Book Title: Ahimsa aur Anuvrat
Author(s): Sukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 260
________________ 241 अनुप्रेक्षाएं संग्रह और त्याग संग्रह का अर्थ है- धर्म का नाश और पाप का पोषण। धर्म कहता है- पूंजी अनर्थ का मूल है। अन्याय का अखाड़ा है। धर्म की धन से नहीं पटती। धर्म और धन में आपस में पूर्व-पश्चिम का विरोध है। धर्मक्षेत्र में धनी और धन की आशा रखने वाले दरिद्र का महत्त्व नहीं। वहां महत्त्व है अपरिग्रही और त्यागी का। इसीलिए दरिद्र और त्यागी अकिंचन होते हुए भी एक नहीं होते। दान करने के लिए भी संग्रह की भावना नहीं होनी चाहिए। दुनिया किसी के दान की भूखीं नहीं, उसे संग्रह पर रोष है। यदि पूंजीपति इसे नहीं समझ पाये तो चालू वेग न अणुबम से रुकेगा, न अस्त्र-शस्त्रों के वितरण से। ___ भारतीय तत्त्ववेत्ता हजारों वर्ष पहले इसके मूल तक पहुंच चुके। उन्होंने बताया कि व्यक्ति-स्वातन्त्र्य और समानता का विकास इसलिए नहीं होता है कि मनुष्य के हृदय में 'मूर्छा' है, बाहरी वस्तुओं के प्रति ममता है, आकर्षण है। बाहरी वस्तुएं दुःख नहीं देती, दुःख देता है. उनके प्रति होने वाला आकर्षण । जब तक इच्छाओं को सीमित करने की बात का यथेष्ट प्रचार नहीं होगा, तब तक पूर्ति के साधनों का समाजीकरण केवल बाह्य उपचार होगा। व्यक्ति की स्थिति राष्ट्र ले लेगा। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का शोषक बन जायेगा। समस्या का ठीक समाधान नहीं हो सकेगा। मूर्छा से संग्रह होता है, संग्रह से श्रम में कमी होती है, वैषम्य बढ़ता है। ऐसी स्थिति में समतावाद का सूत्र है- मूर्छा का त्याग। यदि दुनिया वास्तव में युद्ध से डरती है, तो वह इस पथ पर आए। दरिद्र और पूंजीपति दोनों त्याग की प्रशस्त भूमिका पर आरोहण करें। चतुर्थ अभ्यास रंगों का ध्यान 1. शांति-केन्द्र पर नीले रंग का ध्यान शांति-केन्द्र पर चित्त को केन्द्रित करें। वहां पर मयूर की गर्दन की भांति नीले रंग का ध्यान करें। अनुभव करें "मेरे भीतर विधायक भाव का विकास हो रहा . 5 मिनट 2. दर्शन-केन्द्र पर हरे रंग का ध्यान दर्शन केन्द्र पर चित्त को केन्द्रित करें। वहां पर चमकते हुए हरे रंग का ध्यान करें। अनुभव करें, "मेरी आध्यात्मिक चेतना का विकास हो रहा भाव-नियंत्रण की क्षमता का विकास हो रहा है।" 5 मिनट 000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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