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अनेकान्त/३८
अत सन्मतिसूत्र मे सिद्धसेन ने भी यो लिखा कि 'अत्थगइ उण णयवाय गहण लीणा दुरभिगम्मा'
अर्थात् नयवाद एक गहन वन है जिसमे अर्थ की गति विलीन हो जाती है। सरल तरीके से समझने के लिए अन्यत्र कहा कि
भई मिच्छा दंसण समूहमइयस्स अमय सारस्स जिणवयणस्स भगवओ संविग्न सुखाहि गम्मस्स
जिन भगवान के वचन मिथ्या दर्शन समूह मय हैं दुःखो से उद्विग्न लोगो के लिए आसानी से समझ मे आ सकते हैं और अमृत के मानिन्द है।
अजीब सी है यह बात । यदि एकाश मिथ्या है तो सर्वाश भी मिथ्या ही होना चाहिए किन्तु ऐसा क्यो नही है इसके लिए समन्तभद्र पहले ही कह चुके है कि
मिथ्या समूहो मिथ्याचेन्न मिथ्यैकान्तताऽस्ति नः निरपेक्षा नया मिथ्याः
सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् -(देवागम, १०८) (हे प्रभो, हमारा मिथ्या समूह मिथ्या होते हुए भी मिथ्या एकान्तता नही है क्योकि मिथ्या होते है निरपेक्ष नय (किन्तु) आपके (नय) तो सापेक्ष है (इसलिए) द्रव्य का अर्थ समझाने में सक्षम है।
श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र सूरि के षड्दर्शन समुच्चय की गुणरत्न सूरि द्वारा रचित टीका तत्त्वरहस्य दीपिका मे मगलाचरण की व्याख्या करते हुए बताया है कि
स्यात् कथंयित् सर्वदर्शनसंमत सद्भूत वस्त्वंशानां मिथः सापेक्षतया वदनं स्याद्वादः सदसन्नित्यानित्य सामान्य विशेषाभिलाप्यान मिलाप्योभयात्मानेकान्तः : न्यर्थः यद्यपि दर्शनानि निज निज मतभेदेन परस्परं विरोधं भजन्ते तथापि तैरुच्यमानाः सन्ति ते ऽपिवस्त्वंशाये मिथ: सापेक्षा : सन्त: समीचीनतामञ्चन्ति।