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अनेकान्त / ३७
चलेगा इस सच्चाई से वे परिचित थे । व्यवहार को छोड़कर सच्चाई को पाना बिना आधार ही उड़ान है। कदाचिद् यही वजह हो कि उमास्वाति ने और पूज्यवाद ने भी निश्चय नय की नयो में गिनती नही की। निश्चय की नय के रूप में अवधारणा शायद पूज्यपाद के बाद की है।
मोक्षमार्ग (रत्नत्राय) भी व्यवहार मोक्ष मार्ग व निश्चय मोक्षमार्ग बताया गया। व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है और निश्चय मोक्ष मार्ग साध्य । व्यवहार रत्नत्राय तो अपूर्ण रहता है और १४वें गुणस्थान के अंत में जाकर संपूर्ण निश्चय रत्नत्रय होता है।
निश्चय और व्यवहार नयो की व्याख्या करते समय शास्त्रो ने नेय, नय और नेतव्य की भेद रेखाओ को ही मिटा दिया लगता है जबकि नेय (सांसारिक जीव) को नय के द्वारा नेतव्य (शुद्ध आत्मानुभाव ) की ओर ले जाया जाना चाहिए। दरअसल शास्त्र कुछ नही जानते क्योकि ज्ञान और शास्त्र अलग-अलग है। कहा भी है
सत्थं णाणं न हवदि जम्हा सत्थं ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सत्थं जिणाविंति ।।
प्रवचन सार की टीका के अत मे ४७ की सख्या तक नय गिनाकर भी अमृतचन्द्र ने लिखा कि आत्मा एक द्रव्य है जो अनत धर्मात्मक है । वे अनत धर्म अनत नयो से जाने जाते है।
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जितने वचन उतने ही नय है। यदि यह कहे कि आत्मा बंध मोक्ष अवस्था को पुद्गल के साथ धारण करता है तो यह हुआ व्यवहार नय के कथन और यदि यह कहे कि आत्मा केवल अपने ही परिणाम से बंध मोक्ष अवस्था को धारण करता है । तो यह हुआ निश्चय नय के कथन । यदि एक नय को ही सर्वथा माने तो मिथ्यावाद होता है जो कथंचिद् माना जाए तो यथार्थ अनेकता रूप सर्व वचन होता है। स्यात् पद से गार्भित नयो के स्वरूप से अनेकान्त रूप प्रमाण से अनत धर्म संयुक्त शुद्धचिन्मात्र वस्तु को जो निश्चय श्रद्धान करते हैं वे साक्षात् आत्म स्वरूप के अनुभवी होते हैं । परमात्म तत्त्व वचन से नही कहा जा सकता केवल अनुभव गम्य है। 'जो महाबुद्धिवन्त हुए है वे भी तत्त्व के कथन समुद्र के पारगामी नही हुए है और जो थोड़ा बहुत तत्त्व का कथन मैने किया है वह सब तत्त्व की अनंतता मे इस तरह समा गया है मानो कुछ कहा ही नही जैसे आग
होम करने की वस्तु कितनी ही डालो, कुछ नही रहती ।'