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मॉगते फिरते है। किन्हीं के साथ मोटरें चलती हैं तो किन्हीं के साथ गृहस्थजन दुर्लभ ोमती चटाइयाँ और आसन के पाटे तथा छोलदारियाँ चलती हैं। त्यागी ब्रह्मचारी लोग अपने लिए आश्रय या उनकी सेवा में लीन रहते हैं। 'बहती गंगा में हाथ धोने से क्यों चूकें।' इस भावना से कितने ही विद्वान् उनके अनुयायी बन ऑख मीच चुप बैठ जाते है या हाँ मे हॉ मिला गुरुभक्ति का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने मे सलग्न रहते हैं। ये अपने परिणामों की गति को देखते नहीं हैं।
व्रती के लिए शास्त्र मे नि शल्य बताया है। शल्यो में एक माया भी शल्य होती है। उसका तात्पर्य यही है कि भीतर कुछ रूप रखना और बाहर कुछ रूप दिखाना। व्रती मे ऐसी बात नही होना चाहिए। वह तो भीतर बाहर मनसा-वाचा-कर्मणा एक हो।
'मेरी जीवन गाथा' से साभार
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