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मंत्र-तंत्र विषयक जैन साहित्य
-डॉ० ऋषभचन्द्र जैन “फौजदार" वैदिक और बौद्ध परम्पराओ के समान जैन परम्परा मे भी प्राचीनकाल से ही तत्र का विशेष महत्व है। जैन परम्परा का तत्र मुख्यत मत्र (मत्रवाद) पर आधारित है। मत्र-तत्र विद्या का सम्बन्ध दृष्टिवाद के “विद्यानुवाद पूर्व' तथा 'चूलिकाओ” से है। ये चूलिकाएँ पाँच है-(१) जलगता (२) स्थलगता (३) मायागता (४) रूपगता और (५) आकाशगता । इनका विवरण हमे षटखण्डागम की धवला टीका में प्राप्त होता है। जैन परम्परा का मूलमत्र “णमोकार मत्र है, जिसे अनादि निधन कहा जाता है। इसमे अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, इन पाँचो को नमस्कार किया गया है, इसलिए इसे नमस्कार मत्र या पच नमस्कार मत्र भी कहा गया है। इस मत्र का प्राचीनतम तथा अपूर्ण उल्लेख सम्राट खारवेल के हाथीगुफा लेख मे उपलब्ध होता है। वहाँ केवल “नमो अरहताण” और “नमो सवसिधान" ये दो पद ही पाये जाते है। इसका पूरा पाठ षट्खण्डागम, भगवती, प्रज्ञापना और कल्पसूत्र आदि ग्रन्थो मे उपलब्ध होता है।
ओकारमय (अरहन्त, अशरीरी, आचार्य, उपाध्याय और मुनि) णमोकार मत्र मूलत विशुद्ध आध्यात्मिक मत्र है, इसके जाप से साधक को विशेष ऊर्जा प्राप्त होती है। वह ऊर्जा साधक के कर्ममल को जलाकर नष्ट कर देती है, जिससे उसकी आत्मा विशुद्ध हो जाती है और अन्तत साधक मोक्षसिद्धि प्राप्त कर लेता है। इस मत्र का उपयोग स्तभन. वशीकरण, उपसर्ग निवारण आदि कार्यों में भी होता रहा है। जैन साहित्य मे इस मत्र के अनेक चमत्कारिक उदाहरण देखे जा सकते है।