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अनेकान्त/६
की कर्णकगोमिकत टीका भी है। इस टीका मे 'अह्रीका' शब्द का अर्थ इस प्रकार लिखा है- "अह्रीका नग्नतया निर्लज्जा. क्षपणका । अर्थात् नग्न होने के कारण निर्लज्ज क्षपणको (श्रमणो) को अह्नीक कहते है।
विद्वान् लेखक ने 'आहनीका दिगम्बरा' ऐसा लिखकर उस पर टिप्पण नं २७ दिया है और २७ न. के टिप्पण में लिखा है- प्रमाणवार्तिक पृष्ठ २६५। लेखक को प्रमाणवार्तिक की कारिका का न. देना चाहिए था जो नही दिया है तथा जो पृष्ठ न. दिया है वह भी गलत है। यथार्थ मे उक्त कथन प्रमाणवार्तिक के पृष्ठ ३१३ पर आया है। मेरे पास प्रमाणवार्निक का सन् १९६८ का सस्करण है। संभव है कि विद्वान् लेखक के पास प्रमाणवार्तिक का कोई दूसरा संस्करण हो। किन्तु मेरी जानकारी के अनुसार सन् १९६८ के बाद मनोरथनन्दि की टीका सहित प्रमाणवार्तिक का कोई दूसरा सस्करण नही निकला है।
यहाँ यह भी समझ मे नही आ रहा है कि किस पुस्तक या शब्दकोष मे आह्नीक शब्द का अर्थ-'दिन में चर्या करने वाले लिखा है। व्याकरणशास्त्र के अनुसार अहन शब्द से इक प्रत्यय करने पर आहनिक शब्द बनता है, आहनीक नहीं। जाहनिक का अर्थ है-दैनिक। जैसे आहनिक प्रवचन, आहनिक स्वाध्याय, आहनिक कार्यक्रम इत्यादि । यथार्थ बात यह है कि प्रमाणवार्तिक मे आनीक शब्द नही है तथा व्याकरण के अनुसार ऐसा शब्द बनता भी नहीं है।
आचार्य धर्मकीर्ति ने पूर्वोक्त कारिका मे जैनो के स्याद्वाद सिद्धान्त का खण्डन किया है। अब उनके द्वारा कृत अनेकान्त सिद्धान्त का खण्डन देखिए
सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृते। चोदितो दधि खादेति किमुष्टं नाभिधावति ।।-३/१८२
अर्थात् यदि सब वस्तुएं उभयरूप (अस्ति-नस्ति रूप) है और उनमे । कोई विशेष (भेद) नही है तो जिस व्यक्ति से दधि खाने के लिए कहा गया है वह ऊँट खाने के लिए क्यो नहीं दौड़ता है? क्योंकि अनेकान्तवादियो के अनुसार दधि और ऊँट मे कोई भेद नहीं है।