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अनेकान्त/३३
आचार्यनि को था अर तिस के अर्थ का ज्ञान आचार्यानि की परिपाटी के अनुसार श्री कुन्दकुन्द आचार्य को भी था, सो तिनि ने यह समय प्राभृत के सूत्र बाधे हैं। 'यह समय जो सर्व पदार्थ जीव नाम पदार्थ है ताका प्रकाशक है।'
दृष्टिवाद के भेद सूत्रो मे अनेक भेद है, उनमे से एक भेद का नाम है पर समय अर्थात जैनेतर दर्शनों का निरूपण | इस दृष्टि से समय का अर्थ होता है द्वादशाग वाणी याने जैन दर्शन।
कुन्दकुन्द ने स्वय अपने ग्रथ का नाम समय पाहुड़ ही दिया था और पञ्चास्तिकाय तथा प्रवचनसार कृतियो के नामो मे प्रामृत (पाहुड़) शब्द नही जोड़ा । जहा उनको अभीष्ट था वहा स्वय उनने अपनी रचना के नाम में सार शब्द भी जोड़ा है, यथा पवयण सार, मूलाचार के दसवे अध्याय का नाम समयसार।
समय पाहुड़ अपर नाम समयसार से बहुधा जाना जाने लगा इसकी वजह एक चलन मात्र है जैसे चारित्रलब्धि का नाम लब्धिसार और गोम्मट सगह सुत्त का नाम चल पड़ा गोम्मट सार । उमा स्वाति के सूत्रो के भी तो तीन नाम हैं तत्त्वार्थाधिगम, तत्त्वार्थसूत्र और मोक्ष शास्त्र और अपनी टीका तत्त्वार्थ वृत्ति को स्वय पूज्यपाद ने अमृत सार होना बताया है। आरातीय शास्त्रो के नाम परिवर्तन के इस रिवाज मे मूल आगम मे बदलाव लाने की कोई प्रवृत्ति नही रही है। दरअसल मतलब तो अर्थ श्रुत से है। विषय वस्तु व नाम को सरलता से सूक्ष्म रूप मे समझने के लिए अपर नाम, उपनाम दिए जाते ही रहे है, और यही तो है व्यवहार नय जो आशिक सत्य से पूर्ण सत्य की ओर ले जाता है। कुन्द कुन्द कहते है कि -
ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ भूदत्थमस्सिदो सम्मादिट्टी हवदि जीवो।
यहा पर टीकाकारो ने ववहारो भूदत्थो के स्थान पर पढ़ा है ववहारोऽभूदत्थो, तो भी अमृतचन्द्र ने अभूदत्थो का अर्थ असत्यार्थ नही किया। उनने तो व्यवहार को कीचड़ मिले जल से और निश्चय को कीचड़ रहित जल से उपमा दी है। चूकि प्राकृत व्याकरण के अनुसार पदान्त में ओ के बाद अ का पूर्वरूप करने का कोई स्वर संधि सूत्र नही है और प्राकृत मे अ के विलीन होने का कोई निशान ऽ सर्वत्र नही देखा जाता, इसलिए कुछ मनीषी मानते हैं कि मूलपाठ मे अभूदत्थो नही था न हो ही सकता था, कुछ प्रतियो मे यह निशान है भी नहीं। कुन्दकुन्द ने तो व्यवहार और निश्चय दोनो को भूतार्थ माना है। बाद मे टीकाकारो ने भूतार्थ का अर्थ सत्यार्थ किया और अभूतार्थ का असत्यार्थ ।