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अहिंसा और शान्ति
इस विषय में अन्य अवधारणाएं भी मिलती हैं+ हिंसा का बीज जीन में है
हिंसा का बीज वातावरण में है
+ हिंसा का बीज मौलिक मनोवृत्ति में है ।
इन वैज्ञानिक अवधारणों के अतिरिक्त दार्शनिक धारणा यह है कि हिंसा के बीज कर्म-संस्कारों में हैं। इन अवधारणाओं के विस्तार में हम न जाएं। उक्त वर्गीकरण के पांच सूत्रों पर ध्यान केन्द्रित करें तो हम अपने लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं, हिंसा में कमी ला सकते हैं और अहिंसा को विस्तार दे सकते हैं । अहिंसक संस्थाओं का अपना मंच हो
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क्या यह कार्य अहिंसा के विषय में प्रयोग और प्रशिक्षण के बिना किया जा सकता है ? एक प्राचीन अवधारणा है- अहिंसा एक जलाशय है । सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह उसकी सुरक्षा के सेतु-बंध है- 'अहिंसा पयसः पालिभूतान्यन्यव्रतानि यत्' । समस्या का मूल हेतु है परिग्रह । हिंसा उसका परिणाम है। आर्थिक समस्या ने हिंसा की समस्या को जटिल बनाया है । असत्य, चोरी उसकी परिक्रमा कर रहे हैं । कलह और युद्ध - यह हिंसा का शिखर है। महावीर की इस वाणी में अनुभव का साक्षात्कार होता है ।
अहिंसा के क्षेत्र में काम करने वाली स्वयं सेवी संस्थाओं का संयुक्त राष्ट्र संघ में एक मंच हो। अहिंसा के क्षेत्र में काम करने वाली स्वयं सेवी संस्थाओं का अपना एक मंच हो, संयुक्त राष्ट्र संघ हो । उसका अपना अर्थ - शास्त्र हो, समाजशास्त्र हो, आचार-संहिता हो । यदि हम यह बात प्रस्तुत नहीं करेंगे यो अहिंसा विश्वमानस में अपना स्थान नहीं बना पाएगी।
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अहिंसा की सफलता के सूत्र
एक ओर अहिंसा की बात चल रही है दूसरी ओर शिक्षा में अहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। वर्तमान शिक्षा केवल बौद्धिक विकास तक ही सीमित है। जब तक हमारी शिक्षा में बौद्धिक व्यक्तित्व के साथ भावनात्मक व्यक्तित्व के विकास की बात नहीं जुड़ेगी, अहिंसा की बात व्यर्थ हो जाएगी।
शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण कर सके। ऐसा व्यक्तित्व जिसमें अध्यात्म और विज्ञान दोनों समान रूप से समाए हुए हैं। केवल अध्यात्म बहुत उपयोगी नहीं होता और केवल विज्ञान बहुत खतरनाक होता है। यह असंतुलन एक समस्या है। जिसका समाधान खोजा जाना चाहिए । आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व के निर्माण के लिए कुछ बातों पर ध्यान केन्द्रित होना जरूरी है
+ प्रवृत्ति - निवृत्ति का संतुलन
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