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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग 'इह संति-गया दविया, णावकंखंति जीविऊं' -संयमी पुरुष अन्य प्राणियों की हिंसा के द्वारा अपना जीवन चलाना नहीं चाहते।
अपूर्ण संयमी पूर्ण हिंसा से नहीं बच सकता। अत: उसके लिए हिंसा के दो भेद किए गए हैं :
(1) अर्थ-हिंसा। (2) अनर्थ-अहिंसा।
अर्थ-हिंसा यानी जीवन-निर्वाह के लिए होने वाली अनिवार्य हिंसा। गृहस्थ इसको न त्याग सके तो अनर्थ हिंसा को तो अवश्य त्यागे, पर यह नहीं कि अपनी दुर्बलता से हिंसा करनी पड़े और उसे अहिंसा या धर्म समझे।
मश्रूवाला ने अहिंसा के विशुद्ध और व्यवहार्य-ये दो भेद कर व्यवहार्य अहिंसा की परिभाषा करते हुए लिखा है:
बुराई से रहित और भलाई के अंश से युक्त न्याय स्वार्थ-वृत्ति व्यवहार्य अहिंसा है । यह आदर्श या शुद्ध अहिंसा नहीं है।
लौकिक दृष्टि की प्रधानता से जिस प्रकार जैन तार्किकों ने इन्द्रिय-मानस-ज्ञान, जो कि वास्तव में परोक्ष है, को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना है, वैसे ही उक्त परिभाषा में लोकप्रियता की रक्षा करते हुए अर्थ-हिंसा को व्यवहार्य अहिंसा का रूप दिया मालूम होता है, क्योंकि लोक-दृष्टि में सब हिंसा या सब स्वार्थ-दृष्टि बुरी नहीं मानी जाती । समाज जिसको अनैतिक मानता है, वह बुरी मानी जाती है। लोकदृष्टि में हिंसा अनैतिक और
अनैतिक कार्य के रूप में बदल जाती है। सामाजिक न्याय और औचित्य की सीमा तक ही हिंसा को नैतिक रूप मिलता है, तथा अन्याय और अनौचित्य की सीमा में हिंसा अनैतिक हो जाती है। उदाहरण के रूप में एक मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य की हत्या कर रहा है, उस समय वहां एक तीसरा व्यक्ति चला आया। उसने आक्रान्ता को समझाया। आक्रान्ता ने उसकी बात नहीं मानी, तब वह उस दुर्बल का पक्ष ले आक्रान्ता के सामने आ गया और उसने आक्रान्ता को मार डाला। सामाजिक नीति या व्यवस्था के अनुसार दुर्बल को बचाने वाला हिंसक नहीं माना जाता प्रत्युत उसका वैसा करना कर्त्तव्य समझा जाता है और दुर्बल की सहायता न करना अनुचित माना जाता है। धार्मिक सीमा इससे भिन्न है। आक्रान्ता को उपदेश देना धर्म को मान्य है। वह उपदेश न माने, उस स्थिति में उसे मार डालना धार्मिक मर्यादा के अनुकूल नहीं। उपदेशक का काम है-हिंसक की हिंसा छुड़ाना न कि हिंसक की हिंसा को मोल लेना-हिंसक के बदले स्वयं हिंसा करना।
एक प्राणी की रक्षा के लिए दूसरे प्राणी को मारना या कष्ट पहुंचाना अहिंसा की दृष्टि से क्षम्य नहीं।
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