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अनेकान्त/८
बच्चे यह न कहने लगे कि चूंकि दिगम्बरो की भाषा शौरसेनी है और णमोकार मत्र शौरसेनी मे नहीं है अतः हम इसे क्यों बोले ? क्यो श्रद्धा करे ? आदि-आदि प्रश्न शौरसेनी की जबरन मुहिम के कारण उठने की सम्भावना है। ___ श्वेताम्बर मुनि गुलाबचन्द निर्मोही ने 'तुलसी प्रज्ञा' के अक्टूबर-दिसम्बर ६४ के अक मे पृष्ठ १६० पर लिखा है 'जैन तीर्थंकर प्राकृत अर्धमागधी' में प्रवचन करते थे उनकी वाणी का संग्रह आगम ग्रन्थो में ग्रथित हुआ है। श्वेताम्बर जैनों के आगम ...........अर्धमागधी भाषा में रचित हैं। दिगम्बर जैन साहित्य षट्खण्डागम, कसायपाहुड, समयसार आदि शौरसेनी में निबद्ध हैं. इसी लेख में पृ. १८२ पर उन्होने व्याकरण रचयिता काल (भाषाभेदकाल) भी दिया है जिसका प्रारम्भ २-३ शताब्दी दिया है। यह सब दिगम्बर-आगमो को तीर्थकरवाणी बाह्य और पश्चादवर्ती सिद्ध करने के प्रयत्न हैं। श्वेताम्बर तो यह चाहते ही हैं कि दिगम्बरों में शौरसेनी विधिवत् महिमामण्डित हो क्योंकि इससे उनके अभीष्ट की सिद्धि होगी। और दिगम्बरों में शौरसेनी की बलात स्वीकारोक्ति के प्रति बढता दबाब कालिदास की याद दिलाता है जो जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे और ये शौरसेनी के पक्षधर भी पूर्वाचार्यो को झुठलाकर श्वेताम्बर मत की पुष्टि कर रहे हैं। जबकि हमारे आगम गणधरवाणी दृष्टिवाद से उद्भूत हैं और उनके पश्चाद्वर्ती कोरी वाचनाओं से उत्पन्न हैं। यदि इस मुहिम को तुरन्त शान्त नहीं किया गया तो यह शौरसेनी की छोटी-सी गाँठ कैन्सर का रूप धारण करने वाली है। हालांकि अनेकों डाक्टर उसे कैन्सर के बीभत्स स्वरूप होने से बचाने में जी जान से जुटे हुए हैं। काश वे सफल होते लेकिन हठधर्मिता ही सबसे बड़ी बाधा है। हालाँकि पुरस्कार की प्रत्याशा में अनेक वरिष्ठ और गरिष्ठ विद्वान् पंक्तिबद्ध कतार में खड़े होंगे। पुरस्कृत जिन डॉ. सा. से शौरसेनी भाषा के मूल होने की पुष्टि कराई थी वे लाडनूं की 'प्राकृत भाषा संगोष्ठी' में उक्त स्वीकृति से सर्वथा मुकर गए और उन्होंने कहा कि आचारांग, सूत्रकृतांग और दशवैकालिक में अर्धमागधी भाषा का सर्वोत्कृष्ट रूप