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अनेकान्त/३५
मंत्रराज रहस्य
विबुधचन्द्रसूरि के शिष्य सिहतिलक सूरि इसके कर्ता है। ग्रन्थ का परिमाण आठ सौ श्लोक हैं। ग्रन्थ प्रशस्ति के अनुसार इसका रचनाकाल वि०सं० १३३२ है। ग्रन्थ पर 'लीलावती' नामक स्वोपज्ञ सस्कृत वृत्ति है। इसमे अनेक गच्छों के सूरिमंत्रो का संग्रह किया गया है। यहाँ सूरिमत्र के पाँच पीठ बताये हैं। ग्रन्थ मे एक हजार मंत्र होने का उल्लेख मिलता है।२४ जिनरत्नकोष पृ० ३०१ पर भी इसका उल्लेख है। वर्धमान विद्याकल्प
यह मंत्रराज रहस्य आदि के कर्ता सिहतिलक सूरि की रचना है। इसका रचना काल वि०सं० १३४० के लगभग है। ग्रन्थकार ने इसे अनेक प्रकरणो में विभक्त किया है। पहले तीन प्रकरणो में क्रमश ८९, ७७ और ३६ पद्य है। इस कृति मे सूरिमंत्र, कलिकुड पार्श्वनाथ मत्र, पचपरमेष्ठी मत्र, ऋषिमंडल स्तव-यत्र और कुछ अन्य मत्रो का निरूपण किया गया है। वर्धमान विद्या उपयोग दीक्षा, प्रतिष्ठा आदि कार्यों में किया जाता है।२५ जिनरत्नकोष पृ० ३४३-४४ पर भी इसका उल्लेख है। अद्भुत पद्मावती कल्प
इसके कर्ता यशोभद्र उपाध्याय के शिष्य श्री चन्द्रसूरि है। एच०आर० कापडिया ने इसका रचनाकाल विक्रम की १४वी सदी लिखा है। ग्रन्थकार ने इसे छह प्रकरणो मे विभक्त किया है। इसके आदि के प्रथम दो प्रकरण अनुपलब्ध है। शेष “भैरवपद्मावती कल्प” के पहले परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित है। तीसरे प्रकरण मे सकलीकरण विधान, चौथे मे यंत्र सहित पद्मावती देवी की आराधना का क्रम, पाँचवे प्रकरण मे योग्य पात्र का लक्षण तथा छठवें प्रकरण में बन्धन मत्र, परविद्याछेदन मत्र आदि कहे गये हैं। इसमें प्रत्यगिरा, अंबिका, ज्वालामालिनी और चक्रेश्वरी का उल्लेख है। ग्रन्थकार ने “इन्द्रनन्दि” का भी उल्लेख किया है और उन्हे “मन्त्रवादिविद्याचक्रवर्तिचूड़ामणि' कहा है। यहाँ पद्मावती के विषय में कहा गया है कि हे देवि! तुम जैन परम्परा मे पद्मावती, शैवपरम्परा मे गौरी, बौद्धागम परम्परा मे तारा, सॉख्याग़म मे प्रकृति, भाट्ट परम्परा में गायत्री, कौलिक सम्प्रदाय