Book Title: Ahimsa aur Anuvrat
Author(s): Sukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 185
________________ 166 अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग मान्यता दी है ? क्या उनके व्यक्तिगत स्वामित्व के संस्कार बदल गये हैं ? क्या वहां आर्थिक घोटाले नहीं होते ? क्या कोई साम्यवादी देश यह दावा कर सकता है कि उसकी जनता में अनैतिकता या भ्रष्टाचार सर्वथा नहीं हैं ? यदि ऐसा हो तो मानना चाहिए कि साम्यवाद मनुष्य के आन्तरिक परिवर्तन में सफल हुआ है। यदि ऐसा नहीं है और समय-समय पर प्राप्त संवादों से यह ज्ञात होता है कि ऐसा नहीं है, तब मानना चाहिए कि साम्यवाद ने दण्डशक्ति को प्रखर बनाकर मनुष्य की प्रकृति को बाध्य कर रखा है, किन्तु उसे बदलने में सफल नहीं हुआ है। मनुष्य की प्रकृति को बदलने की क्षमता यदि किसी में है तो वह अहिंसा में ही है, अन्य किसी व्यक्ति में नहीं है। अहिंसा व्यक्ति की उन्मुक्त स्वतंत्रता है। जो व्यक्ति उसको हृदय की पूर्ण स्वतन्त्रता से स्वीकार करता है वह परिस्थिति का सामना कर लेता है, किन्तु अनैतिक आचरण नहीं करता या कर ही नहीं सकता। इसका हेतु है करुणा का विकास, आत्मौपम्य की भावना का विकास। जिसके अन्त:करण में करुणा प्रवाहित नहीं होती, वह सही अर्थ में साम्यवादी या समाजवादी हो सकता है, यह समझने में मुझे कठिनाई है और यह भी सच है कि राजनीतिक साम्यवाद की मर्यादा में मानवीय करुणा को वह स्थान नहीं मिल सकता जो सत्ता-संग्रह को मिलता है। पूंजीवादी समाज अर्थशक्ति से उत्पन्न क्रूरता से पीड़ित है तो साम्यवादी समाज सत्ताशक्ति से उत्पन्न क्रूरता से पीड़ित है। मानव के प्रति करुणा को प्राथमिकता कहीं भी प्राप्त नहीं है। वह केवल अहिंसक समाज में ही हो सकती है। अहिंसक समाज में अर्थ और सत्ता का मूल्य सर्वोपरि नहीं होगा। उसमें सर्वोपरि मूल्य होगा मानवता का। 7.7 अहिंसक समाज-व्यवस्था जीवन की आवश्यकताएं नहीं छूटती- यह निर्विकल्प है। विकल्प उनके पूर्ति-क्रम में होते हैं। पूर्ति की पद्धति सामाजिक होती है। निर्वाह की जिस पद्धति को समाज उचित या अनुचित मानता है, उसके पीछे उसकी दार्शनिक मान्यताएं होती हैं। इच्छा पर नियन्त्रण करना सभी समाजों में मान्य होता है। यह समाज की एकरूपता है। नियन्त्रण का तारतम्य और उसके प्रेरक हेतु सबमें एकरूप नहीं होते। नियन्त्रण के चार प्रकार हैं- (1) भौतिक, (2) राजनीतिक, (3) सामाजिक, (4) नैतिक या आध्यात्मिक। उनके प्रेरक हेतु क्रमशः प्रकृति-भय, राज्य-भय, समाज-भय और आत्मपतन-भय हैं। इनमें पहले तीन भय बाहरी हैं और आखिरी आन्तरिक है। प्रकृति, राज्य और समाज की मर्यादा का उल्लंघन करने वाला उनके द्वारा दण्ड पाता है। इसलिए दंड की आशंका हो, वहां उनकी मर्यादा का पालन और जहां वह न हो वहां मर्यादा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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