनइ नारि रे ||४|| तुंगि
कूप कंठई मदन मोही, नयन मषि ना लेइ रे. कुंभ चूकी पुत्र पास्या, कूया भीतरि देइ रे ||५|| तु० चतुर चिंत रूप मेरु, कामिनी मृग पासि रे, गोचरीकुं नयरि नाउं भला मुज वनवास रे ॥६॥०
मास पारणि आह (हा ) र दइ तब, रथिक भगति विशाल रे हरिणला गुण नीला निरखइ, चंपिआ तरु डालि रे ||७|| तु० रथकार मृग बलदेव मुनिसुं, तब चल्या संबल लेई रे पंचमि सुरलोकि पोहता, सकल भवि सुख देई रे ||८|| तु०
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