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अनेकान्त/७
इस प्रकार आचार्य धर्मकीर्ति ने जैनमत के स्याद्वाद, अनेकान्त आदि सिद्धान्तो का यथासंभव निराकरण किया है। यह अलग बात है कि आचार्य अकलक देव ने न्यायविनिश्चय मे धर्मकीर्तिकृत जैन सिद्धान्तो के निराकरण को मय ब्याज के चुकता कर दिया है। २ यशस्वी लेखक डॉ० सुदीप जी ने पत्रिका के पृष्ठ १९ पर लिखा है___ “प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति लिखते है- ऋषभ वर्द्धमानादि दिगम्बराणां शास्ता सर्व आप्तश्चेति २६ अर्थात् ऋषभदेव से लेकर वर्द्धमान महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर दिगम्बरो के अनुशास्ता सर्वज्ञ एव आप्त पुरुष थे। विद्वान् लेखक का यह कथन सर्वथा गलत है। क्योंकि पहले तो यह कथन धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु का नहीं है, किन्तु न्यायबिन्दु के टीकाकार आचार्य धर्मोत्तर का उक्त कथन है। दूसरे, उक्त वाक्य जैन तीर्थकरो को सर्वज्ञ और आप्त बतलाने के लिए नही लिखा गया है, किन्तु दृष्टान्ताभास (सदोष दृष्टान्त) में साध्य और साधन दोनो का अभाव होना चाहिए। इसके विपरीत यदि किसी अन्वय दृष्टान्त मे साध्य और साधन दोनों का सद्भाव नही है तो वह अन्वय दृष्टान्ताभास कहलाता है। इसी प्रकार यदि किसी व्यतिरेक दृष्टान्त में साध्य और साधन दोनो का अभाव नही है तो वह व्यतिरेक दृष्टान्ताभास कहलाता है। अन्वयदृष्टान्ताभास का उदाहरण
कोई कहता है- शब्द अपौरुषेय है, अमूर्त होने से। जो अमूर्त होता है वह अपौरूषेय होता है, जैसे घट। इस अनुमान में शब्द पक्ष है, अपौरुषेयत्व साध्य है और अभूर्तत्व साधन है। यहाँ घट का दृष्टान्त अन्वय दृष्टान्ताभास है। क्योकि घट न तो अमूर्त है और न अपौरुषेय है। अन्वय दृष्टान्त मे तो साध्य और साधन दोनो का सद्भाव होना चाहिए। इसके विपरीत यहाँ घट में साध्य (अपौरुषेयत्व) और साधन (अभूर्तत्व) दोनों का अभाव है। इसीलिए यहाँ घट का दृष्टान्त अन्वय दृष्टान्ताभास है।
व्यतिरेक दृष्टान्ताभास का उदाहरण
पूर्वोक्त अनुमान मे ही यह कहना कि जो अपौरुषेय नहीं होता है वह अमूर्त भी नहीं होता है, जैसे आकाश । यहाँ आकाश का दृष्टान्त व्यतिरेक