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अनेकान्त/११
प्रबुद्ध लेखक डॉ सुदीप जी ने पत्रिका के पृष्ठ २० पर लिखते है-चूंकि नग्न दिगम्बर रूप को परम मगलमय माना गया है, अत जैन श्रमण परम मगलरूप नग्नता को ही अगीकार करते है |
विद्वान् लेखक ने इस वाक्य मे इन्वर्टेड कॉमा (" ") नही लगाया है, किन्तु इस पर टिप्पण न ३२ अवश्य दिया है। टिप्पण न. ३२ पर लिखा है-चार्वाकदर्शन ८, पृष्ठ ७९ । यहाँ अंक ८ से क्या तात्पर्य है? इस प्रकरण को समझने के लिए चार्वाकदर्शन का अध्ययन आवश्यक है।
चार्वाकदर्शन
चार्वाकदर्शन पर सस्कृत मे लिखा हुआ कोई प्राचीन ग्रन्थ नही मिलता है। अनेक वर्ष पूर्व श्री प आनन्द झा ने हिन्दी मे चार्वाकदर्शन नामक एक पुस्तक अवश्य लिखी थी। यह पुस्तक मेरे पास नही है। विद्वान् लेखक ने अपने लेख मे न तो उक्त वाक्य पर इनवर्टेड कॉमा लगाया है और न उस वाक्य के पहले यह लिखा है कि चार्वाक नग्नता को परम मगलरूप मानते है। इससे यह सन्देह होता है कि क्या उक्त वाक्य स्वयं लेखक का अपना है या उसे चार्वाकदर्शन से उद्धृत किया गया है। इस विषय मे मेरा मत तो ऐसा है कि जिनका सिद्धान्त जीवन पर्यन्त सुखपूर्वक जीने का है तथा धन के अभाव मे ऋण लेकर घृत, दूध पीने का है___ यावज्जीवेत् सुख जीवेत् ऋण कृत्वा घृत पिबेत् । ऐसे चार्वाक जैन श्रमणो की नग्नता की प्रशसा क्यो करेगे। वे तो नग्न श्रमण को दुर्बुद्धि ही कहेंगे। उनके अनुसार तो नग्न वही होता है जिसकी बुद्धि मारी गई हो।
मैने यहाँ जो कुछ लिखा है वह सही है या गलत, इस पर मूर्धन्य विद्वान डॉ. सुदीप जी तथा अन्य विचारशील विद्वान विचार करने का कष्ट अवश्य करे। मैने यह लघु लेख किसी का दिल दुखाने के लिए नहीं लिखा है किन्तु इसके लिखने में मेरा आशय इतना ही है कि जो तथ्य है उसे विद्वानों के समक्ष अवश्य आना चाहिए । इत्यल विस्तरेण ।
जैनं जयतु शासनम्।