Book Title: Anekant 1998 Book 51 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 66
________________ अनेकान्त/२७ ध्यान के, योग के बिना जिन नही बन सकते । ध्यान है उस सोच का नाम जो आत्मा को कर्मो से अलग मानकर केवल स्व को ही सब कुछ समझे। जिस समय यह कोशिश कम हो जाए तब सब क्रियाए शान्त, सब विचार बद-पूर्ण सिद्धावस्था हो जाती है-कोई न राग रहता न द्वेष-सब कुछ स्वच्छ, साफ, सफेद जिसमे कोई मेल नही न अच्छा न बुरा-हॉ कह सकते हो सब कुछ अच्छा ही अच्छा । मानो सब आवाजे शान्त हो और बजे वह आवाज जो बिना बजाए गूजे, अनाहत नाद-केवल ओम् मधुर सगीत जिसे केवल आप सुने और पुलकित हो, अनन्त प्रकाश | यही है जीवन की असली कमाई असली अर्थ । अर्थ का अपना अर्थ तो है ही परन्तु जिस स्व अर्थ की मै बात कर रहा हूँ वही है असली स्वार्थ और हॉ, इसे ही हम कहते है स्व का आत्मा का धर्म याने स्व भाव । बड़ा अजीब है यह धर्म शब्द । कर्तव्य को भी धर्म कहते है विभिन्न विचारधाराओ और धारणाओ को भी धर्म नाम से पुकारते है और धर्म एक द्रव्य भी है जिसके बिना चल नहीं सकते। इन सबको मिलाकर जो आप समझे है वही है 'जिन' का चलाया जैन धर्म, अहिसा धर्म, विश्व धर्म । यह आसान भी है कठिन भी । कठिन है इसलिए जैनधर्म, आसान है इसलिए विश्वधर्म | फिर भी आप पूछेगे क्या लगा रखा है यह श्वेताम्बर, यह दिगम्बर । एक ही तत्त्व के उपासक झगड़ रहे है। वैसे बात यह है कि अहिसा की परिणति ध्यान की परिणति अपरिग्रह मे जाकर होती है। जब पूर्णतया परिग्रह हट जाएगा तो व्यक्ति अपरिग्रही हो जाएगा परन्तु एक तबका है जो कहता है वस्त्र तो रखना होगा वर्ना लोक मे निर्वाह मुश्किल है खास कर महिलाओ के लिए। थोड़ा परिग्रह भी अपरिग्रह ही तो है। असली परिग्रह तो राग है मूर्छा है। आचरण शैली का भेद है परन्तु असली बात को भूलेगे तो झगड़े होगे ही-उन्हे निपटने दीजिए | आप तो बस स्व का ध्यान लगाइए और मुक्ति पाइए । मुक्ति ही है वास्तविक सुख । कितना सरल है यह सब । यही है यह सब। -२१५, मंदाकिनी एन्क्लेव, नई दिल्ली-११००१९

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