Book Title: Anekant 1998 Book 51 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 102
________________ अनेकान्त/२१ अर्थात्, शान्तिप्रधान तपस्वियों मे जला देने वाला गुप्त तेज रहता है, क्योंकि स्पर्श करने योग्य सूर्यकान्त मणियो के समान (वे तपस्वी) दूसरे के तेज से तिरस्कृत होने पर (अपने) उस तेज को प्रकट करते हैं। 'पद्मचरित' मे भी तपस्या की शक्ति का विस्तृत वर्णन किया गया है। तीनों लोको मे कोई ऐसा कार्य नहीं है, जो तप से सिद्ध नहीं होता हो । यथार्थ मे तप का बल सब बलो मे शीर्षस्थ, अर्थात सर्वश्रेष्ठ होता है। इच्छानुकूल कार्य करने वाले तपस्वी साधु के जैसी शक्ति, कान्ति, द्युति अथवा धृति होती है, वैसी इन्द्र के भी सम्भव नहीं। जो मनुष्य साधुजनों का तिरस्कार करते है, वे तिर्यक-गति और नरक-गति मे महान् दुःख पाते हैं। जो मनुष्य मन से भी साधुजनो का पराभव करता है, वह पराभव उसे परलोक तथा इस लोक मे परम दुख देता है। जो दुष्टचित्त मनुष्य निर्ग्रन्थ मुनि को गाली देता है, अथवा मारता है, उस पापी मनुष्य के विषय में क्या कहा जाए। ___ 'अभिज्ञानशाकुन्तल' मे सूर्य और उसके सारथी अरुण के एक साथ उदय वर्णन है 'आविष्कृतोऽरुणपुरःसर एकतोऽर्कः।' (अभिज्ञानशाकु., ४/२) अर्थात्, अरुण को आगे कर एक ओर सूर्योदय हो रहा है। ___'पद्मचरित' मे भी कहा गया है कि सूर्य अरुण के साथ मिलकर कार्य करते हैं भर्ताऽपि तेजसां कृत्यं कुरुतेऽरुणसङगतः । (पद्मचरित, १६/६६) निमित्तशास्त्र के अनुसार, दाहिने अग का स्पन्दन शुभ माना जाता है। 'अभिज्ञानशाकुन्तल' में दुष्यन्त जब कण्व ऋषि के तपोवन में पहुँचता है, तब उसकी (दाई) भुजा फडकती है। इसका फल स्त्री की प्राप्ति है। स्त्री-विहीन आश्रम मे दाई भुजा फडकने पर राजा को आश्चर्य होता है। अन्त मे, उसके फल के विषय मे वह कहता है कि होनहार के द्वार सर्वत्र मुक्त रहते है।५ 'पद्मचरित' में हरिषेण भी दाई ऑख फडकने के आधार पर निश्चय करता है कि यह शकुन अवश्य ही प्रियजनों का समागम करायेगा। 'अभिज्ञानशाकुन्तल' के द्वितीय अक में दुष्यन्त कहता है : यदुत्तिष्ठति वर्णेभ्यो नृपाणां क्षयि तद् धनम्। तपः षड्भागमक्षय्यं ददतयारण्यका हि नः।। (अभिज्ञानशाकु.. २/१३)

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