________________
अनेकान्त/१५
और न जातको मे । गुणभद्र ने उत्तरपुराण मे पार्श्वनाथ के पिता का नाम विश्वसैन दिया है। जातको के विस्ससैन और हिन्दू पुराणो के विश्वक्सैन के साथ इसका साम्य बनता है। डॉ० भण्डारकर ने पुराणो के विश्वक्सैन और जातको के विस्सेन को एक माना है।१४
इतिहासज्ञो ने पार्श्वनाथ का काल ई०पू० ८७७ वर्ष पूर्व निर्धारित किया है। इस ई०पू० ८७७ मे काशी की तत्कालीन सास्कृतिक स्थिति का आकलन पार्श्वनाथ के जीवन एव उनसे सबधित घटनाओ से किया जा सकता है। पार्श्व जन्म से ही आत्मोन्मुखी स्वभाव के थे। उस समय यज्ञ-यागादि और पचाग्ति तप का प्राधान्य था। पार्श्व के जीवन का यह प्रसग कि उन्होने गगा के किनारे तापस को अग्नि मे लकड़ी को डालने से रोका और कहा कि जिस लकड़ी को जलाने जा रहे हो उसमे नाग युगल का जोड़ा है। इसे जलने से रोको । तपस्वी के न मानने पर उससे पुन कहा कि तप के मूल मे धर्म और धर्म के मूल मे दया है वह आग मे जलने से किस प्रकार दया सम्भव हो सकती है? इस पर साधु क्रोधित होकर बोला-तुम क्या धर्म को जानोगे, तुम्हारा कार्य तो मनोविनोद करना है। यदि तुम जानते हो तो बताओ इस लक्कड़ मे जीव कहाँ है? यह सुनकर कुमार पार्श्व ने अपने साथियो से लक्कड़ को सावधानीपूर्वक चिरवाया, तो उसमे से नाग-युगल बाहर निकला।
इस घटना की सत्यता पर प्रश्न हो सकता है, परन्तु इतना निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि उस समय ऐसे तपो का बाहुल्य था और बिना सोचे-समझे आहुतिया दी जाती थी। तीर्थकर पार्श्व और महावीर के काल मे केवल २५० वर्ष का अन्तराल है। इस अवधि मे यज्ञ-यागादि की प्रधानता अपने चरमोत्कर्ष पर थी। इतना ही नही, अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए विभिन्न यज्ञो को प्रमुखता दी जाती थी। अश्वमेध यज्ञ भी काशी मे सम्पन्न हुआ था। जिसकी स्मृति-शेष के रूप मे अश्वमेध घाट आज भी विद्यमान है। अभिप्राय यह कि “वैदिकीहिसा हिसा न भवति" इसका जनमानस पर पर्याप्त प्रभाव था और इहलौकिक और पारलौकिक कामनाओ की पूर्ति के लिए उक्त उद्घोष को चरितार्थ किया जाता था।