Book Title: Ahimsa aur Anuvrat
Author(s): Sukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 254
________________ अनुप्रेक्षाएं ब्रह्मचर्य की शक्ति कई प्रकार की वृत्तियां होती हैं। एक वृत्ति वह होती है, जिसमें यह वासना जागती ही नहीं। यह तो बहुत आगे की भूमिका है। एक वृत्ति वह होती है, जिसमें वासना जागती है किन्तु सताती नहीं और एक वृत्ति वह होती है, वासना जागती है और निरन्तर सताती रहती है। अति-कामुकता, कामुकता और अकामुकता- ये तीन अवस्थाएं बन जाती हैं। गृहस्थ के लिए अकामुकता वाली बात तो होती नहीं। वह कोई संन्यासी तो नहीं जो बिलकुल काम का सम्पर्क न करे। अब शेष दो वृत्तियां बचती हैं। एक तो काम का सेवन करता है और वासना उसे विवश कर देती है, उसे सताती है। वह सताए नहीं। व्यक्ति नियमन कर सके, इतनी क्षमता तो हर व्यक्ति में जागनी चाहिए। उस पर हमारा नियंत्रण रहे, हम उसके नियंत्रण में न जाएं । साधना का रहस्य यही है कि वृत्तियां हम पर हावी न हों, वे हमारी स्वामी न बनें। इतना ही तो करना है, बस। आप वीतराग की दृष्टि से कभी न सोचें कि ध्यान करेंगे तो संसार कैसे चलेगा? सब ब्रह्मचारी हो जाएंगे, यह भी अतिकल्पना की बात होगी। यह कभी संभव नहीं है। और बड़े-बड़े संन्यासियों के लिए भी कितनी कठिनाई की बात होगी, यह भी जानते हैं। इस बात की तो आप चिन्ता न करें। यह सोचें कि यह बड़ी जटिल वृत्ति है, इस पर नियंत्रण करने की थोड़ी-सी भी वृत्ति जाग जाए। नियंत्रण में दो बाते हैं- एक नियंत्रण होता है दमन से, एक नियंत्रण होता है उदात्तीकरण से। दमन से और अधिक प्रतिक्रिया होती है और पागलपन वाली बात तब आती है जब आदमी वृत्ति को जबरदस्ती रोकता है, नियंत्रण करता है, दमन करता चला जाता है। दमन की प्रतिक्रियास्वरूप चित्त में क्षोभ पैदा होता है, एक प्रकार का पागलपन भी आ जाता है। पुरा नहीं तो आधा पागल बन जाता है। जो लोग शादी नहीं करते, उन्हें विक्षिप्तावस्था में हमने देखा है। यह स्थिति आ जाती है। अतिनियंत्रण के द्वारा। मैं जिस नियमन की बात कर रहा हूं वह जबरदस्ती दबाना नहीं है, किन्तु उस वृत्ति का उदात्तीकरण करना है। उस वृत्ति को इतना विशाल बना दिया जाता है व्यापक प्रयोग के द्वारा कि जिससे सताने की बात समाप्त हो जाती है। इसमें दमन नहीं होता, जबरदस्ती नहीं रोका जाता, किन्तु यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे वे हार्मोन्स कम स्रावित होते हैं और अपना कम प्रभाव जताते हैं। यह सारा साधना के द्वारा संभव होता है और इसमें चैतन्य-केन्द्रों का ध्यान बहुत सहयोगी बनता है। निष्कर्ष की भाषा में ब्रह्मचर्य का अर्थ है- सब इन्द्रियों का संयम और मन का संयम । जो व्यक्ति जननेन्द्रिय का संयम करना चाहता है उसे विशेष ध्यान देना होगा रसनेन्द्रिय के संयम पर। इसलिए उस स्थान का नाम भी प्रेक्षाध्यान में है- स्वास्थ्य केन्द्र । यानी वह स्वास्थ्य का केन्द्र है। आदमी उतना ही मन से और भावना से स्वस्थ होगा जितना कि स्वास्थ्य केन्द्र उसका अधिक नियमित होगा, वश में होगा, सधा हुआ होगा। जीभ पर संयम करना, जीभ को स्थिर करना, जीभ को शिथिल करना और मौन करना- ये सब उसमें सहायक बनते हैं, इन सबसे सहायता मिलती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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