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अनेकान्त / २८
१३. “गधोदक ललाट में लगाना चाहिए नेत्र आदि मे नही " यह भी आपका उपदेश ठीक नहीं अभिषेक पाठ में ही "नेत्र ललाटटयोश्च वाक्य दिया है, जिसका अर्थ है नेत्र और ललाट मे गंधोदक लगावें । नेत्र में गंधोदक लगाना आप महापाप बताते है । परमात्मने के स्थान में परमात्माय लिखते हैं।
१४. ह्रीं, संवोषट् निर्वपामीति, अभिषेक, भावपूजा, श्रावक, अर्घ, मंदिर आदि के अर्थ ठीक नहीं हैं। निर्वपामि में भिकोअम् लिखने से यह ज्ञात होता है कि लेखक को संस्कृत व्याकरण का प्रवेशिका ज्ञान तक नही है। पूजा में पू धातु बताते हैं ।
१५. बड़े-कलश से अभिषेक का निषेध करने से बाहुवली आदि की बड़ी प्रतिमा का अभिषेक कैसे होगा? विचारणीय है । पुस्तक मे प्रतिमा पर जलक्षेपण करने का निषेध दो बार किया है।
१६. इस पुस्तक के पृष्ठ ६९ पर प्रतिमा की वीतराग छवि को देशनालब्धि माना सो यह कहाँ है? प्रमाण देना चाहिए। सर्वार्थसिद्धि आदि में तो सम्यक्दर्शन की उत्पत्ति में साधन के अतर्गत प्रतिमा दर्शन और धर्म-श्रवण पृथक्-पृथक् बताये हैं।
१७. ये लोग दीपक जलाना और धूपदान, जिन्हे शांतिजप, विवाह, गृह प्रवेश आदि में सर्वत्र निषेध करते है। हवने (शातियज्ञ) भी पीले चावल में धूप का सकल्प कर स्थडल (आठ ईट ) मे यज्ञ करने की नई प्रथा निकाल ली है। क्या यह सकल्पी हिसा नही है? दीपक व धूपदान का उल्लेख तो पूजा मे “विद्वज्जनबोधक” पृष्ठ ३५७-३६० मे भी है। श्री जयसेनायार्य के प्रतिष्ठा पाठ, आदिपुराण आदि मे अग्नि से हवन बताया है। तेरह पथ शुद्धाम्नाय के शास्त्रो को भी नहीं मानते ।
१८. सिद्धचक्र विधान मे ये लोग आठ दिन मे प्रारभ के चार दिनों मे सात पूजा कर लेते हैं और आठवी पूजा अतिम चार दिनों मे करते है। जबकि उस विधान आठवी पूजा को एक ही माना है। १०२४ अर्घ को चार हिस्सों में करना अधूरी पूजा है, इसे समझना चाहिये ।
१९. मदिरो मे से आचार्य शातिसागरजी आदि की फोटो अभी भी हटा देते हैं। यह कदम अनुचित है। मुझसे कुछ बधु आकर पूछते है कि क्या आचार्य शातिसागरजी दि मुनि नही थे ? उनकी फोटो मदिर से क्यो निकाली गयी?