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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014
किन्तु निरंश मानते हैं। आचार्य विद्यानन्दि स्वामी का कथन है कि जो निरंश होगा, वह सम्पूर्ण स्थानों में व्याप्त कैसे हो सकता है ? अथवा जो व्यापक है, वह निरंश कैसे हो सकता है ? अतः वैशेषिकों के द्वारा आकाश को व्यापक मानते हुए भी निरंश मानना समीचीन नहीं है। निरंश व्यापक नहीं हो सकता है। जैसे परमाणु निरंश है, इसलिए व्यापक नहीं है। वैशेषिक आकाश के निरंशपने को सिद्ध करने में सर्वजगद्व्यापकपना हेतु देते हैं वह, कालात्यापदिष्ट या बाधितविषय हेत्वाभास है। क्योंकि आकाश को निरंशता अनुमान एवं आगम प्रमाण से बाधित है। यथा आकाश अंशों सहित है। एक ही बार में भिन्न-भिन्न देशवर्ती द्रव्यों के साथ संबन्ध होने से। भित्ति आदि के समान । इस प्रतिज्ञा, हेतु एवं अन्वय दृष्टान्त से आकाश के सांशपने की सिद्धि हो जाती है ।५६
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शब्द आकाश का गुण नहीं :
वैशेषिक शब्द गुण वाले द्रव्य का नाम आकाश मानते हैं, वह एक विभु एवं नित्य है।" उनके अनुसार आकाश का लक्षण है ‘शब्दसमवापिकारणम् आकाशत्वम्' अर्थात् जो शब्द का समवायिकारण है, वह आकाश है। विभु का लक्षण है- 'सर्वमूर्तद्रव्यसंयोगित्वं विभुत्वम्' अर्थात् जो सम्पूर्ण मूर्त द्रव्यों का संयोगी है, उसे विभु कहते हैं। विभु चार माने गये हैंआकाश, काल, दिक् और आत्मा । मूर्त का लक्षण है- ‘क्रियावत्त्वं मूर्तत्वम्’ अर्थात् जिसमें क्रिया रहती है, उसे मूर्त कहते है । मूर्त द्रव्य पाँच माने गये हैंपृथिवी, अप्, तेज, वायु और मन । ८
वैशेषिकों द्वारा शब्द को आकाश का गुण माना जाना पहले ही खण्डित किया जा चुका है। क्योंकि शब्द तो पुद्गल की पर्याय है। पुद्गल द्रव्य के वर्णन में शब्द को पौद्गलिक सिद्ध किया जा चुका है। शब्द इन्द्रियग्राह्य है, उसे पकड़ा जा सकता है - यह वैज्ञानिक प्रयोगों से भी सिद्ध किया जा चुका है।
आकाश के भेद :
आकाश दो भागों में विभक्त है - लोकाकाश और अलोकाकाश । ९ आचार्य पूज्यपाद ने इनका लक्षण करते हुए कहा है- 'धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि