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अनेकान्त/२७
पेदा करने वाला है। अनेक पूजाओ मे अतरायनाश हेतु फल बताया है जबकि लेखक आयुकर्मनाश हेतु बताते है। ऐसी त्रुटि सभी जगह है। ८. इस पुस्तक मे “परामात्मा पूजा” एक नई पुजा रची गई है, जबकि हमारे यहा “अरहत सिद्ध की पूजा की जाती है ये मुमुक्षु लोग कारण परमात्मा (शक्ति रूप मे सर्व जीव मे परमात्मत्व स्वरूप) की पूजा करना उचित मानते है। जिससे समस्त जीवो की पूजा करना उचित मानते है। जिससे समस्त जीवो की पूजा हो जाती है। यह आगम विरुद्ध है। ९. भगवान पार्श्वनाथजी व बाहुबली स्वामी की प्रतिमा को क्रमश फणामडल मडित और बेल युक्त प्रतिष्ठा शास्त्र मे भी माना है, परन्तु ये उनका निषेध करते है। केवल ज्ञानावस्था मे उन्हे फण व बेल नही थी, परन्तु उनकी मूर्ति मे तो हमेशा से पाई जाती है। १०. नवग्रह मे जबकि चौबीस तीर्थकर की पूजा है। उसे वे नवदेवता की पूजा मानते है, जो अनुचित है। ११. लेखक अपनी पुस्तक के पृष्ठ २७ मे लिखते है कि चेतन मे स्थापना निक्षेप नही होता कितु श्लोक वार्तिक (आचार्य विद्यानंद कृत) की टीका द्वितीय अध्याय पृष्ठ २६४ पर लिखा है कि इन्द्र, लोकातिक आदि की स्थापना रागी द्वेषी साधारण जनो मे की जा सकती है, कितु पचपरमेष्ठी की नहीं, इसलिए बिब प्रतिष्ठा मे इन्द्र आदि की मत्रो से स्थापना की जाती है। उपमा मे मत्र से स्थापना सिद्ध नही होती जैसा कि आप मानते हैं। १२. भारत मे जहाँ जिन मदिर है सर्वत्र चौकी पर चढ़ाने योग्य द्रव्य और पाटे पर चढ़ाया गया द्रव्य रहता है। लेखक लिखते है “चौकी मदिर से हटा देना चाहिए। दो पाटे पर दोनो द्रव्य बराबरी से रखना चाहिए क्योकि निर्माल्य पवित्र द्रव्य है। इसलिए उसे नीचे पाटे पर नहीं रखना चाहिए" । निर्माल्य का मतलब है अग्राह्य द्रव्य जो चढ़ाया गया है उसे पुन ग्रहण नही करे। इस हेतु वह अलग दिखाया जाता है। बराबरी मे तो सदेह हो जाएगा कि कौन-सा द्रव्य चढ़ाने योग्य है, कौन-सा चढ़ा हुआ । हमारी पद्धति कोई गलत नहीं है जिसे आप व्यर्थ गलत बताते है। आप चढ़े द्रव्य को सोना और चढ़ाने योग्य को लोहा बताते है।
आप निर्माल्य द्रव्य का अर्थ नही जानते । श्रीधरसेनाचार्य ने मुक्तावली कोश मे निर्माल्य का अर्थ भोगी हुई (काम मे आई हुई) वस्तु किया है, जो अग्राह्य है। आप इसका पवित्र अर्थ कर लोगो को भ्रम मे डाल रहे हैं।