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अनेकान्त/३४
इस विचार का प्राकृत व्याकरण के अलावा एक कारण और भी है। दृष्टिवाद के सत्यप्रवाद नामक पूर्व के दस भेद है- नाम सत्य, रूप सत्य, प्रतीत सत्य, सवृति सत्य, सयोजना सत्य, जनपद सत्य, देश सत्य, भाव सत्य और समय सत्य । द्रव्य और पर्याय के भेदो की यथार्थता बतलाने वाला तथा आगम के अर्थ को पोषण करने वाला वचन समयसत्य कहा जाता है। इस दृष्टि से व्यवहार भी सत्यार्थ ही है। प्रत्येक नय अशग्राही ही होता है। निश्चय नय सामान्य कहा जाता है। इस दृष्टि से व्यवहार भी सत्यार्थ ही है। प्रत्येक नय अंशग्राही ही होता है। निश्चय नय सामान्य अश (गुण) को ग्रहण करता है, व्यवहार नय विशेष अश (पर्याय) को ग्रहण करता है। दोनो अशो के जानने के लिए निश्चय और व्यवहार दोनों ही समान रूप से प्रयोजन वान है, अत एक द्रव्य के आश्रय से व्यवहार नय का जितना भी विषय है वह सबका सब याथर्थ ही है।
जो व्यवहार को असत्यार्थ कहते है वे उसे पूर्ण असत्य नही कहते । दि० आचार्य ज्ञान सागर की भाति श्वे० आचार्य महाप्रज्ञ भी अभूतार्थ का अर्थ ईषत् (आशिक) सत्य करते है। आचार्य जयसेन ने समय पाहुड़ की गाथा (२५२) की तात्पर्य वृत्ति मे लिखा है कि सुवर्ण और सुवर्ण-पाषाण के समान निश्चय और व्यवहार मे साध्य-साधक भाव है। अमृतचन्द्र भी व्यवहार नय को हस्तावलम्ब कहते है। अन्यत्र भी कहा गया है। जेइ जिण समई पउजह तामा ववहार णिच्चय मुचह । एक्केण विणा दिज्जइ तित्थ आपणेव उण तच्च अर्थात् यदि जिन समय (जैन सिद्धान्त) जानना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनो मे से किसी एक को मत छोड़ो (क्योकि) एक के बिना तीर्थ (तीर्थकरो का उपदेश, छुट जाता है और दूसरे के बिना तत्त्व (आत्मा) का स्वरूप दरअसल आत्मतत्त्व का ज्ञान व अनुभूति हो जाना ही मजिल है और मजिल पर पहुच जाने पर रास्तो (नयो) की जरूरत नही रहती यही है नय-निरपेक्ष अवस्था । वही है समयसार, पक्खातिक्कतो पुण भवदि जो सो समयसारो, जो पक्षातिकात कहलाता है वही समयसार है।
जयचद जी ने इसको यो कहा है -
'जो पहिली अवस्था मे यह व्यवहार नय उपरि चढ़ने कू पैडी रूप है, ताते कथचिद् कार्यकारी है, इसकू गौण करने ते ऐसा मत जानियो जो आचार्य व्यवहार को सर्वथा ही छुड़ावे है। आचार्य तो उपरि चढ़ने कू नीचली पैडी छुड़ावै है, अर जब अपना स्वरूप की प्राप्ति हो गयी तब तो शुद्ध अशुद्ध दोऊ ही नय का आलम्बन छूटेगा।'