Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ १० अनेकान्त [ वर्ष ६ हमें भी गर्जन के लिए उत्साहित करेगा । हिमालय से पर्वतों को लांघना तथा सिधुनदी को पार करना हमारे लिए नगण्यकार्य रह जाएँगे । विश्व में सब स्थानोंमें हमें एक अपनी शक्तिका यों ही व्यय तथा अपव्यय न करें। मनुष्यके हाथ में ही है देव व उसका उसका पुरुषार्थं उसे देवत्व ही नहीं, देवत्व के देवत्व की दिग्विजय करा सकता है— चाहिए उसमें शक्ति तथा सामर्थ्य, दृढ़ निश्चय, अडिग विश्वास, कार्य करने की असाधारण शक्ति तथा मानवताके कुछ गुण ! फिर देखिए दैवत्व उसके चरणों पर सिर नवाता है अथवा नहीं । मान भी लें देवत्व हमारी परिस्थितियोंको अधिकाँश में प्रभावित करता है, फिर भी उन परिस्थितियोंको कार्यरूपमें परिणत करने के लिए तो पुरुषार्थ ही की आवश्यकता होगी । तात्पर्य यही है कि देव अकेला कुछ भी नहीं कर सकता । वह भारतकी विधवा हिन्दू नारी है, जो पुरुषके बिना निष्प्रयोजन है तथा निरुपयोगी है। भारतकी हिन्दू नारी बड़ी पतिव्रता मानी जाती है, सतीत्वसे उसका सौभाग्य श्रक्षुण्ण माना जाता है, वह पूज्यताकी देवी मानी गई है, वह पापके पास भी नहीं फटकता; परन्तु एक पुरुषके बिना उसी श्रद्वितीय नारीके समस्त गुणोंका विलोप होजाता है और उतने ही दोष भी जाते हैं। बिना एक पुरुषके उसके रक्षकके वह मूल्य शून्य तिरस्कृत तथा भारस्वरूप हो उठती है । उसका अस्तित्र भी समाजको कुटुम्बको घातक, उसके सम्मानको संदिग्धावस्था में रखता है । यही अवस्था देवत्वकी है, उसका भी पुरुषार्थ के बिना विधवातुल्य कोई मूल्य नहीं, कोई कीमत नहीं । पुरुषार्थ मानों देवत्वका रक्षक है । पुरुपार्थं देवत्वकी वाटिकाका माली तथा कर्ता धर्ता है, जो उसके सम्मान तथा उसके सौंदर्य की रक्षा कर उसकी सुषमा वृद्धि करता है । हमें हमारे पुरुषार्थ ही पर विश्वास रखना चाहिए। केवल दैवके भरोसे बैठ हम अपनी शक्ति और सामर्थ्य को खा देंगे, हमारा जीवनरस सूख जाएगा, जीवन श्रानन्दरहित हो जायगा । उसका अंत भी असंभव नहीं । क्यों कि सब कुछ देवत्वकी देन होनेसे तो हमें कार्य करने के लिए कुछ भी शेष न रहेगा । और, हम विश्वके श्रद्गभुतालयमें रखे हुए एक दर्शनीय श्रद्भुत जन्तुसे अधिक कुछ भी न रह जाएंगे। वहीं यदि हम अपने पुरुषर्थको पहचान लेंगे, उसकी अपरिमित शक्तियोंको जान लेंगे, उसके विस्तृत प्रभाव तथा उसके असाधारण महत्वको शिरोधार्य कर लेंगे तो हमारे जीवन कोयलकी कूक, उसका पंचम स्वर सुधारस की दृष्टि करती दृष्टिगोचर होगी । संसारका गंभीर गर्जन द्वतीय श्रानन्द, उत्साह, उमंग, श्राशाका अविरल स्त्रोतसा प्रवाहित होता दृष्टिगोचर होगा, जिसमें डुबकियाँ लगा दम हमारे जीवन के कलुष, उसकी निराशा, वेदना, व्यथा, विरक्ति का परिहार कर इसी लोक में स्वर्गीय लोककी अनुभूति प्राप्त कर जीवनका सात्विक श्रानन्द पासकेंगे । इतिहासके स्वर्णाक्षरोंके पृष्ठ हमें मनुष्यकी दैवत्व पर विजय पद २ पर दिखलाते हैं। भगवान गौतमबुद्ध अपनी कठिन तपस्या तथा साधना के कारण देवत्वको प्राप्त हो चुके थे । नागयण वासुदेव, राम और कृष्ण, महावीर स्वामी तथा भगवान् पार्श्वनाथ आदि भी मनुष्यकी योनि में ही उत्पन्न हुए थे। लेकिन महान् श्रात्माएँ समयकी राह कभी नहीं देखतीं । शुभ कार्योंके लिए तथा महान् मनुष्यों के लिए, जो अपने विचारों पर कटिबद्ध है, जिन्हें अपनी शक्ति, योग्यता और हढ़ना पर विश्वास है, जो अपने लक्ष्य के लिए जीवनका मूल्य भी नगण्य समझते हैं, भाग्य, देव और ईश्वरकी समस्त शक्तियां उनके सम्मुख नतमस्तक हो जाती हैं । उनके लिए सदा सर्वदा शुभ ही शुभ है । वे पराजयका तथा असफलताका तो स्वप्न में भी विचार नहीं करते । क्यों कि असफलता तो हमारे विचारों की शिथिलताका प्रदशनमात्र है । दृढ़प्रतिज्ञ मनुष्यों को असफलताका कभी मुंह भी नहीं देखना पड़ता । और पराजय क्या है ? पराजय सदैव अंतस्थ होती है, वह अबाह्य वस्तु है, बाह्य नहीं। हम कभी किसीसे पराजित नहीं होत, पराजित हम स्वयं अपनेस ही होते हैं। पराजय हमारी अपनी द्वारका चिन्ह है, और हार हमारी शिथिलता, विचारोंकी दृढ़ना तथा कटिबद्धताका ज्वलंत प्रमाण है । इस लिए पुरुषार्थी मनुष्य पराजय और असफलताका विचार भी नहीं करते, वे किसी भी कार्यका प्रारम्भ उसकी सफलताको दैवके विश्वास पर रखकर नहीं करते; क्यों कि वे समझते हैं सफलता दैवत्व नहीं देगा, वह उन्हींका पुरुषार्थ और अध्यव्यवसाय है जो उन्हें सफलता और विजयके गौरवमय प्रदेश में अधिष्ठापित करेगा । ." तात्पर्य यह कि, जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं,

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 436