Book Title: Anekant 1998 Book 51 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 64
________________ अनेकान्त / २५ शरीर से दूसरे मे जाता है यह 'स्व' यह आत्मा । एक शरीर छूटने पर दूसरे शरीर मे जाने मे समय तो लगता है पर यह स्व/आत्मा चलता ही रहता है। देखा है आपने कैसे हम पुराने कपड़ो को छोड़कर नए कपड़े पहनते हैं वही हाल है इस स्व का । आत्मा का । इस स्व की इस आत्मा की एक और खूबी देखने मे आई। जब यह चोला बदलता है तो जैसा चोला उसी के माप के अनुसार स्व को भी घटा बढ़ा लेता है। शरीर बदलता तो रहता है परन्तु कभी ऐसी अवस्था पर भी पहुंच जाता है जब फिर चोले बदलने की जरूरत नहीं रहती । एक ऐसी जगह पर ऊपर जाकर हमेशा के लिए ठहर जाता है न नीचे जाता है न और ऊपर । यही है सिद्ध अवस्था । तब वह अन्य आत्माओ से भिन्न हो जाता है- कह सकते है कि परम आत्मा बन गया । केवल एक ही बात है कि इस विश्व के आगे नहीं जा सकता - जरूरत भी तो नही रहती कही आने जाने की। कोई शरीर नही होता केवल स्व मात्र रह जाता है ऐसी कई परमात्माए है वहाँ पर। जगह सीमित है विराम स्थल की, उसी मे एक दूसरे के लिए जगह बनाए हुए है, पूरा सह अस्तित्व है वहाँ, आइए अब समझाए आपको कि यह विराम कैसे मिलता है। आप यह तो देखते- जानते ही है कि यह विशाल जगत है । यह कहाँ से आया, किसने बनाया, क्या है इसका अजाम? यह सवाल ही न करो क्योकि इसका जवाब किसी के पास नही है जो आपको सबको सतुष्ट कर सके। बस मान लो कि इसका ओर छोर नही है। अधिक पूछोगे तो कहना पड़ेगा कि यह सब माया है, दिमाग का भ्रम है। इसलिए इससे ही खातिर जमा रहो कि यह ससार अनादि और अनन्त है। खोज रहा है अभी नवीन विज्ञान मगर पहले भी खोजा था और आगे भी खोज का यही नतीजा रहेगा । मान लेते है है यह कोई द्रव्य जिसे आप स्व या आत्मा कहते है मगर इसके इस घूमने का एक जगह से दूसरी जगह जाने का इस चक्कर के कारण का, इसके दुख सुख के कारण का भी पता चला है आपको ? हॉ, क्यो नही? इस विशाल जगत मे अनत परमाणु है और अनत ही रहते है हरेक जीवधारी के आसपास, हर समय मडराते रहते है चहुओर सर्वत्र । इनको हम कर्म कहते है। इससे अच्छा कोई शब्द नही मिलता इनके लिए। कर्म इसलिए कहते हैं कि ये हरकत में आते है हमारे कारनामो से,

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