________________
अनेकान्त/३१
है। इसकी पत्र सख्या-१०३ तथा वेष्टन सख्या-१७०८ है। प्रति का रचनाकाल संवत् १८४५ तथा लेखनकाल सं १८५८ ग्रन्थ मे मिला है।
८. सम्मेदशिखर माहात्म्य - इसके कर्ता का नाम मनसुख सागर लिखा गया है। इसकी पत्र सख्या-१६५ तथा वेष्टन संख्या-५७८ है। लेखनकाल का उल्लेख नहीं है। यह बधीचंद जी के दि जैन मन्दिर जयपुर की प्रति है। ग्रन्थ सूची के अनुसार यह प्रति लोहाचार्य विरचित "तीर्थ माहात्म्य" में से सम्मेदाचल माहात्म्य की भाषा है। इसी मन्दिर में इसकी एक अपूर्ण प्रति और भी है।
६. सम्मेदशिखर माहात्म्य - इसके कर्ता का नाम लोहाचार्य लिखा है, जो सन्देहास्पद है। इसकी पत्र सख्या-१०३ है। प्रति का अन्तिम पत्र नहीं है। यह जैन सिद्धांत भवन आरा की प्रति है। प्रति का प्रारभ और अन्त इस प्रकार है -- प्रारंभ - श्री ससेवित चरण कमल जुग सब सुख लाइक ।
श्री सिवलोक विलोक ज्ञानमय होत सुनाइक ।। अनमित सुख उद्योत कर्म वैरी घनघाइक। ज्ञान भान परकास पद सब सुखदाइक ।। ऐसे महंत अरिहत जिनद निसि दिन भावतों।
पावौ प्रमाण अविचल सदन वीतराग गुण चावसौ।। अन्त - बीस हजार वरण बीतंत मानसिक तह असन करत । ___ दस दुनि पखवारे गये परिमल सहि ---------- | |
१०. सम्मेदशिखर माहात्म्य - इसके कर्ता अज्ञात हैं। प्रति की पत्र सख्या-११ है। लेखनकाल का उल्लेख नहीं है। यह जैन सिद्धात भवन, आरा की प्रति है। प्रति का प्रारभ तथा अन्त इस प्रकार है -- प्रारभ - पूर्ववत् । श्री संसेवित चरण -------- गुन चावसौं।। अन्त - समोसरन मै जायकै वदे वीर जिनेन्द्र ।
__ अहो नाथ तुम दरसन तै कहै करम के फद ।। ८४ ।।
११. सम्मेदशिखर माहात्म्य - इसके कर्ता ज्ञात नहीं है। इसकी पत्र संख्या तीन है। प्रति अपूर्ण है। यह जैन सिद्धात भवन, आरा की प्रति है। उपलब्ध प्रति का प्रारंभ और अन्त निम्नवत् है ----