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अनेकान्त/२५
अर्थ:-श्री पडित टोहरमलजी द्वारा लिखी गई हिन्दी टीका का भाव यह है कि-व्रत और तप के द्वारा स्वर्ग का प्राप्त होना अच्छा है परन्तु अव्रत और अतप के द्वारा नरक के दुःख प्राप्त होना अच्छा नहीं है।
छाया और घाम मे बैठकर इष्ट स्थान की प्रतीक्षा करने वालों में बड़ा भेद है। यही बात आचार्य पूज्यपाद ने भी 'इष्टोपदेश' में लिखी है। परन्तु 'दिगम्बर जैन लश्करी मंदिर गोराकुण्ड इंदौर' द्वारा प्रकाशित “पाप पुण्य और धर्म नाम की अपनी पुस्तक मे मुमुक्षु प्रवक्ता श्री पण्डित रमेशचन्दजी शास्त्री बांझल ने उक्त गाथा को बदलकर उसमे से 'मा' शब्द निकाल दिया है और विपरीत अर्थ लिखकर पाठकों की श्रद्धा को विचलित कर दिया । लेखक ने लिखा है कि जैसे पथिक को गंतव्य स्थान तक पहुंचने मे छाया और आतप दोनो ही समान हैं। वैसे ही मोक्ष मार्ग में पुण्य और पाप और पुण्य को समान ही बताते रहते है। आचार्यों के अभिप्राय के वे विरोधी हैं। जिन पूजा के व्रत आदि पर वे श्रद्धा नहीं रखते । व्रती व दिगम्बर मनिराजों मे उनकी आस्था नही है। इन्दौर में वर्षा योग कर रही पूज्य आर्यिका माताश्री आदर्शमती (ससघ) के साथ यहाँ मल्हारगज में ऐसा ही व्यवहार हुआ जिसे उन्हें अपने प्रवचन मे समालोचना करनी पड़ी। २. दूसरी पुस्तक अभी २३ नवम्बर ९७ को 'स्वाध्याय मण्डल रामाशाह दि जैन मन्दिर मल्हारगंज, इदौर द्वारा प्रकाशित ५००० प्रति उक्त प्रवचनकार श्री रमेशचदजी शास्त्री बांझल ने लिखी है और विमोचन कराई है, उसका नाम "जिनेन्द्र पूजन एक अनुचितन” पृष्ठ १४४ जिसमे उक्त “पाप पुण्य और धर्म' के २३ पृष्ठ सम्मिलित है। उसका “प्राक्कथन लिखकर सावधान किया था कि इस पुस्तक के विरोध में मैने जो लिखा है या तो सुधार कर देवें या मेरे द्वारा लिखा प्राक्कथन पूर्ण छपवा देवे । खेद है कि मेरे “प्राक्कथन” मे से प्राय. सभी अंश निकालकर मेरे विचारो के विरुद्ध मेरे नाम से ही अपना मन्तव्य जोड़ दिया। इसे मायाचार कहना अनुचित नही होगा। जैसे प्रथम पृष्ठ पर मैने लिखा था कि मूर्ति की शुद्धि याने सफाई बताकर मेरे अभिषेक पाठ के प्रमाण को प्राक्कथन मे से निकाल दिया। मेरे पास मेरे लेख की फोटो कॉपी है। क्या धार्मिक लोग मूर्ति की शुद्धि हेतु अभिषेक करते है? ऐसी शुद्धि (सफाई) तो पुजारी भी कर देवें। इससे हमारी आस्था को कितना आघात पहुँचा है, विचारणीय है। उक्त प्रथम पुस्तक के उस बदले हुए अश को भी हमे श्री ब्र० अशोक जी दशमप्रतिमाधारी परम पूज्य आचार्य शिरोमणि विद्यासागरजी सघस्थ ने बताया था।