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अनेकान्त/३३
सरस्वती कल्प
यह भी मल्लिषेण सूरि की रचना है। ग्रन्थ के आदि और अन्त मे इनका नामोल्लेख मिलता है। ग्रन्थ मे “सरस्वती कल्प” तथा “भारती कल्प” इन दोनो नामों का उल्लेख है। इसमे कुल ७८ पद्य तथा बीच-बीच में कुछ गद्य भी है। यह “भैरवपद्मावती कल्प' के ग्यारहवे परिशिष्ट के रूप मे प्रकाशित है। इसकी एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि जैन सिद्धान्त भवन, आरा के संग्रह में सुरक्षित है।१८ ग्रन्थ मे साख्य, मीमांसक, चार्वाक, सौगत और दिगम्बरो का उल्लेख है, वे ज्ञान प्राप्त करने के लिए सरस्वती की आराधना करते हैं। सरस्वती के प्रसाद से सांसारिक लोग कवित्व, वाग्मित्व, वादित्व आदि प्राप्त करते हैं।
ग्रन्थ मे सरस्वती का स्वरूप, चिन्ह, साधक, साधन योग्य स्थान, आसन, सकलीकरण, पीठस्थापन आदि के मत्र तथा देवी का मूलमत्र बतलाया गया है। आगे सिद्धिविधान, शान्तिकयत्र, वश्ययंत्र, द्वादश रंजिकायत्र, सौभाग्यरक्षायंत्र आदि की लेखन एव प्रयोग विधि का विवेचन है। सरस्वती की सिद्धि का प्रयोग वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण, शान्तिक, पौष्टिक आदि समस्त कार्यो मे किये जाने का उल्लेख है। कामचाण्डाली कल्प
यह भी मल्लिषेण सूरि की अद्भुत रचना है। ग्रन्थोल्लेख के अनुसार वे रचना करते समय पूरी कृति को अपने मन मे अकित कर लेते थे, जिसे बाद मे भूमि के पत्थर पर यथावत् लिपिबद्ध करते थे। इससे उनकी स्मरण शक्ति का वैशिष्ट्य प्रकट होता है। इसका रचनाकाल भी लगभग वि०स० १११० स्वीकार किया गया है। इसका दूसरा नाम सिद्धायिका कल्प भी कहा जाता है। इसके प्रकाशित होने की जानकारी नही मिली है। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार इसकी हस्तलिखित प्रति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, बम्बई मे उपलब्ध है।२१
ग्रन्थ पाँच अधिकारो मे विभाजित है। -(१) साधक (२) देवी का आराधन (३) अशेषजनवशीकरण (४) यंत्र-तत्र और ज्वालागर्दभ लक्षण ।